Posts

Showing posts from 2010

'सिनेमची'-विमर्श वाया सिनेमा

Image
२३ दिसंबर २०१०,एक ख़ास तारीख,एक ख़ास दिन पर, इस खास दिन पर बातचीत से पहले २० तारीख जेहन में है जब दिल्ली विश्वविद्यालय के दोस्तों का एक समूह जिनमें अमितेश,धर्मेन्द्र प्रताप सिंह,मिहिर पंड्या,अभय रंजन सर,पल्लव सर (हिन्दू कालेज के अस्सिटेंट प्रोफेसर्स) और इस नाचीज़ ने ,जेएनयु से उमाशंकर ने मिलकर एक ऐसा मंच खडा करने की सोची जिसके मार्फत हम दैनंदिन जीवन में अपने आसपास के गतिविधियों के पर नज़र रखते हुए हफ्ते,महीने में एक या दो बार किसी जगह (वह जगह विश्वविद्यालय कैम्पस भी हो सकता है अथवा या किसी कालेज का सेमिनार रूम अथवा ऑडिटोरियम पर ऐसी फिल्मों और डाक्युमेंटरी फिल्मों को दिखाएं जो आम दर्शकों तक आसानी से नहीं पहुँचती.और फिर इसके साथ एक बेबाक बातचीत का, जो फिल्म के कांटेक्स्ट या उस फिल्म से उपजे सवालों को केंद्र में रखकर हो ,मंच दें.जहां अकादमिक और शैक्षणिक दबाव से परे छात्र अपनी बात करें की उस ख़ास फिल्म ने उनको क्या दिया,अथवा वह क्या जान पाए ,उन्होंने क्या लिया?इसकी चर्चा वह इस 'सिनेमची'के मंच से करें.वैसे यह सिनेमची नाम भी 'अमितेश'के ही दिमाग की खुराफात है.अमितेश हिंदी विभाग

भोजपुरी के सांस्कृतिक दूत-भिखारी ठाकुर

Image
भिखारी ठाकुर भोजपुरिया साहित्य और समाज में बड़े आदर के साथ लिया जाता है.भोजपुरी लोकमंच पर यह भोजपुरी के शेक्सपियर और भारतेंदु के तौर पर याद किये जाते रहे हैं पर इतना कहना इनकी पूरी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं होगा.हाँ भारतेंदु की संज्ञा कुछ हद तक उचित जान पड़ती है.लेकिन शेक्सपियर कहे जाने का तर्क संभवतः उनके पद्यात्मक नाटक रहे हो.पर भिखारी ठाकुर में वह एक ख़ास किस्म की एलिट मानसिकता और भाषा का जमाव जो शेक्सपियर के नाटकों में देखने को मिलता है,नहीं है.अतः भारतेंदु के साथ तुलना की बात थोड़ी साम्य रखती है.दोनों ने ही जनता के दिलों पर राज किया.दोनों ही कागज़ के साथ मंच पर भी समान रूप से सक्रिय रहे.भिखारी ठाकुर के नाटकों का एक मजबूत पक्ष उनके स्त्री पात्र हैं.'बिदेसिया'की बिरहिनी नायिका की टेर उन लाखों भोजपुरियों की व्यथा-कथा है जो वर्षों से इस प्रांत की एक भयावह सच्चाई रही है.बिदेसिया पूर्वांचल के लोगों के उल्लास का नहीं बल्कि उन श्रमिकों की पीछे रह गयी ब्याहताओं की आंसुओं की लेखनी है,जो कमाने पूरब के तरफ कलकत्ता और असम गए.इन गिरमिटियों (अग्रीमेंट से बने भोजपुरिया अपभ्रंश अग्रिमेंटि

भोजपुरी फिल्मों का 'अ-भोजपुरिया'सौंदर्यशास्त्र

Image
आज भोजपुरी सिनेमा जगत अपने शवाब पर है.किलो के भाव फिल्में आ रही हैं,हज़ारों लोगों को काम मिल रहा है.कईयों को इस बात का मुगालता हो सकता है कि यह दौर भोजपुरी का स्वर्णिम दौर है.इसमें कोई दो राय नहीं कि यही वह समय है जब भोजपुरी ने बड़े कैनवास पर अपनी छाप उकेरी है,पर इस कैनवास पर आने की भेडचाल में वह अपनी स्वाभाविक चाल और राह दोनों से भटक गया अथवा भूल गया है.कहा जाता है कि रोम रातों-रात नहीं बसा था.वैसे भी किसी समाज,शहर,उद्योग को विकसित होने में एक लंबा समय लगता है.बेतरतीब और बिना प्लानिंग के बने,बसे शहर,समाज,उद्योग जल्द ही नारकीय स्थिति में आ जाने को अभिशप्त हो जाते हैं.आज भोजपुरिया समाज के लिए यह बेहतर बात है कि भोजपुरी फिल्मों का लगभग सूखा संसार लहलहाने लगा है,पर अब यह संसार अपनी स्वाभाविक गति को भूल चूका है,यह अब रपटीली राह पर चल रहा है.एक समय था कि यह फिल्में नोटिस में नहीं थीं पर अब जबकि इनको पहचान मिल चुकी है और इसका दर्शक-वर्ग और समुदाय बेहतर ढंग से निर्मित हो चला है फिर ऐसे में जरुरत अब इनके रंग बदलने की है वरना इनकी भी नियति उन अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों की तरह हो जाएगी,जिनकी

अमेरिकन लाठी का जोर(सीनाजोरी)और भारतीय आनंद जान की बदकिस्मती...

Image
मशहूर फैशन डिजाईनर आनंद जान के केस के लूपहोल्स के बारे में मैंने अपने कुछ दिन पहले के पोस्ट में जिक्र किया था,कि किस तरह से अमेरिकन न्याय-व्यवस्था आनंद के मामले में दोहरा चरित्र अपना रही है और बिना उसके पक्ष को सुने-समझे सज़ा दे चुकी है.यहाँ तक कि जिस आनंद ने लाई डिटेक्टर तक पास कर लिया फिर इस स्थिति में भी उसे सज़ा किस आधार पर दे दी गयी,इतना ही नहीं जब juror missconduct होने की भी बात सामने थी ,तब जबकि रेप किट निगेटिव निकला,उस स्थिति में भारतीय फैशन डिजाईनर आनंद को जेल में अमेरिकन सिस्टम ने डालकर अपना छुपा हुआ नस्ली चेहरा उजागर किया.सबसे अफसोसजनक स्थिति हमारे भारतीय सरकार की है जिसने पता नहीं किस पिनक में इस केस को एक नज़र देखने की भी जेहमत नहीं उठाई.क्या उसके लिए हमारे होने (भारतीय नागरिक)के कोई मायने नहीं हैं या फिर हम केवल वोट बैंक या जातिवादी,धार्मिक चेहरे भर है,जिनका जब चाहे इन्ही कुछेक पैरामीटर्स पर हमेशा यूज कर लें? आज के दैनिक भास्कर की खबर है- "अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि-इरान उन तीन अमेरिकियों को फ़ौरन रिहा करदे,जिन्हें नौ माह पहले उसने हिरासत में लि

आसमान में हिस्सेदारी की कवायद (मरते आदिवासी)*(मनोज कुमार 'तपस')

Image
विकास की अंधी दौड़ के कारण हज़ारों आदिवासी बदहाली के शिकार होते जा रहे हैं.हालात यह है कि आदिवासियों के पास मूलभूत सुविधायें तक नहीं हैं और इन्हें सरेआम मारा जा रहा है.हर बार माओवादियों का मुद्दा उठते ही आदिवासियों का सवाल सामने आता है और सता के गड़रिये माओवादियों को हांकने के नाम पर विकल्पहीन आदिवासियों के खिलाफ क्रूरता की सारी हदें लांघने लगते हैं.इसका परिणाम यह होता है कि माओवादी और आदिवासी ,जो इन गड़रियों के इन नीतियों के शिकार हैं,एक होने लगते हैं और सत्ता दोनों को एक ही समझ बैठती है.दरअसल इस तथ्य को समझने की जरुरत है कि ऐसा क्यों होता है अथवा होता ही रहा है?इसे समझने के लिए हम उत्तर प्रदेश के सोनभद्र इलाके को लेते हैं.सोनभद्र उत्तर प्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी अंतिम जिला है जो विकास के नाम पर पिछले ६० सालों में बार-बार छला और ठगा गया.इस जिले में वैसे तो सब कुछ है,जल,जंगल,ज़मीन.चार राज्यों को छूता हुआ यह जिला वैसे तो औद्योगिक रूप से विकासशील कहा जा सकता है,लेकिन इस औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ के कारण इस इलाके में रहने वाले आदिवासी रोजाना जिस तरह से मर रहे हैं,वह सब औद्योगिक विकास के ब

तुम्हें जन्मदिन मुबारक हो-खाली पेट मुस्कान से.

Image
मैं जानता हूँ,सचिन. आज तुम्हारा जन्मदिन है. बहुत बधाईयाँ मिलेंगी तुम्हें, यहाँ,वहाँ इधर उधर से भी / पर वह दुआएं नहीं पहुँच पाएंगी तुम तक जिनको दिन भर के मर-खपने के बाद भी एक अदद सौ का नोट नहीं मिल पाता जिन घरों में बच्चों को गीला भात नमक-हल्दी मिलकर खिला दिया जाता है और औरतों को पेट बाँध सोने की आदत होती है. किसी ढंग की जगह ...पर उन्होंने तुम्हें खेलता देखा होता हैऔर इन सभी परेशानियों में भी तुम उनके चेहरे पे मुस्कान का सबब बन जाते हो. जन्मदिन तुम्हें मुबारक हो .. मैं यह झूठ नहीं कहूँगा तुमसे कि तुम जियो हजारों साल, मुझे पाता है यह संभव नहीं. हाँ यह कहूँगा अगर तुम्हारे चौके-छक्के से लोग भुखमरी भूल मुस्कराते हैं तो 'प्यारे सचिन'इस जन्मदिन पर यह करो कि इनकी यह मुस्कान कायम रहे क्योंकि जिस मुस्कान के पीछे तुम्हारा खेल है कमबख्त सरकार उसे अपनी नीतियों की सफलता कहती है. और इस पर तुम्हारा जोर नहीं है तुम बस अपना काम किये जाओ काम किये जाओ·

अब चौथा रंगमंच-मचान (यानि "पड़ोस का रंगमंच")

Image
एक समय रंगजगत पर बादल सरकार ने तीसरे रंगमंच से रंगजगत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था.पर हमारे इस चौथे किस्म के रंगमंच का आधार कोई थ्योरी नहीं है बल्कि नाटी-प्रदर्शन का एक अनूठा प्रेक्षागृह है.यह 'मचान'थियेटर है यानी terrace theatre /theatre on rooftop .सन २००८ के अप्रैल माह में २६-२७ तारीख को पटना शहर के बुजुर्ग और सम्मानित नाटककार डॉ.चतुर्भुज ने इस मचान थियेटर का उदघाटन किया था.और इस 'मचान'की पहली नाट्य-प्रस्तुति थी-'अकेली औरत'.तब से लेकर हर महीने नाटकों और गीत-संगीत की प्रस्तुति के साथ फिल्मों के विशेष शो का आयोजन 'मचान' का हिस्सा बन चुका है.अब तो 'मचान फेस्टिवल'से मचान ने पटना शहर में अपनी एक अनूठी पहचान बना ली है.इस मंच की सबसे अनोखी बात इससे आस-पास के लोगों का जुड़ाव है.श्रीकृष्ण नगर और आसपास के लोगों,विशेषकर महिलाओं और बच्चों की मचान-कार्यक्रम में भागीदारी ने इसे'पड़ोस के रंगमंच'का रूप दे दिया है.इसके प्रत्येक आयोजन में स्थानीय स्तर पर लोगों की बढती भागीदारी और 'मचान' के प्रबंधन में उनकी दिलचस्पी से एक बात पता चलती है कि बेह

प्रेम का इस्तीफा..(मनोज तापस की कविता)

Image
हाँ ! मुन्ना भाई, आप ठीक कहते हैं- प्रेम से इस्तीफा नहीं दिया जा सकता. कमबख्त इस कलम से जब भी, प्रेम का इस्तीफा लिखने बैठता हूँ. तो लिख बैठता हूँ,प्रेम पत्र. कभी-कभी मन करता है, ढेर सारी गालियाँ लिख पोस्ट कर दूँ उस पते पर, लेकिन लिख बैठता हूँ,प्रेम कविता फिर. कल बहुत इत्मीनान से सोच रहा था, छत पर बैठकर कि,तीन बार तलाक कहकर उससे पीछा छुड़ा लूँगा, लेकिन जैसे ही गली के नुक्कड़ पर वह मिली. मैं फिर उन्हीं तीन शब्दों में कर बैठा 'इज़हार-ए-मोहब्बत' मुआमला-ए-इश्क फिर उसी मुकाम पर आ गया आखिर तमाम हमलों के बीच भी मैं सोच रहा हूँ अब सही में इश्क पर जोर नहीं होता.... ***(मनोज कुमार 'तापस' ,दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में'समकालीन हिंदी कविता और दिल्ली की युवा छात्र कविता'विषय पर शोधरत हैं तथा साथ ही,डीयू के ही शहीद भगत सिंह कालेज/प्रातः/में तदर्थ प्रवक्ता हैं.संपर्क-९८९१२७१२७५)

लोक कवि महेंद्र शास्त्री-जन्मदिवस विशेष

Image
भोजपुरी लेखकों में महेंद्र शास्त्री का नाम महत्वपूर्ण है.वे भोजपुरी के आरंभिक उन्नायकों में से थे.उन्होंने भोजपुरी -लेखन और आन्दोलन -दोनों ही क्षेत्रों में काम किया.उन्होंने हिंदी में भी लिखा है परन्तु उनका श्रेष्ठ लेखन भोजपुरी में ही आया.उनका मूल्यांकन करते हुए नंदकिशोर नवल ने ठीक ही लिखा है कि "किसी भी हिंदी कवी में न तो उन जैसी सूक्ष्म सामाजिक चेतना है,न सामाजिक जीवन को बारीकी से चित्रित करने की उन जैसी क्षमता.उनका कृतित्व निःसंदेह इस शताब्दी के उत्तर भारत के ग्राम्य-जीवन को शब्दबद्ध करने वाला प्रामाणिक कृतित्व है." इस समय हिंदी में दलित-विमर्श और नारी-विमर्श के स्वर उठ रहे हैं.ये दोनों स्वर शास्त्री जी की कविता में पूरी शिद्दत के साथ उठे हैं.उन्होंने ब्राह्मणवाद का हरसंभव विरोध किया तथा अपने लेखन और व्यावहारिक जीवन-दोनों में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ी.उनका लेखन भी इसी का अंग था.इसके फलस्वरुप प्रतिक्रियावादी तत्वों ने उन्हें किसी-न-किसी तरह हरदम प्रताड़ित किया,पर शास्त्री जी अपनी राह से डिगे नहीं.कुछ लेखक ऐसे मुद्दों पर प्रगतिशील बनते हैं जो सर्वमान्य हो चुके हैं,जिन पर

अतिशय प्रयोगों की बलिवेदी पर-1084 की माँ.

Image
ऐसा कई बार होता है कि निर्देशक नाटक में अपनी क्षमताएँ दिखाने के लिए कई नयी चुनौतियां लेते हैं और लेने लगे हैं और इसके लिए नए-नए प्रयोग भी कर रहे हैं.दरअसल,यह लेखक के concept को संप्रेषित करने के स्थान पर अपने कलात्मकता को दिखाना होता है यानी यह अपने (निर्देशक के खुद के होने)होने को (being)प्रकट करना होता जा रहा है.कुछ-कुछ ऐसा ही पिछले दिनों रा.ना.वि.में महाश्वेता देवी के उपन्यास '१०८४ वें की माँ' का मंचन "१०८४ की माँ"के नाम से शांतनु बोस के निर्देशन में हुआ.सही मायने में उपन्यास या कहानी के रंगमंच को लेकर प्रसिद्ध रंग-आलोचक महेश आनंद की माने तो,उपन्यास या कहानी पढ़ते समय पातःक जिस अनूभूति का साक्षात्कार करता है और सूक्ष्म रूप से छिपा हुआ जो दृश्य-संसार उसके सामने बनता-संवारता है,उन दृश्यों को रचना के भीतर से तलाश करके मंच पर प्रदर्शित करने से ही कहानी के रंगमंच का स्वरूप निर्मित होता है.यही पाठक जब दर्शक के रूप में अपने उस पठित शब्दों को दृश्य रूप में मंच पर देखता है तो वह अपने मन:मस्तिष्क के आँखों से अपनी दृश्य दृश्य-रचना और पात्रों को तलाशने लगता है.१०८४ की माँ'

न्याय के पक्ष में भारत सरकार का दोहरा मानदंड-आनंद जान बनाम अन्य

Image
आज दोपहर दैनिक भास्कर की खबर पढ़कर मैं थोडा चौंका.खबर थी-'दुबई में हत्या के आरोप में मौत की सज़ा पाने वाले पंजाब और हरियाणा के विभिन्न जिलों के १७ युवकों के मामलों को लेकर ६ अप्रैल को विदेश मामलों की सचिव दिल्ली जा रही हैं.विदेश राज्यमंत्री परनीत कौर ने ये बातें कहीं.इन युवकों के परिजनों से मिलने के बाद इस मामले को संजीदा मानते हुए विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ,विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा संयुक्त अरब अमीरात(UAE) सरकार के लगातार संपर्क में हैं,साथ ही इन युवकों को बचाने के लिए लोक भलाई पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान बलवंत सिंह रामूवालिया तीन सदस्यीय कमिटी के साथ ८ अप्रैल को दुबई जा रहे हैं. भारत सरकार का यह कदम काबिले तारीफ़ हैं और उनके इस कदम से हमारा विश्वास और भी पुख्ता हुआ है कि अन्य देशों की ही तरह हमारी सरकार भी हमारे विदेश में काम के लिए गए नागरिकों के लिए,उनके हकों के लिए कितनी गंभीर है.पर तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.पिछले वर्ष एक माँ और बहन विभिन्न रसूख वाले लोगों तथा हमारे ऊपर लिखित राजनयिकों तक से यहाँ तक की विभिन्न संस्थाओं के दरवाज़े पर लगातार दौड़ रहीं हैं और केवल आश्वासन के स

रेतीली सफलता का ब्रेकडाउन -राँग टर्न

Image
ब.व.कारंत ने एक इंटरव्यू में रंजीत कपूर के बारे में कहा था-'शुरू से लगता था,इसमें दम है.अब भी लगता है,अगर निखरता तो बहुत अच्छा लगता." रंजीत कपूर के नए नाटक 'राँग टर्न' के बारे में यही लगता है की काश थोडा और निखरता तो अच्छा होता.कपूर mass audience के निर्देशक हैं.उनका अपना एक विशाल दर्शक-वर्ग है.और यह दर्शक-वर्ग उनके नाटको'बेगम का तकिया',मुख्यमंत्री,पैर तले की ज़मीन,जनपथ किस,एक रुका हुआ फैसला,आंटियों का तहखाना,अंतराल,शार्टकट,एक संसदीय समिति की उठक-बैठक आदि से निर्मित हुआ है.मैं भी इसी वर्ग का हूँ कम-से-कम रंजीत कपूर के लिए. रंजीत कपूर का नयी नाट्य-प्रस्तुति'राँग टर्न' पिछले दिनों रा.ना.वि.के सम्मुख प्रेक्षागृह में खेला गया.यह रा.ना.वि.की छात्र प्रस्तुति थी.'राँग टर्न'नाटक मूल जर्मन कहानी'ब्रेकडाउन'से प्रभावित है और २१ वी सदी में प्रयुक्त होने वाले मुहावरे 'कामयाबी की राह'का विश्लेषण करता है.नाटक का विषय उसके कथ्य को समझने में अस्पष्ट है.न इसमें किसी एक के विचार दर्शाए गए हैं ना इसके लेखन में.'नाटक की प्रस्तुति में निर्देशकीय प

मैथिली मेरी माँ और भोजपुरी मौसी है-पद्मश्री प्रो.शारदा सिन्हा.

Image
शारदा सिन्हा ना केवल बिहार बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और विश्व भर में जहां कहीं भी हमारे गिरमिटिया पूरबिया कौम है उनके लिए एक पारिवारिक सदस्य सरीखा नाम है.शारदा सिन्हा नाम सुनो तो लगता है अड़ोस-पड़ोस की बुआ,ताई,या मौसी है.ये मैं नहीं कह रहा बल्कि उन अनेक सज्जनों ,छात्रों से सुन चुका हूँ जो भोजपुरी से परिचित हैं और जिनके लिए भाषा का प्रश्न उनकी अपनी संस्कृति से गुजरना होता है चाहे वह इस दुनिया के किसी भी छोर पे हों.पटना से बैदा बोलाई द हो नजरा गईले गुईयाँ/निमिया के डाढी मैया/पनिया के जहाज़ से पलटनिया बनी आईह पिया इत्यादि कुछ ऐसे अमर गीत हैं जिन्होंने शारदा जी के गले से निकल कर अमरता को पा लिया.कला सुदूर दरभंगा में भी हो तो पारखियों के नज़र से नहीं बच पाती,राजश्री प्रोडक्शन वालों ने जब अपनी सुपरहिट फिल्म 'मैंने प्यार किया'के एक गीत जो की लोकधुन आधारित था को गवाना चाहा तो मुम्बई से हजारों किलोमीटर बैठी शारदा जी ही याद आई.इस फिल्म के अकेले इस गीत'कहे तोसे सजना तोहरी सजनिया'के लिए दसियों बार देखी गयी थी. मेरे पिताजी जो भोजपुरी फिल्मों के(८०-९०के दशक की फिल्में)तथा भोजपुरी लोककला

भोजपुरी की 'मदर इंडिया'-"धरती मईया".......

Image
'जाके ससुरारिया गरब जन करिह सबके बिठा के पलक कोठे रखिह बड़के आदर दिहा छोट के सनेहवा इहे बा सकल जिनगी के हो सनेसवा दुनु कुल के इजत रखिह बोलिहा जन तींत बोलिया..' पैदा होते ही परंपरा से भर दिए गए इसी भाव-बोध के साथ एक लड़की,उसी तरह विदा होकर मायके से ससुराल आती है.और सारी उम्र अपने उस नए घर को सँवारने में अपनी जिंदगी की सार्थकता मान लेती है.'धरती मईया'इसी भावबोध की कहानी है.एक स्त्री के उच्चतम आदर्शों की छवि की कहानी.कमाल की बात है कि मेनस्ट्रीम फ़िल्मी फ्रेम के भीतर यह आदर्श उभरता है.ब्रजकिशोर,कुनाल,पद्मा खन्ना,श्रीगोपाल अभिनीत और कमर नार्वी निर्देशित भोजपुरी फिल्म &

भोजपुरी की पहली फिल्म-गंगा मईया तोहे पियरी चढईबो

Image
'गंगा मईया तोहे पियरी चढईबो'को भोजपुरी की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त हैi इस फिल्म के निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी तथा निर्देशक कुंदन कुमार थे.साथ ही,संगीत का जिम्मा चित्रगुप्त का था और फिल्म के गीतों को लता मंगेशकर,सुमन कल्याणपुर,मो.रफ़ी,उषा मंगेशकर ने स्वर दिया था.यह बहुत संभव है कि किसी क्षेत्रीय ज़बान की पहली फिल्म को शायद ही वह सफलता नसीब हुई हो,जो भोजपुरी की;गंगा मईया...'के हिस्से आई.नए-नए आज़ाद देश की तत्कालीन समस्याओं को एक बेहतरीन कथानक तथा उम्दा गीत-संगीत में पिरोकर सेल्युलाईड पर उतारा गया था,यही वज़ह रही कि यह फिल्म भोजपुरी की एक उत्कृष्ट क्लासिक का दर्ज़ा पा सकी. दर्शकों के हिस्से दो मापदंड होते हैं,एक कहानी के कारण कोई फिल्म अच्छी लगती है तो दूसरे अपनी कलात्मकता की वज़ह से उनके मन को भाती है.यद्यपि कलात्मकता के मूल में भी कहानी ही होती है.सारा क्रिया-व्यापार कहानी-कलात्मकता-सम्प्रेषण के सामंजस्य की मांग करता है.इसी का मेल फिल्म को जीवंत और उत्तम बनता है.'गंगा मईया...'की शुरुआत ही जमींदार (तिवारी)द्वारा एक किसान की बटाई ज़मीन वापस ले लिए जाने से ह

एक बढ़िया निर्देशक की कमज़ोर प्रस्तुति-'माहिम जंक्शन'

Image
कमानी सभागार में उपस्थित लगभग सभी सहृदयों के दिमाग में यही बात घूम रही होगी कि क्यों आखिर वह माहिम जंक्शन देखने आया.मेरे पास दो वाजिब कारण था.पहला ये कि इस प्ले में मेरा जूनियर 'शिवम् प्रधान'काम कर रहा था और दूसरा यह कि मैं हिंदी सिनेमा के सत्तर के दशक के सिनेमा का कायल हूँ.अफ़सोस मैं इस प्ले में अपनी दूसरी वजह को ना पाकर निराश हुआ.अपने निर्देशकीय वक्तव्य में'सोहेला कपूर'ने इस नाटक को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताया है.उनकी ज़ुबानी-"बचपन में देखी हुई अनेक खुशनुमा बालीवुड फिल्मों का यह अनुचिंतन मेरे लिए बड़ा आनंददायक रहा.इन फिल्मों ने हमारी पीढ़ी को अपने नाच-गानों और नाटकीयता के द्वारा असीम आनंद दिया है.पुनर्पाठ और बालीवुड,इधर ये दोनों ही मुख्यधारा में हैं.नाटक में पुनर्पाठ के साथ आज की प्रतिध्वनियाँ भी हैं.कहानी के कई सूत्र अतीत को वर्तमान से जोड़ते हैं.यह मुम्बई के जीवन को भी एक उपहार है,जीने इधर घातक आतंकवादी हमलेझेले हैं."-यह तो अहि निर्देशकीय.पर यह कहना शायद अति नहीं होगा कि यह नाटक अपने शुरू से ही अजीब तरह से भागम-भाग वाली स्थिति का शिकार हो गया था.कलाकार बॉडी मूवम

उनकी आवाज़ अधरतिया की आवाज़ थी-भिखारी ठाकुर

भि‍खारी ठाकुर बीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृति‍क महानायकों में एक थे। उन्‍होंने अपनी कवि‍ताई और खेल तमाशा से बि‍हार और पूर्वी उत्‍तरप्रदेश की जनता तथा बंगाल और असम के हि‍न्‍दीभाषी प्रवासि‍यों की सांस्‍कृति‍क भूख को तृप्‍त कि‍या। वह हमारी लोक जि‍जीवि‍षा के नि‍श्‍छल प्रतीक हैं। कलात्‍मकता जि‍स सूक्ष्‍मता की मांग करती है उसका नि‍र्वाह करते हुए उन्‍होंने जो भी कहा दि‍खाया; वह सांच की आंच में तपा हुआ था। उन्‍होंने अपने गंवई संस्‍कार, ईश्‍वर की प्रीति‍, कुल‍, पेट का नरक‍, पुत्र की कामना‍, यश की लालसा आदि‍ कि‍सी बात पर परदा नहीं डाला। उनके रचे हुए का वाह्यजगत आकर्षक और सुगम है ताकि‍ हर कोई प्रवेश कर सके। किंतु प्रवेश के बाद नि‍कलना बहुत कठि‍न है। अंतर्जगत में धूल-धक्‍कड़ भरी आंधी है; और है – दहला देनेवाला आर्तनाद‍, टीसनेवाला करुण वि‍लाप‍, छील देनेवाला व्‍यंग्‍य तथा गहन संकटकाल में मर्म को सहलानेवाला नेह-छोह। उनकी नि‍श्‍छलता में शक्‍ति‍ और सतर्कता दोनों वि‍न्‍यस्‍त हैं। वह अपने को दीन-हीन कहते रहे पर अपने शब्‍दों और नाट्य की भंगि‍माओं से ज़ख़्मों को चीरते रहे। मानवीय प्रपंचों के बीच राह बनाते हुए