भोजपुरी फिल्मों का 'अ-भोजपुरिया'सौंदर्यशास्त्र
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आज भोजपुरी सिनेमा जगत अपने शवाब पर है.किलो के भाव फिल्में आ रही हैं,हज़ारों लोगों को काम मिल रहा है.कईयों को इस बात का मुगालता हो सकता है कि यह दौर भोजपुरी का स्वर्णिम दौर है.इसमें कोई दो राय नहीं कि यही वह समय है जब भोजपुरी ने बड़े कैनवास पर अपनी छाप उकेरी है,पर इस कैनवास पर आने की भेडचाल में वह अपनी स्वाभाविक चाल और राह दोनों से भटक गया अथवा भूल गया है.कहा जाता है कि रोम रातों-रात नहीं बसा था.वैसे भी किसी समाज,शहर,उद्योग को विकसित होने में एक लंबा समय लगता है.बेतरतीब और बिना प्लानिंग के बने,बसे शहर,समाज,उद्योग जल्द ही नारकीय स्थिति में आ जाने को अभिशप्त हो जाते हैं.आज भोजपुरिया समाज के लिए यह बेहतर बात है कि भोजपुरी फिल्मों का लगभग सूखा संसार लहलहाने लगा है,पर अब यह संसार अपनी स्वाभाविक गति को भूल चूका है,यह अब रपटीली राह पर चल रहा है.एक समय था कि यह फिल्में नोटिस में नहीं थीं पर अब जबकि इनको पहचान मिल चुकी है और इसका दर्शक-वर्ग और समुदाय बेहतर ढंग से निर्मित हो चला है फिर ऐसे में जरुरत अब इनके रंग बदलने की है वरना इनकी भी नियति उन अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों की तरह हो जाएगी,जिनकी