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Showing posts from January, 2013

नौटंकी

उत्तर भारत के इस लोकनाट्य शैली की प्रसिद्धि का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव में उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक आते हैं | जयशंकर प्रसाद नौटंकी का सम्बन्ध नाटकी से जोड़ते हैं | अन्य लोक नाटकों की ही तरह नौटंकी के शुरुआत और नामकरण के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं | कोई इसका सम्बन्ध महाकवि कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' के स्वांग नाट्य से जोड़ता है, तो कोई सिद्ध कन्हपा के डोमिनि के साथ | ब्रजभूमि में इसका सम्बन्ध नखरीली नवयुवती से जोड़ा जाता है  | बहरहाल, जो भी हो, नौटंकी लोकनाट्य की जनप्रिय विधा है और इसका इतिहास भी अधिक पुराना नहीं लगता, क्योंकि इसके प्रदर्शनों पर कई अन्य नाट्यों का भी प्रभाव है | लोकनाट्यों के अध्येता शिवकुमार 'मधुर' इसे कुल डेढ़ सौ वर्षों का बताते हैं | नौटंकी के बारे में वह लिखते हैं -"जहाँ बृज क्षेत्र में स्वांग और भगत नामक लोकमंच लीला-नाटकों से प्रभावित होकर भक्ति भावों से ओत-प्रोत रहा, वहाँ पंजाब और हरियाणा में वाजिद अली शाह के रहस और अमानत (लखनवी) की 'इन्दर सभा' के रंग वाली उर्

विदापत नाच या कीर्तनिया

जगदीशचन्द्र माथुर ने बिदापत नाच को 'उत्तर बिहार की अल्प-परिचित प्रदर्शन-विधा' से अभिहित किया है | "बिहार के पूर्णिया जिले में 'बिदापत नाच' नाम से एक आंचलिक नाटक की परंपरा है | इसमें मध्ययुगीन मिथिला के किर्तनियाँ नाटक तथा असम के अंकिया नात दोनों की झलक दिखाई पड़ती है | मंडलियों में प्रायः किसान और मजदूर होते हैं - अधिकतर हरिजन-वर्ग के |.......मंच और अभिनय परंपरा में असमिया अंकिया नाट का प्रभाव अधिक स्पष्ट है |.......जिस स्थान पर पात्र अपनी सज्जा करते हैं, उसे यहाँ 'साज घर' कहा जाता है | इसकी तुलना असमिया-नाटक के 'छ्घर' या 'छद्मगृह' से की जा सकती है |" (देखें,परंपराशील नाट्य ,जगदीशचंद्र माथुर,पृष्ठ-88.) इसमें मंच का विधान मुक्ताकाशी होता है | अन्य लोक नाटकों की तरह ही इस नाट्य-रूप की शक्ति इसका 'संगीत' पक्ष ही है | मुख्य गायक 'मूलगाईन' कहलाता है और उसके साथियों को 'समाजी' कहा जाता है | मूलगाईन असम नाट्य अंकिया के मूल गायक को भी कहते हैं, तो उधर समाजी भोजपुरी के नाट्य रूप बिदेसिया में भी उपस्थित होते हैं | गीतात्

लोकनाट्य सांग

[जन्नत टॉकीज पर लोक नाट्य रूपों के बारे में  एक इन्फोर्मेटिव(सूचनात्मक) टिप्पणी  की पहली कड़ी में हरियाणा के लोक नाट्य सांग के बारे में चंद बातें ] ================================================================== हरियाणा का लोकनाट्य ‘सांग’ नाटक के किसी शास्त्रीय रूप और बंधन से पूरी तरह नहीं जुड़ता | श्री जगदीश चंद्र प्रभाकर “सांग को प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं | उनका मानना है कि ‘संगीतक’ से ‘सांगीत’ और ‘सांगीत’ से ‘सांग’ शब्द विकसित हुआ |"(देखें,हरियाणा पुरातत्व,इतिहास,संस्कृति एवं लोकवार्ता,पृष्ठ-२०६) . जबकि सुरेश अवस्थी ने नौटंकी, संगीत, भजन, निहालदे और स्वांग को समानार्थी मानते हुए, स्वांग को इसका प्राचीनतम रूप माना है |”(भारतीय नाट्य साहित्य,डॉ.नगेन्द्र,पृष्ठ-४१०) . सांग की उत्पत्ति का सन्दर्भ चाहे जो हो, पर इतना तय है कि यह हरियाणा के जनसमुदाय की सांस्कृतिक पहचान है | जैसे कि हर प्रदेश का लोकनाट्य उसका सांस्कृतिक दस्तावेज़ होता है, वैसे ही सांग भी हरियाणा का सांस्कृतिक दस्तावेज़ है | सांग खुले आसमान के नीचे, चौतरफा दर्शकों से घिरा लोकरंजन और लोकरुचि का क्षेत्र