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सिनेमाई युवा का संसार

( यह लेख भारतीय पक्ष पत्रिका के लिए जुलाई 2010 में लिखा गया था. आज अचानक ही इसकी छायाप्रति हाथ लगी. फिर भारतीय पक्ष के वेबसाईट से आर्काईव से अपने इस लेख की प्रति ली और  आपसे शेयर करूँ.-मोडरेटर )   समानांतर सिनेमा के युवा-वर्ग का असंतोष और सिस्टम में उसकी लघुता ज्यों की त्यों दिखती है। बिना किसी चमत्कार के नंगा , कड़वा सच , नंगे और अधिक कड़वे रूप में दर्शकों को झिंझोड़ता है। पर पैरलल सिनेमा का यह युवा प्रश्न उठा कर सिस्टम का शिकार होता दिखता है और कहीं न कहीं इस बात को साबित कर देता है कि इस भ्रष्ट गठजोड़ की गांठ इतनी मजबूत है कि यह आम आदमी से टूटेगी नहीं और उसकी नियति इसके खिलाफ खत्म ही होना है। हिंदी सिनेमा के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि उन फिल्मों का प्रतिशत अधिक है , जो शहरी रवायत के कथानक लिए हुए हैं जबकि इसके उलट गंवई कहानियों वाली फिल्में अपेक्षाकृत कम ही आई हैं। इस भेद के भीतर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सामान्यत: हिंदी सिनेमा के युवा चरित्रों की बात की जाये तो इसकी नींव शुरुआत में ही पड़ गयी थी। नयी-नयी मिली आजादी ने मोहभंग की...

सिनेमा,सिनेमा केवल सिनेमा,खाली सिनेमा.....

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जेहन में आज भी पहली देखी गई सिनेमा के तौर पर भोजपुरी की "गंगा किनारे मोरा गाँव"ही दर्ज है। बाद में शायद ऋषि कपूर वाली "प्रेम रोग" थी, जिसका गाना हम सभी बच्चे गाया करते थे 'मैं हूँ प्रेम रोगी '। पता नहीं क्यों यही गाना हमारी जुबान पर चढा था।बाद में हमलोग थोड़े और बड़े हुए और सिनेमा ke लिए दीवानगी और बढ़ी। पहले सिनेमा- घरों के विशाल परदों को देख कर बाल-मन यही सोचता था कि हो- न- हो इसी बड़े परदे के पीछे सारा खेल चलता है। हमारी इस बात को बड़े मामा ने जाना तो बहुत हँसे थे,फ़िर एक दिन सीवान(मेरे मामा का घर इसी शहर में है)के प्रसिद्ध 'दरबार' सिनेमा हाल में लेकर गए जहाँ उनका दोस्त मैनेजर हुआ करता था।और तब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था जब हमने देखा कि ये बड़ा परदा जो सारा खेला दिखाताहै वह तो महज़ ८-१० धोती को सिल कर बना है, और असली खेल तो मुस्तफा मियाँ के हाथों होता है जो उस मशीन (प्रोजेक्टर)को चलाते थे। खैर, सिनेमा से जुडाव दिनों- दिन बढ़ता ही जा रहा था। आज भी उसी गंभीरता के साथ जुडाव बरकरार है पर सही-सही कह नहीं सकता कि उन दिनों जैसी ईमानदारी अब बची है या नह...