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Showing posts from 2008

सरहद पार मर रहा है संगीत ...

आज सुबह के अखबार में पढने को मिला ,कि'पाकिस्तानी अधिकारियों ने मशहूर और हर दिल अज़ीज़ ग़ज़ल गायक ज़नाब गुलाम अली साहब को इंडिया आने से रोक दिया है'-इस ख़बर से जितना झटका मुझे लगा उससे अधिक गुलाम अली साहब की बात दिल को चीर गई-'मैं सदमे की हालत में हूँ,मुझे रोका गया है ,हालात ठीक नहीं हैं'-अब तक आतंकी चाहे कितनी भी घटनाओं को अंजाम देते रहे हों पर संगीत को दोनों मुल्कों में नफरत की खाई को पाटने वाली कड़ी माना जाता रहा .और चाहे गुलाम अली साहब हों .नूरजहाँ बेगम,नुसरत साहब,मुन्नी बेगम ,फरीदा खानम जी ,लता जी,रफी-मुकेश-किशोर,आशा जी -ये किसी मुल्क की ख़ास अपनी बपौती नहीं हैं .इनके चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं.फ़िर ये कौन-सी मानसिकता के लोग हैं जो ऐसा कर रहे हैं.पाकिस्तानी सरकार सिर्फ़ ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि कट्टरपंथियों का काम है ..क्योंकि इस बार मामला ख़ुद सरकार के शर्मनाक कदम का है...गुलाम अली साहब को ऐसी कैद में डालना उनके साथ बेहद ना-इंसाफी ही नहीं बल्कि एक कलाकार को मार देने जैसा है.ये बहुत बुरा दौर है ..वाकई. पाकिस्तानी स्कोलार्स और इंटेलेक्चुअल्स कहाँ सोय

मिस्टिक हिमालय में "चोपता"की चांदनी रात ...

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गढ़वाल वैसे तो अनेकानेक सुंदर-सुंदर जगहों से भरा पड़ा है। पर हम जिस जगह की बात कर रहे हैं वह चोपता है। चोपता गोपेश्वर से ३८ किलोमीटर की दूरी पर केदारनाथ वन्य -जीव प्रभाग के मध्य स्थित एक छोटी किंतु बेहद ही खूबसूरत जगह है। यहाँ पहुँचने के दो रास्ते हैं-पहला जो अधिक आसान और सीधा है वह गोपेश्वर ,मंडल होकर तथा दूसरा उखीमठ होकर। उखीमठ केदारनाथ बाबा की शारदीय पीठ है। चोपता को गढ़वाल का चेरापूंजी कहा जाता है ।कारण यहाँ बदल कभी भी आकर आपके ऊपर हलकी-तेज़ फुहार छोड़ जाते हैं।जैसे ही आप गोपेश्वर की तरफ़ से आते हैं और जब माईल स्टोन यहाँ शो करता है किचोपता १ किलोमीटर तभी आप अपने पैर अपनी गाड़ी के ब्रेक पर तेज़ी से लगाने को मजबूर हो जाते हैं। ना ना ..बात ज्यादा खतरे की नहीं है। दरअसल ,इस तीखे मोड़ से मुड़ते ही चोपता अपनी सारी खूबसुरती आपके आंखों में भर देता है,और आप फटी-फटी आंखों और खुले मुहँ से इस दृश्य और वहाँ पसरी अलौकिक शान्ति को बस देखते ही रह जाते हैं। सामने दूर-दूर तक फैला विराट दुधिया हिमालय अपनी मौन तपस्या करता जान पड़ता है,आप बस इस दृश्य को पूरा जी लेना चाहते है। एक सलाह है ,जहाँ तक सम्भव

मेरे शहर की पहचान बनाते सिनेमाघर...

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एक कविता कभी पढ़ी थी, शायद फर्स्ट इयर में,उसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थी- "अपने शहर में हम अपने घर में रहते हैं, दूसरेशहर में हमारा घर हमारे भीतर ......." सम्भव हैं,किआप सब में से कई इस बात ,इस लाइन से सहमत होंगे। घर से बाहर जाते हम सभी अपने साथ उस घर, गाँव , कस्बे , मुहल्ले, और उस शहर से जुड़े कुछ पक्के पहचानों को हम अपने साथ दूसरे शहर में भी लेकर चले आते हैं। हम शायद इस बात पर ध्यान ना देते हों पर यह सही हैं कि कुछ समय बीतने के बाद जब हम अपने शहर वापस लौटते हैं,तब हमारी आँखें अपने लगातार बदल रहे शहर के बीच अपनी उन्ही पुरानी पहचानों को ढूंढती हैं। कुछ चीज़ें बदलती हुई अच्छी लगती हैं कुछ एक टीस सी पैदा करती हैं। सिनेमा हॉल मेरे शहर की भीड़ और आबादी के बीच एक सांस्कृतिक अड्डेबाजी का मंच देते थे।मेरे छोटे से शहर गोपालगंज में कुल-जमा पाँच छविगृह हैं। इनके नाम हैं( वरीयता क्रमानुसार -जनता सिनेमा,श्याम चित्र मन्दिर,कृष्णा टाकिज, चंद्रा सिनेमा,सरस्वती चित्र मन्दिर,और राजू मिनी टाकिज। इन सभी सिनेमा घरों में आर्किटेक्चर के लिहाज़ से कोई ख़ास फर्क तो नहीं हैं पर हाँ...इनके फ़िल्म प्रद

भगवान् बचाए इन चाटों से....(कैंटीन ओनर्स वाले )

अब विभागों में मिड-टर्म परीक्षाओं की घंटियाँ लगभग बज चुकी हैं या फ़िर बजने ही वाली है.ऐसे में अब तक कैंटीन ओनर्स करने वाले (वैसे छात्र जो घर से अपना बोरा-बस्ता लेकर आते तो हैं कॉलेज पर सारा दिन कॉलेज कैंटीन में गप्पे और पता नहीं क्या-क्या हांकते रहते है)छात्रों ने अपनी परीक्षा पास करने की मुहीम तेज़ कर दी है.ऐसे होनहार बिरवानों के कारण कुछ तो छुटभैये सीनियर बड़े खुश होते हैं ,तो कुछ की वाकई शामत आ जाती है.छुटभैये किस्म के सीनियर इन होनहारों के लिए तत्काल कोटा के समान होते हैं या फ़िर रिजर्वेशन अगेंस्ट कैंसिलेशन के जैसे.दरअसल ,इन कैंटीन ओनर्स वाले जूनियर मित्रों/साथियों के इर्द-गिर्द काफ़ी ऐसी बालिकाएं भी साथ देती रहती हैं जो इनके द्बारा बताये गए (माने फेंके गए गप्पों)बातों की खासी मुरीद/फैन होती हैं और इसी मौके पर इस अभियान में जोर-शोर से उनका साथ देती है ,जिस मिशन का नाम होता है-सीनियर पकडो-नोट्स टेपों.छुटभैये सीनियर को तो बस इसी मौके का इंतज़ार होता है और यही सही मौका भी क्योंकि जिस डिपार्टमेन्ट ने उन्हें नाकारा करार देकर इस वर्ष एडमिशन नहीं दिया होता है,तो ये अपने जूनियर्स को बताते

हर लिहाज़ से बेहतरीन प्रस्तुति है -"विक्रमोवर्शियम".

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यूँ तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हर वर्ष अपनी प्रस्तुति याँ देता है मगर रंग-प्रेमियों को इसके सेकंड इयर के छात्रों की किसी क्लासिक नाट्य प्रस्तुति काइंतज़ार रहता है ,जो यह हर वर्ष देते हैं। वैसे द्वितीय वर्ष के छात्रों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है यह संस्कृत के नाटक। बस ऐसा जान लीजिये कि इनके सही मायने में नाट्य विद्यालय के अकादमिक दर्जे से यह पहली प्रस्तुति होती है। और इन नाटकों को तैयार करने में इस विद्यालय के पास तथा इनसे जुड़े एक्सपर्ट्स की अच्छी-खासी मौजूदगी है। पर ,दो नाम ख़ास तौर से बहुत सम्मानित और इस क्लासिकीय विधा के नाटक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है वह है- श्री के.एस.राजेंद्रन जी (जो यही एसोशियेट प्रोफेसर हैं। )और दूसरे हैं-श्री प्रसन्ना जी(इनकी प्रमुख प्रस्तुतियां हैं-'उत्तर रामचरित','आचार्य तार्तुफ़')। २ साल पहले राजेंद्रन ने अपने निर्देशन में कालिदास के महान नाटक "मालविकाग्निमित्रम" को रंगजगत में उतारा था,तब यह नाटक उस साल खेले गए कुछ बेहतरीन नाटकों में से एक माना गया था। इस वर्ष फ़िर इन्ही के निर्देशन में कालिदास के ही एक और नाटक "विक्रमोवर्शियम&q

जरुरत है अब रंग बदलने की(भोजपुरी फिल्में)

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जहाँ तक भोजपुरी फिल्मों के धडाधड आने की बात है वही एक समस्या इनके स्तरसे जुड़ी हुई तेज़ी से उभर रही है। ये समस्या इनके मेकिंग से ही जुड़ी नहीं है बल्कि इसके प्रस्तुतीकरण और कथ्य से भी जुड़ी है। 'उफान पर है भोजपुरी सिनेमा"शीर्षक के तहत मैंने एक ब्लॉग-पोस्ट पिछले महीने लिखी थी,इस पोस्ट पर प्राप्त टिप्पणियों में से एक ब्लॉगर साथी ने अपनी प्रतिक्रिया लिखी किवह सब तो ठीक है पर भोजपुरी सिनेमा गंभीर नहीं हो रहा है। उनकी बात के जवाब में मैंने यह लिखा कि अभी तो तेज़ी आई है आने वाले समय में कुछ सार्थक सिनेमा भी यह इंडस्ट्री देगा,जिसे राष्ट्रीय स्तर पर नोटिस किया जायेगा। मगर मुझे पता है कि यह भी इतना आसान नहीं है जबकि इस इंडस्ट्री में पैसा इन्वेस्ट करने वाले राजनेता,अब तक रेलवे ,सड़क की ठेकेदारी करने वाले सफेदपोश लोग और विशुद्ध व्यापारी लोग ही हैं। हाल ही में अपने घर से लौटा हूँ । वहां भोजपुरी की दो फिल्में देखीपहली का नाम था-बलम परदेसिया और दूसरी नई फ़िल्म थी -हम बाहुबली। हम बाहुबली आज के भोजपुरी सुपरस्टार रवि किशन और दिनेश लाल यादव' निरहुआ'अभिनीत थी, वही'बलम परदेसिया ८० के द

बस आज होगी अब आखरी दहाड़.......

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लॉर्ड्स का वह सीन याद कीजिये जब एक दुबले-छरहरे बाबु मोशायने अपने पहले ही मैच में सैकडा ठोक दिया था। या फ़िर वह जब दुनिया को क्रिकेट के मैदान में अपनी जूती के नोंक पर रखने वाली टीम का लीडर इस बंगाल टाईगर के आगे बेचारा बना ग्राउंड में टॉस का इंतज़ार कर रहा था। अब तक लोगों से भद्रजनों के खेल के कायदे सुनने वाला और अपने दूसरे कान से बेहयाई से मुस्कुराते हुए निकाल देने वाली इस दादा टीम को दादा की दादागिरी के आगे बेबस होकर ख़ुद जेंटल मैन गेम का तरीका अपनाए जाने की बात करनी पड़ गई थी। या फ़िर वह दृश्य जब ब्रिटेन की छाती पर बैठ कर बालकोनी से अपनी टी- शर्ट उतार कर भद्रजन खेल की नई परिभाषा ही गढ़ देना । जी हाँ.... इस अनोखे और विश्व क्रिकेट में परम्परा से चली आ रही भारतीय इमेज( किसी भी छींटाकशी को सुन कर अनसुना कर देना इत्यादि) को इसी कप्तान ने बदल के रख दिया । तमाम तरह के विवादों के बीच जब भारतीय टीम मैच फिक्सिंग के दलदल में फंसती नज़र आ रही थी, तब इस नए जुझारू नौजवान ने इस टीम की बागडोर अपने हाथ में संभाली और उसके बाद जो कुछ कारनामा इसी टीम ने किया वह सबने देखा। जिन विदेशी पिचों पर इस टीम को सब टीम

त्यौहार सबका दिक्कत केवल हमारी..

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कल दीपावली कब त्यौहार धूमधाम से संपन्न हो गया। सभी ने खूब मज़े किए होंगे,पर हम हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट्स के मज़े थोड़े दूसरे किस्म के थे। आप सभी ने सुना होगा. कि त्यौहार माने भांति-भांति के बढ़िया, लजीज व्यंजन और मौज-मस्ती पर अपना तो ये आलम रहा है इस त्यौहार का कि, जब सारी दुनिया धमाचौकडी में मशगूल होती है, नाना प्रकार के लाजवाब पकवान पेल रही होती है ,हम हॉस्टल वाले छात्र अपना पेट दाब के बिस्तर में लेट के घर पर मनाये जा रहे त्यौहार की कल्पना कर रहे होते हैं। दरअसल, त्यौहार चाहे कोई भी हो हॉस्टल के छात्रों के लिए आफत के समान ही होता है। कारण ये है कि इस दिन हमारा मेस बंद रहता है और त्यौहार होने के कारण अगल-बगल के जो एकाध खाने-पीने की गुमटियां हैं वो भी मुए इस दिन बंद कर अपने घर चल देते हैं । अब आप कहेंगे कि आपकी अथॉरिटी कुछ तो व्यवस्था करती होगी पर जनाब ये अथॉरिटी व्यवस्था करती तो हैं पर वह सिर्फ़ दोपहर के स्पेशल लंच तक ही सीमित हो जाता हैं और फ़िर घावों पर नमक छिड़कने सरीखा शब्द हम सबके कानों में सुनाई देता हैं "आप सबको (त्यौहार का नाम )की ढेर सारी बधाइयाँ शुभकामनाएं, आप सब अ

जुए का एक दिन तो लीगालाईज है ही....

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कल पूरे देश भर में दीपावली धूम- धडाके से मनाई जायेगी। चारों तरफ़ धुएँ और धमाकों का कानफोडू माहौल होगा पर इन सबके बीच जो सबसे रोचक काम हो रहा होगा उधर घर के बच्चों तक का ध्यान शायद ही जाए। ये है दीपावली पर खेला जाने वाला "जुआ" जिसे सुख-समृद्धि दायक कह कर हमने अपने हिसाब से कानूनी और जायज़ कर लिया है। इसके खेले जाने के पीछे (जैसा सुनने में आता है)कहा जाता है कि इस दिन की जीत वर्ष भर धन-धान्य प्रदायक होती है(?)।यह खेल अपने खेले जाने के पीछे इतने वाजिब तर्क गढ़ चुका है कि आप लाख प्रवचन या नैतिक मूल्यों की दुहाई दें घर के बड़े-बुजुर्गों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।ऐसा नहीं है कि यह खेल महज़ किसी ख़ास वर्ग,शहर या गाँव में खेला जाता है बल्कि 'जुए' महाराज की महिमा चंहु- ओर बड़े भव्य स्तरपर फैली हुई है। पिछले सन्डे को 'नई दुनिया'अखबार का रविवारीय 'मैगजीन'यही कवर स्टोरी लिए हुए था। जिसमे बड़े ही बारीकी से देश के विभिन्न शहरों में से ढूंढ- ढूंढ कर इसकी महिमा बताई गई थी। साथ ही दिल्ली में हुए 'फैशन वीक' के अवकाश सत्रों में रैंप पर चलने वाली मोडल्स की तस

"छठ" तो बस "छठ" ही है..

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बात जब भी किसी त्यौहार की होती है तो स्वतः ही अपने सामाजिक परिवेश के कई सन्दर्भों से जुड़ जाता है। बिहार के लोगों के लिए इस पर्व का महत्त्व कितना है इसकी सही तस्वीर देखनी है तो रेलवे रिजर्वेशन की तह में जाइए। यहाँ बिहार जाने वाली सभी ट्रेनों में कोई एक भी जगह किसी भी क्लास में खाली नहीं है। अभी-अभी तत्काल कोटे को चेक करने बैठा था। सच कहूँ तो ,मन में एक प्रकार की हेकडी भी थी कि,नोर्मल टिकट न मिले अपनी बला से,हम तो तत्काल भी ले सकते हैं। अब क्या बताऊँ ,कहना बेकार ही है कि साड़ी हेकडी हवा हो गई है,उसमें भी वेटिंग लिस्ट दिखा रहा है। अब सोच रहा हूँ कि आख़िर सरकार को कितनी ट्रेनें चलानी होगी बिहार के लिए या कितनी भी चल जाए कम ही है?इन सब झमेलों के बीच मेरी परेशानी अभी बची हुई है कि आख़िर अब कौन-सी जुगत भिडाई जाए जिससे कम-से-कम छठ को घर वालों के साथ मना सकूँ। सूर्योपासना का यह पर्व बिहार की सांस्कृतिक पहचान है । घर से बाहर रहने वाले तकरीबन सभी बिहारी भाई चाहे वह अधिकारी हो,छात्र हो,शिक्षाविद हो,नेता हो,या फ़िर मजदूर सभी कम-से-कम यह पर्व घर के लोगों के साथ मनाना चाहते हैं और इसका पूरे वर्ष बड़ी

सिनेमा,सिनेमा केवल सिनेमा,खाली सिनेमा.....

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जेहन में आज भी पहली देखी गई सिनेमा के तौर पर भोजपुरी की "गंगा किनारे मोरा गाँव"ही दर्ज है। बाद में शायद ऋषि कपूर वाली "प्रेम रोग" थी, जिसका गाना हम सभी बच्चे गाया करते थे 'मैं हूँ प्रेम रोगी '। पता नहीं क्यों यही गाना हमारी जुबान पर चढा था।बाद में हमलोग थोड़े और बड़े हुए और सिनेमा ke लिए दीवानगी और बढ़ी। पहले सिनेमा- घरों के विशाल परदों को देख कर बाल-मन यही सोचता था कि हो- न- हो इसी बड़े परदे के पीछे सारा खेल चलता है। हमारी इस बात को बड़े मामा ने जाना तो बहुत हँसे थे,फ़िर एक दिन सीवान(मेरे मामा का घर इसी शहर में है)के प्रसिद्ध 'दरबार' सिनेमा हाल में लेकर गए जहाँ उनका दोस्त मैनेजर हुआ करता था।और तब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था जब हमने देखा कि ये बड़ा परदा जो सारा खेला दिखाताहै वह तो महज़ ८-१० धोती को सिल कर बना है, और असली खेल तो मुस्तफा मियाँ के हाथों होता है जो उस मशीन (प्रोजेक्टर)को चलाते थे। खैर, सिनेमा से जुडाव दिनों- दिन बढ़ता ही जा रहा था। आज भी उसी गंभीरता के साथ जुडाव बरकरार है पर सही-सही कह नहीं सकता कि उन दिनों जैसी ईमानदारी अब बची है या नह

उफान पर है भोजपुरी सिनेमा...

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कोई १०-१२ साल पहले की ही बात है जब सिनेमा पर बात करते हुए कोई भूले से भी भोजपुरी सिनेमा के ऊपर बात करता था,पर यह सीन अब बदल गया है.हिन्दी हलकों में सिनेमा से सम्बंधित कोई भी बात भोजपुरी सिनेमा के चर्चा के बिना शायद ही पूरी हो पाए.ऐसा नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ सालों की पैदाईश है.सिनेमा पर थोडी-सी भी जानकारी रखने वाला इस बात को नहीं नकार सकता कि भोजपुरी की जड़े हिन्दी सिनेमा में बड़े गहरे तक रही हैं.बात चाहे ५० के दशक में आई 'नदिया के पार'की हो या फ़िर दिलीप कुमार की ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्मों की इन सभी में भोजपुरिया माटीअपने पूरे रंगत में मौजूद है.इतना ही नहीं ७० के दशक में जिन फिल्मों में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने धरतीपुत्र टाइप इमेज में आते हैं उन सबका परिवेश ,ज़बान और ट्रीटमेंट तक भोजपुरिया रंग-ढंग का है.और इतना ही नहीं यकीन जानिए ये अमिताभ की हिट फिल्मों की श्रेणी में आती हैं। वैसे भोजपुरिया फिल्मों का उफान बस यूँ ही नहीं आ गया है बल्कि इसके पीछे इस बड़े अंचल का दबाव और इस अंचल की सांस्कृतिक जरूरतों का ज्यादा असर है.९० का दशक भोजपुरी गीत-संगीत का दौर ल

राजघाट के बगल में लगता है"चोर-बाज़ार"..

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मेरे एक अभिन्न मित्र हैं-अजय उर्फ़ लारा। लारा यूनिवर्सिटी के लिहाज़ से भी सीनियर छात्र हैं। उनकी संगती में दिल्ली और इसके कई रंग हमने देखे-जाने हैं। इन्ही यादों में बसा है-दिल्ली का चोर बाज़ार।इस बाज़ार की प्रशिद्धि आप सबको भी पता होगी । देशी खरीददार ही नहीं बल्कि दिल्ली भ्रमण पर आए विदेशी पर्यटकों की भी मनपसंद जगह रही है-चोर बाज़ार।इसके बारे में किसी से भी पूछने पर कोई ख़राब सा वाकया अभी तक मेरे सुनने में नहीं आया और कमोबेश सभी बड़े मज़े से रस ले-लेकर चोर-बाज़ार के किस्से सुनाया करते हैं कि फलां चीज़ ऐसे मिलती है अमुक सामान बढ़िया-सा मिल जाता है और अमुक सामान ऐसा होता है उनके (बिक्री करने वालों के)पास खरीददारी के कुछ तरीके आपको आने चाहिए इत्यादि-इत्यादि। इन दिनों में इस बाज़ार की जगहें कई बार बदली हैं। पहले यह लाल-किले के पीछे लगा करता था,बाद में जामा-मस्जिद वाले रास्ते पर लगने लगा । दिल्ली ब्लास्ट के बाद इस "चोर-बाज़ार"को ऐसी जगह मिल गई है जिसको देखकर ख़ुद आश्चर्य होता है कि सरकार ने इसको "राजघाट"के पास लगाने की परमिशन कैसे दे दी है। यकीन जानिए अब जब कभी भी आप चोर-बाज़ार

धर्म बदलो फांसी चढो.......

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आज के अखबार की एक ख़बर पर आज मेरी नज़र ठहर गई। ख़बर का मज़मून कुछ यूँ था-'इरान की संसद ने इस आशय का प्रस्ताव सर्वसम्मति और भारी बहुमत से पास कर दिया कि इस देश में धर्म-परिवर्तन करने वालों को मौत की सज़ा दे दी जायेगी'-इरान जैसे और ऐसे ही अन्य कट्टरपंथी देशों में ऐसे निर्णय कोई बड़ा आश्चर्य पैदा नहीं करते कारण हम सबको पता है। पर यही बात किसी धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले राष्ट्र में हो तो बात वाकई चिंताजनक हो जाती है। इंडिया जैसे सेकुलर कहे जाने वाले राष्ट्र में अब खुले-आम औरतें, बच्चे मारे जा रहे हैं,ननों के साथ बलात्कार जैसे घृणित काम किए जा रहे हैं और प्रार्थना-घरों को जलाया जा रहा है सरकार चुपचाप तमाशा देखती रहती हैं। अब अपने देश का यह चेहरा भी सामने आ रहा है कि किसी भी स्टेट में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं रह सकते या नहीं हैं। चाहे वह उड़िसा जी जगह के ईसाई हो या फ़िर कहीं हिंदू बहुल प्रान्त के मुस्लिम या फ़िर कश्मीरी पंडित। एक और कमाल का सीन आज के अखबारों में है वो यह कि देश भर के ऐसे ही घटनाक्रमों को हुए एक तमाशे का आयोजन'एकता परिषद्'के नाम से नई दिल्ली में हुआ जिसमे उड़िसा के म

मेरा गांव बदल गया है.शायद पूरा भोजपुर ही....

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वैसे शैक्षणिक कारणों से घर से बाहर रहते तकरीबन १०-११ साल बीत चले हैं पर गांव-घर की खुशबू अभी भी वैसी ही सांसो में है.इस स्वीकार के पीछे हो सकता है मेरा गंवई मन हो. मैंने जबसे होश संभाला अपने आसपास के माहौल में एक जीवन्तता दिखी,मेरा गांव काफ़ी बड़ा है और जातिगत आधार पर टोले बँटे हुए हैं.बावजूद इसके यहाँ का परिवेश ऐसा था, जहाँ जात-पांत के कोई बड़े मायने नही थे.ये कोई सदियों पहले की बाद नही है बल्कि कुल जमा १०-१२ साल पहले की ही बात है. गांव में सबसे ज्यादा जनसँख्या राजपूतों और हरिजनों की है,बाद में मुसलमान और अन्य पिछडी जातियाँ आती हैं.कुछ समय पहले ही गांव की पंचायत सीट सुरक्षित घोषित हुई है और अब यहाँ के सरपंच/मुखिया दोनों ही दलित-वर्ग से आते हैं.साथ ही अपने गांव की एक और बात आपको बता दूँ कि मेरे गांव में आदर्श गांव की तमाम खूबियाँ मौजूद है.मसलन हर दूसरे-तीसरे घर में वो तमाम तकनीकी और जीवन को सुगम बनाने वाली सुविधाएं मौजूद हैं.जब तक मैं था या फ़िर मेरे साथ के और लड़के गांव में थे तब तक तो स्थिति बड़ी ही सुखद थी.मेहँदी हसन,परवेज़,जावेद,नौशाद,वारिश,कलीम सभी लड़के होली में रंगे नज़र आते थे और दी

गीत ऐसे की बस जी भर आए......

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कभी-कभी कुछ गीत हमारे अंतर्मन को इतने गहरे छु जाते हैं कि उन्हें सुनते ही मन करता है कि बस समय रुक जाए और आँखें बंद करके खिड़की से ढलते हुए सूरज को की तपिश ली जाए.या फ़िर यूँ कि कमरे के अकेलेपन से निकल कर थोड़ा रिज़ की ओर चलें और थोड़ा नोश्ताल्जिक हो जाए वैसे इन गानों को सुनते सुनते हम इस लोक के आदमी नहीं रहते महाकवि जायसी के शब्दों में "बैकुंठी हो जाते हैं".गुलज़ार इस मामले में थोडी अधिक ऊंचाई पर हैं उनकी फिल्मों के गाने इतने ख़ास होते हैं कि आप एक बार में उसकी गहरे को महसूस नहीं कर सकते, ये गाने बहुआयामी अर्थवत्ता लिए होते हैं,आप उन्ही की एक फ़िल्म "मौसम"के गाने-"दिल ढूंढता है फ़िर वही,फुरसत के रात-दिन /बैठे रहे तसव्वुरे..."को जितनी बार सुनते हैं उतनी बार अज्ञात भावो और यादों में खो जाते है.ये महज़ सिर्फ़ इस गाने कि बात नहीं है या फ़िर गुलज़ार की बात ही खाली नहीं है हम ऐसे ही कुछ गानों की बात कर रहे हैं.-फ़िल्म-'रुदाली' के 'दिल हूम हूम करे घबराए..'को याद कीजिये..नायिका के चेहरे और क्रियाव्यापार के साथ जैसे ही लताजी की आवाज़ थोडी ऊँची पिच पर आकर &

मिनाक्षी,मोबाइल और पुलिस-रिपोर्ट

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यूनिवर्सिटी में दिन भर इधर-उधर की (इसमे पढ़ाई भी शामिल है)हांक के,बिना बात के दौड़-भाग के जब हालत पस्त हो जाती है तब सभी लोगों का ध्यान चाय के स्टालों की ओर हो आता है. ये तकरीबन रोज़ की रूटीन में शामिल है और अब ये एक हद तक व्यसन की स्टेज में पहुँच गया है.इसी आदत या लत आप जो भी मान लें ,के फेर में हम तीन जने,मैं,मिहिर और मिनाक्षी पास के ही निरुलाज पहुंचे.बहाना कॉफी पीने का था.कॉफी के साथ-साथ तमाम तरह की जरुरी-गैरजरूरी बतरस में हम तीनों ऐसे खोये कि,यह ध्यान ही ना रहा कि मिनाक्षी ने निरुलाज में अपना मोबाइल छोड़ दिया ,चूँकि हमे वहां से निकले बस ५-७ मिनट ही हुए थे ,हम तेज़ी से वहां गए अपनी जगह को देखा और मोबाइल को वहां ना पाकर काउंटर पर मैनेजर से बात की मगर सब बेकार मोबाइल नही मिलना था नही मिला.अब बारी परेशान होने की थी.दोस्तों ने सलाह दी कि भइये,सबसे पहले नंबर ब्लाक कराओ और फ़िर तुंरत पुलिस कम्प्लेन करो वरना किसी ग़लत हांथों में पड़ गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे.थाने गए हम एफ.आई.आर.दर्ज कराने वो तो लाख कोशिशों के बाद नही हुआ बस उनके कागजी कार्यवाही की रेंज बस इतनी थी कि अपना मोबाइल का मॉडल न

श्याम चित्र मन्दिर...ढलते समय में

पिछले पोस्ट का शेष.... श्याम चित्र मन्दिर के अपने कई अनुभवों को मैंने आप तक पिछली पोस्ट में पहुँचाया था.इस बार इस सिनेमा हॉल की कुछ और अनूठी बातें जानिए.... पारसी थिएटर याद है....?- बस,ऐसा ही कुछ था श्याम चित्र मन्दिर के प्रचार का ढंग .मसलन जैसे ही कोई नई फ़िल्म आती थी तो उसका बड़े जोर-शोर से जुलूस निकाला जाता था.२-३ तीन पहिये वाले रिक्शे पूरे दिन के लिए किराए पर लाये जाते थे फ़िर उनपर तीन तरफ़ से फ़िल्म के रंग-बिरंगे पोस्टर लकड़ी के फ्रेमों में बाँधकर लटका दिए जाते थे और एक भाईसाब उस रिक्शे में चमकीला कुर्ता पहनकर माइक हाथो में लेकर बैठ जाते थे और रिक्शे के पीछे-पीछे ७-८ सदस्यीय बैंड-बाजे वालो का गैंग चलता था जो मशहूर धुनें बजा-बजाकर लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा करते थे.वैसे ये परम्परा अब भी बरक़रार है मगर बैंड-बाजो की जगह रिकॉर्डर ने ले ली है.पीछे-पीछे बैंडबाजे और रिक्शे में सवार हमारे स्टार कैम्पैनर माइक पर गला फाड़-फाड़कर सिनेमा का विज्ञापन करते रहते.इसकी एक झलक आपको भी दिखता हूँ,- "फ़र्ज़ कीजिये फ़िल्म लगी है -'मर्डर'.तो हमारे प्रचारक महोदय

मोनू दा और गाँधी जयंती ....

मोनू दा नए पियाक तो नहीं हैं ,हाँ मगर पिछले दो सालों में ये हिसाब-किताब कुछ कम जरुर हो गया था. आजकल जबकि उनके आसपास के सभी लोगों का समय ठीकठाक चल रहा है तो हर दूसरे दिन कोई-न-कोई कुछ-न-कुछ लेकर आ जाता है जिसे देख उनसे मना नहीं किया जाता.पिछले दिनों कुल्लू जॉब छोड़ कर आया और इस खुशी में(?)उसने मोनू दा को पहले 'रेड वाइन' फ़िर 'स्कोच'पिला दी.बस क्या था रोज़ 'ओल्ड मोंक' रम पीने वाले मोनू दा एकाएक ही इस ब्रह्म-सत्य को पा गए की ये क्या आज तक मैंने ,आख़िर मैंने पहले इसे क्यों नहीं चखा था?बस जबसे मोनू दा के हिय में यह मुई अंगूर की बेटी 'रेड वाइन'और 'स्कोच' चढी है,मेरी जान सांसत में आ गई है.उनका कोई भी असाईनमेंट इसके बिना पूरा नहीं होता.अब लगता है कि एम्.एस.सी.(फिजिक्स)की तरह ही कहीं उनका 'लाइब्रेरी साइंस'भी आधे में ना छूट जाए. आज सुबह अखबार देखते ही मैंने कहा कि 'मोनू दा जोधपुर में सैकडों लोग मारे गए'तो उन्होंने कहा -'हाँ यार ,सब समय का फेर है देवी नाराज़ चल रही हैं'-मैंने सोचा मोनू दा देश-दुनिया की भी थोडी बहुत ख़बर रखते हैं और एक

हंसने मुस्कुराने के लिए ....

ज़िन्दगी से जब भी थोडी ऊब हो तब कुछेक कवियों की रचनायें बड़ी सहजता से हमारे होंठो पर एक मुस्कराहट छोड़ जाती हैं । पेश है कुछ ऐसे ही कवियों की रचनायें ,उम्मीद करता हूँ उन्हें(कवियों को ) बुरा नहीं लगेगा - (1) "जनता ने नेता से हाथ जोड़कर पुछा - माई-बाप ,क्या आप भी यकीन करते हैं समाजवाद में? नेता ने मुर्गे की टांग चबाते हुए कहा- पहले हम समाज बाद में। " (२) "एक अति आधुनिका कम -से-कम वस्त्र पहनने की करती है अपील और पक्ष में देती है ये दलील कि - 'नारी की इज्ज़त बचाने का यही है अस्त्र , तन पर धारो कम - से-कम वस्त्र। फ़िर पास नहीं फटकेगा कोई पापी दुशासन जैसा जब चीर ही ना होगा तन पर तब , चीरहरण का डर कैसा'।" (3) देख सुंदरी षोडशी मन बगिये खिल जाए मेंढक उछलें प्यार

ये हिंदू प्रेत्तात्मा है...जीसस से नही डरेगी.

पिछले दिनों यूनिवर्सिटी के पास ही फिल्मिस्तान सिनेमा हॉल में हाल ही में आई फ़िल्म"१९२०" देखने गया था। इस फ़िल्म को देखने के पीछे दो मोटिव थे,पहला तो ये कि,मुझे होरर(भुतिया)फिल्में पसंद हैं ,दूसरा ये कि ,इस फ़िल्म में पंडित जसराज ,परवीन सुल्ताना ,शुभा मुदगल जैसे आर्टिस्टों ने गीत गाया था। खैर, गीतों के साथ -साथ जिस तरह के माहौल को मैंने वहां देखा तो लगा कि सही में अपने यहाँ वाले दर्शक जैसे ही होंगे (श्याम चित्र मन्दिर टाइप)। अब बातें फ़िल्म की -दरअसल ये कहानी एक ऐसे जोड़े की है जो एक पुरानी हवेली में इस इरादे से आता है कि उसे तोड़ कर वहाँ एक होटल बनाया जा सके। हवेली अभिसप्त है ,भुतिया है। यहाँ आए पहले दो लोग संदिग्ध स्थितियों में मारे जा चुके हैं। ये जोड़ा (नायक-नायिका)इस बात से बेखबर है। वैसे एक ध्यान देने वाली बात ये है कि हीरो ,जो की हिंदू है एक अनाथ लड़की(हिरोइन) से अपने घर परिवार धार्मिक संस्कारों से टकराकर शादी करता है। लड़की चूँकि ईसाई है और उसकी परवरिश भी चर्च में हुई है तो उसकी निष्ठा अभी इश्वर में है।पर कहानी ये नहीं है । दरअसल हिरोइन उस प्रेत्तात्मा के जड़ में आ जाती

श्याम चित्र मन्दिर (सिनेमा रोड)

घर से तक़रीबन १०-१२ साल हो गए हैं बाहर रहते मगर आज भी जब कभी वहां जाना होता है तो शहर के सिनेमा रोड पर पहुँचते ही दिल की धड़कने अचानक ही बढ़ जाती हैं।ये वह सड़क है जहाँ मैं और मेरे साथ के और कई लड़के बड़े हुए ,समय -असमय ये बाद की बात है। श्याम चित्र मन्दिर हमेशा से ही हम सभी के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रहा था,चाहे कोई भी फ़िल्म लगी हो श्याम चित्र मन्दिर जिंदाबाद। बगल में डी.ऐ.वी.हाई स्कूल है जहाँ से मैंने दसवीं पास की थी। स्कूल में हमेशा ही विज्ञान और मैथ पहली पाली में पढाये जाते थे,मगर मैं ठहरा मूढ़ उस वक्त भी खाम-ख्याली में डूबा रहता था। कभी पास ही के रेलवे स्टेशन पर जाकर स्टीम इंजिन के गाड़ी पर लोगों के जत्थे को चढ़ते उतरते देखता ,तो कभी स्टेशन के पटरी के उस पार के जलेबी के पेडों से जलेबियाँ तोड़ना यही लगभग पहले हाफ का काम था । इस बीच महेश ने मुझे श्याम चित्र मन्दिर का रास्ता सूझा दिया ,फ़िल्म थी -अग्निपथ। भाईसाब तब अमिताभ का नशा जितना मत्थे पे सवार था उतना तो शायद अब किसी और के लिए कभी नहीं होगा। अमिताभ जी की इस फ़िल्म ने पूरी दिनचर्या ही बदल दी। अब शुरू हो गया श्याम सिनेमा के बाबु क्ल

.......इस कारण ये नाचे गदहा.

एक बार की बात है,बादशाह अकबर और बीरबल शाम को टहलने निकले । टहलते-टहलते वे दोनों बाज़ार में पहुंचे;बाज़ार का दृश्य अजीबोगरीब था। एक गदहा बीच बाज़ार में उधम मचाये हुए था,दुलत्तियाँ मार रहा था ,ढेंचू-ढेंचू चिल्ला रहा था सभी व्यापारियों ,ग्राहकों,आने-जाने वालों की जान आफत में थी कि पता नहीं गधा कब,किसे दुलत्ती मार दे। ये दृश्य देखकर बादशाह ने बीरबल से पुछा -'बीरबल,किस कारण ये नाचे गदहा ?'-बीरबल ने पहले गदहे को फ़िर उसकी कारस्तानी को बड़े गौर से देखा और मुस्कुराकर बोले-'जहाँपनाह ,आगे नाथ ना पीछे पगहा (रस्सी)इस कारण ये नाचे गदहा । '-बादशाह ने स्थिति कीअसलियत जान ली और तुंरत ही सिपाहियों को हुक्म दिया किगदहे के गले में पगहा डालकर काबू करो और अभी कांजी हाउस दे आओ। आदेश पर तुंरत ही अमल हुआ और गदहा थोडी ही देर में सीखचों के पीछे चुपचाप खड़ा पत्ते चबा रहा था । ये थी तब की बात जब समाज सामंती सेट -अप में था। मगर अबकी स्थिति कहीं बेहतर है(ऐसा माना जाता है....) क्योंकि अब डेमोक्रेसी है ,यानी आम जनता का तंत्र ..प्रजातंत्र। तब सिर्फ़ सत्ता-प्रतिष्ठान के लोगों को ही सब कुछ करने का हक था मगर

एक थे भिखारी ठाकुर......शेषांश

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गतांक से आगे.... ........भिखारी ठाकुर का कमाल ही था कि एक ही व्यक्ति एक से अधिक रूपों में अपने को बदलता जाता ,भिन्न -भिन्न पात्रों के विभिन्न आचरण एवं उसके हाव-भाव को अपने में सहेजता रहता,उसी के अनुरूप अपने को ढालता जाता और दर्शकों को अपनी ही धारा में बहाए लिए चलता । उनकी अभिव्यक्ति का स्वर इतना सटीक,सरल,सहज और स्वाभाविक होता कि दर्शक भावविभोर हो जाते। प्रसाधन एवं रूप परिवर्तन का कार्य दर्शकों की थोडी-सी आँख बचा के कर लिया जाता। भिखारी ठाकुर ने अपने ज़माने में 'बिदेसिया'को बिहार,झारखण्ड,बंगाल और पूर्वी उत्तरप्रदेश एवम असाम के लोगों के जेहन में उतार दिया था। असाम में जब 'बिदेसिया' का मंचन हुआ था ,तब वहाँ के सिनेमा घरों में ताला लगने की नौबत आ गई थी। 'बिदेसिया'का मूल टोन यही है कि किस तरह से एक भोजपुरिया युवक कमाने पूरब की ओर जाता है और किसी और औरत के फेर में फंस जाता है। इस नाटक या तमाशे की ख़ास बात ये है कि ये भी परंपरागत नाटकों की तरह सुखांत है। इस नाटक के बारे में जी.बी.पन्त संस्थान के 'बिदेसिया प्रोजेक्ट'का रिमार्क है- "bidesia is a phrase design