भारतीयता की ओर लंगड़ी प्रस्तुति 'सलाम इंडिया'(लुशिन दुबे)


नाटक में महत्वपूर्ण यह है कि जो प्लाट आप चुनते हैं , उसकी स्टोरी टेलिंग सही टाईमिंग और तरीके से मंच पर हो | वह नाटक अपने मंच पर उतरने के साथ ही,अपनी आगे की जिज्ञासा प्रेक्षकों में जगा दे | ऐसा होने के लिए खेले जाने वाले नाटक के रंगपाठ का कसा हुआ होना चाहिए फिर बारी आती है-अभिनेताओं की | नाटक की प्रस्तुति में नाटक,दर्शक और स्पेस का सम्बन्ध महत्वपूर्ण होता है | जब नाटक रनिंग टाईम में इन तीनों से अलग होता है,वैसे ही डिरेल हो जाता है | यह त्रयी टाईम,एक्शन,प्लेस की त्रयी से तनिक अलग है |लुशिन दुबे द्वारा निर्देशित 'सलाम इंडिया'(अभिमंच सभागार,रानावि)इसी तरह के डिरेलमेंट का शिकार हो जाता है | 'सलाम इंडिया'पवन वर्मा के बेस्ट सेलर पुस्तक 'बीईंग इंडियन'से प्रभावित है और इसके नाटककार नागालैंड के निकोलस खारकोंगकर हैं | इस नाटक में कोलाज़ की तरह चार कहानियों के सोलह किरदारों को मंच पर चार अभिनेता निभाते हैं | पर कई बार ऐसा होता है कि अभिनेता अपने-अपने चरित्र को निभाने में काफी लाउड हो जाते हैं | नाटक में कई सामाजिक इश्यु उठाए गए हैं,जिनमें कई पेंच रखे गए हैं,दिक्कत केवल निर्वहन को लेकर है | बैरी जान की शिष्य रहीं दुबे अलेक पदमसी के नाटक 'लेडी मैकबेथ' में निभाई अपनी भूमिका के लिए सराही जा चुकी हैं,पर भर्तिया की कहानी कहने में उनके भीतर का कलाकार भूमिका से न्याय करने में असफल रह जाता है | भारतीय और खासकर शहर-ए-दिल्ली के चार अलग-अलग संस्कृतियों/समाजों की कहानी और वैश्विक/ग्लोकल होते जाते भारत और इसके लोगों की कथा कहते कहते यह नाटक लंगड़ी चाल में रेंगकर एक सतही प्रस्तुति बनकर रह जाती है | ऐसे समय में जब कई छोटे सेंटर्स के रंगकर्मियों का रंगकर्म हमें एक नयापन अपने सीमित कूबत के बावजूद लगातार दे रहा है,वैसे में इतने सीनियर रंगकर्मियों ,सच कहें तो फाईव स्टारी रंगकर्मियों को भी एक नए नज़रिए का रंगकर्म सामने लाना चाहिए जिसकी कथा-कहने की शैली कम-से-कम कायदे की हो | लुशिन दुबे के इस नाटक ने वाकई बहुत निराश किया |



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