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एक थे रसूल मियाँ नाच वाले

भिखारी ठाकुर के नाच का यह सौंवा साल है लेकिन भोजपुर अंचल के जिस कलाकार की हम बात कर रहे हैं उसी परंपरा में भिखारी ठाकुर से लगभग डेढ़ दशक पहले एक और नाच कलाकार रसूल मियाँ हुए । रसूल मियाँ गुलाम भारत में न केवल अपने समय की राजनीति को देख-समझ रहे थे बल्कि उसके खिलाफ अपने नाच और कविताई के मार्फ़त अपने तरीके से जनजागृति का काम भी कर रहे थे । रसूल मियाँ भोजपुरी के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश में गाँधी जी के समय में गिने जाएँगे लेकिन अफ़सोस उनके बारे में अभी भी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है और इस इलाके के जिन बुजुर्गों में रसूल की याद है उनके लिए रसूल नचनिए से अधिक कुछ नहीं । यह वही समाज है जिसे भिखारी ठाकुर भी नचनिया या नाच पार्टी चलाने वाले से अधिक नहीं लगते । रसूल मियाँ   की ओर समाज की नजर प्रसिद्ध कथाकार सुभाषचंद्र कुशवाहा जी के शोधपरक लेख से गई, जिसे उन्होंने लोकरंग-1 में प्रकाशित किया है ।   सच कहा जाए तो यह लेख संभवतः पहला ही लेख है जिसने इस गुमनाम लोक कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की ओर सबका ध्यान खींचा । इस लेख में सुभाष कुशवाहा जी ने लिखा है कि ‘भोजपुरी के शेक्सपियर नाम से चर्चित