रेतीली सफलता का ब्रेकडाउन -राँग टर्न


ब.व.कारंत ने एक इंटरव्यू में रंजीत कपूर के बारे में कहा था-'शुरू से लगता था,इसमें दम है.अब भी लगता है,अगर निखरता तो बहुत अच्छा लगता."
रंजीत कपूर के नए नाटक 'राँग टर्न' के बारे में यही लगता है की काश थोडा और निखरता तो अच्छा होता.कपूर mass audience के निर्देशक हैं.उनका अपना एक विशाल दर्शक-वर्ग है.और यह दर्शक-वर्ग उनके नाटको'बेगम का तकिया',मुख्यमंत्री,पैर तले की ज़मीन,जनपथ किस,एक रुका हुआ फैसला,आंटियों का तहखाना,अंतराल,शार्टकट,एक संसदीय समिति की उठक-बैठक आदि से निर्मित हुआ है.मैं भी इसी वर्ग का हूँ कम-से-कम रंजीत कपूर के लिए.
रंजीत कपूर का नयी नाट्य-प्रस्तुति'राँग टर्न' पिछले दिनों रा.ना.वि.के सम्मुख प्रेक्षागृह में खेला गया.यह रा.ना.वि.की छात्र प्रस्तुति थी.'राँग टर्न'नाटक मूल जर्मन कहानी'ब्रेकडाउन'से प्रभावित है और २१ वी सदी में प्रयुक्त होने वाले मुहावरे 'कामयाबी की राह'का विश्लेषण करता है.नाटक का विषय उसके कथ्य को समझने में अस्पष्ट है.न इसमें किसी एक के विचार दर्शाए गए हैं ना इसके लेखन में.'नाटक की प्रस्तुति में निर्देशकीय पाठ के अलावा अभिनेता और दर्शक के पाठ का सम्मिलित व्यवहार होता है पर यहाँ दर्शक का पाठ बार-बार टूटने लगता है.'यह नाटक जीवन में विभिन्न आयामों,महत्वाकांक्षाओं ,दबी-छुपी इच्छाओं,जालसाजी,न्याय आदि को परत-दर-परत खोलता है.किस तरह से एक नकली मुकद्दमा अंततः वास्तविक होकर प्राणदंड में बदल जाता है तथा दंड निर्धारित करने वाले मनोरोगियों सरीखे वकीलों और जज का यह न्याय उनकी दृष्टि में poetic justice है.कायदे से 'यह नाटक मानव-स्वभाव के विरोधाभासों को उजागर करने की कोशिश है'-पर इस तरह के कथानक के भीतर का तनाव ही सबसे महत्त्व का होता है जो इस नाटक से नदारद रहा.
रंजीत कपूर ने अपने रा.ना.वि.के छात्र-जीवन में (१९७६ में)डिप्लोमा प्रोडक्शन में जर्मन नाटक'वायजक'के लिए best director का पुरस्कार जीता था.और इस पुरस्कार का असर उनके निर्देशित नाटकों में दिखता भी रहा है.पर 'राँग टर्न'देखते हुए यह मलाल रह ही गया कि काश निर्देशक ने नाटक में 'टेक्स्ट'पर और अधिक म्हणत कर ली होती तो शायद नाटक भी रंजीत कपूर के पूर्ववर्ती नाटकों के ही तरह एक बेहतर नाटक के तौर पर याद किया जाता.पर शायद बात इतने से नहीं बनती क्योंकि यह नाटक वास्तव में सम्भावना नहीं जगाता.नाटकों में सिनेमाई तकनीक का जिस धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है वह नाट्य-प्रभाव को अधिक बेहतर बनाने के लिए है न कि मात्र चमत्कार प्रदर्शन के लिए.'राँग टर्न'में यह चमत्कार की हद तक लगता है क्योंकि इसके प्रयोग इसे नाटक कम सिनेमा अधिक बनाते हैं.
नाटक का उत्तरार्ध संजय खान की एक पुरानी फिल्म'धुंध'कुछ-कुछ हिस्सों में महेश भट्ट की'जिस्म'श्रेयस तलपडे की एक सुपर फ्लाप फिल्म 'अगर'तथा जेम्स हेडली चेइज'के उपन्यासों सरीखा लगने लगता है,जिस वजह से इस थ्रिलर नाटक की साड़ी कहानी जानी-पहचानी लगने लगती है,जहां सब कुछ 'प्रेडिक्टेबल' है.दो वकीलों और कठघरे में मुलजिम कहीं से भी अपने संवादों में'एक रुका हुआ फैसला'सरीखा या फिर तेंदुलकर के 'खामोश,अदालत जारी है'जैसा प्रभाव नहीं छोड़ पाते.(वैसे तुलना बेमानी है)जबकि इसकी काफी गुंजाईश बन सकती थी.
बहरहाल,'बहुमुख'जैसे छोटे प्रेक्षागृह को एक बेहतर भव्य सेट में तब्दील करने के लिए तथा नाटक के एक दृश्य के सत्य को तीन अलग-अलग कोणों से flash back की तरह प्रस्तुत करने के लिए,थ्रिल पैदा करने में प्रयुक्त संगीत के लिए आप रंजीत कपूर को सराह सकते हैं.और नाटक के अंत में मुस्कुराते हुए नुक्कड़ वाली दूकान पर चाय पीते हुए यह अंदाजा लगा सकते हैं कि दो घंटे कोई नाटक ना देखा कोई बी ग्रेड मसाला हिंदी मूवी देख ली है.

Comments

Jandunia said…
महत्वपूर्ण पोस्ट।
anjule shyam said…
गर थोडा और बेहतर करता तो आदमीं अच्छा बन सकता था...मगर क्या करें हर बार कुछ चीजें हाथ से छुट जाती हैं...

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