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Showing posts from 2013

भिखारी ठाकुर के मायने

“ठनकता था गेंहुअन तो नाच के किसी अँधेरे कोने से धीरे-धीरे उठती थी एक लंबी और अकेली भिखारी ठाकुर की आवाज़ ” कवि केदारनाथ सिंह की यह पंक्तियाँ भोजपुरी और पूरे पुरबियों के बीच भिखारी ठाकुर की लोकप्रसिद्धि का बयान ही है. प्रख्यात रंग-समीक्षक हृषिकेश सुलभ ने भी भिखारी ठाकुर की आवाज़ को ‘अधरतिया की आवाज़’ कहा है. जब भी भोजपुरी संस्कृति और कला-रूपों पर बात होती है, भिखारी ठाकुर का नाम सबसे पहले जुबान पर आता है. ऐसा होने की कई वाजिब वजहें हैं. भारतीय साहित्य और रंगजगत में ऐसे उदाहरण शायद ही मिले, जहाँ कोई सर्जक या रंगकर्मी प्रदर्शन के लगभग सभी पक्षों पर सामान दक्षता रखता हो और उसनें कहीं से कोई विधिवत शिक्षा न ली हो. अमूमन जितने भी रंगकर्मियों ने अपनी लोक-संस्कृति का हिस्सा होकर अपने रंगकर्म को विकसित किया अथवा उसको दूसरी संस्कृतियों से भी परिचय कराया, वह सभी किसी-न-किसी स्कूल के सीखे हुए, दक्ष और सुशिक्षित कलाकार थे. फिर चाहे वह महान रंगकर्मी हबीब तनवीर, एच.कन्हाईलाल या रतन थियम ही क्यों न हों. यहाँ इन पंक्तियों के लिखने का अभीष्ट बस इतना ही है कि यहाँ इन रंगकर्मियों से या उनके रंग

सिनेमाई युवा का संसार

( यह लेख भारतीय पक्ष पत्रिका के लिए जुलाई 2010 में लिखा गया था. आज अचानक ही इसकी छायाप्रति हाथ लगी. फिर भारतीय पक्ष के वेबसाईट से आर्काईव से अपने इस लेख की प्रति ली और  आपसे शेयर करूँ.-मोडरेटर )   समानांतर सिनेमा के युवा-वर्ग का असंतोष और सिस्टम में उसकी लघुता ज्यों की त्यों दिखती है। बिना किसी चमत्कार के नंगा , कड़वा सच , नंगे और अधिक कड़वे रूप में दर्शकों को झिंझोड़ता है। पर पैरलल सिनेमा का यह युवा प्रश्न उठा कर सिस्टम का शिकार होता दिखता है और कहीं न कहीं इस बात को साबित कर देता है कि इस भ्रष्ट गठजोड़ की गांठ इतनी मजबूत है कि यह आम आदमी से टूटेगी नहीं और उसकी नियति इसके खिलाफ खत्म ही होना है। हिंदी सिनेमा के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि उन फिल्मों का प्रतिशत अधिक है , जो शहरी रवायत के कथानक लिए हुए हैं जबकि इसके उलट गंवई कहानियों वाली फिल्में अपेक्षाकृत कम ही आई हैं। इस भेद के भीतर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सामान्यत: हिंदी सिनेमा के युवा चरित्रों की बात की जाये तो इसकी नींव शुरुआत में ही पड़ गयी थी। नयी-नयी मिली आजादी ने मोहभंग की स्थिति

“Beyond Borders people and perception “ दसवाँ सत्यवती मेमोरियल लेक्चर (जाहिदा हिना)

( पिछले कुछ महीनों से मीडिया द्वारा कश्मीर में बार-बार बोर्डर पर गोलीबारी, क्रोस बोर्डर आतंकवाद की खबरें  आ रही हैं, इधर देश के भीतर आगामी चुनावों को लेकर जिस तरह का माहौल एक सोची-समझी रणनीति के तहत रच दिया गया है, वैसे में एक अजीबोगरीब घुटन का वातावरण आस-पास आकार लेने लगा है. इस तरह के हालात में मुझे यह जायज़ लगा कि लगभग एक वर्ष पहले मेरे कॉलेज में पाकिस्तान की ख्यात लेखिका जाहिदा हिना का दिया सत्यवती मेमोरियल व्याख्यान beyond borders, people and perception आपसे शेयर किया जाये, हमें आइना दिखाता यह व्याख्यान यहाँ प्रस्तुत है कि हम जा कहाँ रहे हैं, हम हो क्या गए हैं.- मोडरेटर)  माननीय उप-कुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय प्रो.विवेक सुनेजा, प्रो.अपूर्वानंद, शिबा सी.पांडा, डॉ.अजीत झा, डॉ.सतेन्द्र कुमार जोशी, डॉ.देवेन्द्र प्रकाश, डॉ.साधना आर्या, मैं आप सब लोगों का बेहद शुक्रिया अदा करती हूँ कि आपने मुझे दिल्ली के इस मशहूर कॉलेज में आने की दावत दी और ‘Beyond borders people and perception’ जैसे अहम मुद्दे पर बात करने का मौका दिया | मैं हॉल में बैठे हुए तमाम फैकल्टी मेम्बर्स, तमाम स्टूडेंट्स

हिंदी लोकनाट्य : विविधता में एकता

भारत बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक, बहुरंगी देश है | अनेक लोक कलाएँ, लोकनाट्य रूप(ज्ञात और अज्ञात) इसके विभिन्न प्रान्तों में बिखरे पड़े हैं | आश्चर्यजनक रूप से इतनी विविधता के बावजूद भारतीय लोकनाटकों में एक जबरदस्त एका दिखाई देती है | यह एका शिल्प के स्तर पर पूर्वरंग, संगीत की प्रधानता, कथावस्तु अथवा सूत्रधार या विदूषक के रूप में दिखाई देती है | लगभग सभी लोकनाटक किसी-न-किसी रूप में नाट्यशास्त्र के पूर्वरंग की विधि का पालन करते हैं | सूत्रधार, नट-नटी, विदूषक इत्यादि नाट्यशास्त्र से ही इधर आये हैं | यही वह धागे हैं, जिनसे बंधकर एक भौगोलिक स्थितियों में ना होने के बावजूद भारत जैसे विशाल देश में जातीय संस्कृति की एकता दिखायी देती है | इस विशिष्टता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए, डॉ.वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी अपनी पुस्तक "भारतीय लोकनाट्य" की भूमिका में लिखते हैं – “लोकक़ला रुपों की जातीय संस्कृति से गहरी निकटता रही है | ये कला रूप अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी विशिष्टता के अनुरूप परस्पर भिन्न शैल्पिक निजता रखने के बावजूद अंतर्वस्तु के स्तर पर गहरे एकात्म होते हैं | लोकगीतों, कलाओं और लोक