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Showing posts from December, 2013

भिखारी ठाकुर के मायने

“ठनकता था गेंहुअन तो नाच के किसी अँधेरे कोने से धीरे-धीरे उठती थी एक लंबी और अकेली भिखारी ठाकुर की आवाज़ ” कवि केदारनाथ सिंह की यह पंक्तियाँ भोजपुरी और पूरे पुरबियों के बीच भिखारी ठाकुर की लोकप्रसिद्धि का बयान ही है. प्रख्यात रंग-समीक्षक हृषिकेश सुलभ ने भी भिखारी ठाकुर की आवाज़ को ‘अधरतिया की आवाज़’ कहा है. जब भी भोजपुरी संस्कृति और कला-रूपों पर बात होती है, भिखारी ठाकुर का नाम सबसे पहले जुबान पर आता है. ऐसा होने की कई वाजिब वजहें हैं. भारतीय साहित्य और रंगजगत में ऐसे उदाहरण शायद ही मिले, जहाँ कोई सर्जक या रंगकर्मी प्रदर्शन के लगभग सभी पक्षों पर सामान दक्षता रखता हो और उसनें कहीं से कोई विधिवत शिक्षा न ली हो. अमूमन जितने भी रंगकर्मियों ने अपनी लोक-संस्कृति का हिस्सा होकर अपने रंगकर्म को विकसित किया अथवा उसको दूसरी संस्कृतियों से भी परिचय कराया, वह सभी किसी-न-किसी स्कूल के सीखे हुए, दक्ष और सुशिक्षित कलाकार थे. फिर चाहे वह महान रंगकर्मी हबीब तनवीर, एच.कन्हाईलाल या रतन थियम ही क्यों न हों. यहाँ इन पंक्तियों के लिखने का अभीष्ट बस इतना ही है कि यहाँ इन रंगकर्मियों से या उनके रंग

सिनेमाई युवा का संसार

( यह लेख भारतीय पक्ष पत्रिका के लिए जुलाई 2010 में लिखा गया था. आज अचानक ही इसकी छायाप्रति हाथ लगी. फिर भारतीय पक्ष के वेबसाईट से आर्काईव से अपने इस लेख की प्रति ली और  आपसे शेयर करूँ.-मोडरेटर )   समानांतर सिनेमा के युवा-वर्ग का असंतोष और सिस्टम में उसकी लघुता ज्यों की त्यों दिखती है। बिना किसी चमत्कार के नंगा , कड़वा सच , नंगे और अधिक कड़वे रूप में दर्शकों को झिंझोड़ता है। पर पैरलल सिनेमा का यह युवा प्रश्न उठा कर सिस्टम का शिकार होता दिखता है और कहीं न कहीं इस बात को साबित कर देता है कि इस भ्रष्ट गठजोड़ की गांठ इतनी मजबूत है कि यह आम आदमी से टूटेगी नहीं और उसकी नियति इसके खिलाफ खत्म ही होना है। हिंदी सिनेमा के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि उन फिल्मों का प्रतिशत अधिक है , जो शहरी रवायत के कथानक लिए हुए हैं जबकि इसके उलट गंवई कहानियों वाली फिल्में अपेक्षाकृत कम ही आई हैं। इस भेद के भीतर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सामान्यत: हिंदी सिनेमा के युवा चरित्रों की बात की जाये तो इसकी नींव शुरुआत में ही पड़ गयी थी। नयी-नयी मिली आजादी ने मोहभंग की स्थिति