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भोजपुरी के पहले ऑर्केस्ट्रा बैंड वाले 'मोहम्मद खलील'

वह साठ के आसपास का समय रहा होगा जब भोजपुरी के रत्न गीतकार भोलानाथ गहमरी के लिखे गीत के शब्द "कवने खोंतवा में लुकईलू आई हो बालम चिरई" और देवेंद्र चंचल के लिखे "छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, ढलकल गगरिया मोर"- की टांस भोजपुरिया अंचल में गूँजी और घर-घर में, गले-गले में बस गयी। मोतिहारी के भवानीपुर जिरात मोहल्ला के रहने वाले भारतीय रेलवे के एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी मोहम्मद खलील का तबादला बलिया से इलाहाबाद हुआ। फिर इलाहाबाद वह जमीन बना जहाँ उनकी गायकी के शौक ने भोजपुरी के पहले बैंड या यूँ कहिए कि ऑर्केस्ट्रा बैंड "झंकार पार्टी" को मजबूती से स्थापित किया, जिसके नींव बलिया की जमीन में डाली गयी थी। नबीन चंद्रकला कुमार ने इस झंकार पार्टी को भोजपुरी का पहला ऑर्केस्ट्रा बैंड बताते हुए लिखा कि "आज के दौर में जब भोजपुरी इलाके में ऑर्केस्ट्रा संस्कृति का मतलब एक खास तरह के नाच-गान रह गया है वहाँ मोहम्मद खलील का ऑर्केस्ट्रा इस अंचल की सबसे सार्थक सांगीतिक पहचान रहा है।" सीताराम चतुर्वेदी के गीत "छलकत गगरिया मोर निरमोहिया" और "अजब सनेहिया बा तोर न

खाओ कसम कि अब किसी ... लाली (शॉर्ट फिल्म)

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  लहसनवाँ हीराबाई के यहाँ क्यों टिका? मालूम है? उसने हिरामन और साथियों को बताया था कि ‘हीराबाई के कपड़े धोने के बाद कठौत का पानी अतर गुलाब हो जाता है. उसमें अपनी गमछी डुबाकर छोड़ देता हूँ. लो सूँघो ना कैसी खुशबू आती है.’ – यही खुशबू तो शिवपूजन सहाय बाबू के धोबी को मिली है उसको भी एक दिन संयोग की बात ऐसी सनक सवार हुई कि वह कबूल बैठा ‘मैं उर्वशी और रंभा की साड़ियों और कुर्तियों को एकांत में सूंघ रहा था. उनकी मानसोन्मादिनी सुरभि से मस्तिष्क ऐसा आमोदपूर्ण हो गया कि  आँखों में मादकता की गहरी लाली उतर आयी.’ – शार्ट फ़िल्म “लाली” ( Laali Review ) देखते हुए हम उसके मुख्य नायक के साथ इन मानवीय भावों और उसके मनोविज्ञान को महसूसते हैं जिसे रेणु या शिवपूजन सहाय ने कभी लिखा था. इसमें अनायास ही कथानायक पंकज त्रिपाठी के एकाकी जीवन में यह भाव शामिल हो गया है, जहाँ वह लाली के लालित्य को सूँघता आत्मसात करने लगा है. यह साधारण कथा नहीं है बल्कि इसके हर फ्रेम में चिन्हशास्त्र का अद्भुत आख्यान है.  लेखक ने अपने निर्देशन में एक मुकम्मल साहित्यिक पाठ रचा है, जो शब्दों से अधिक इशारों में संवाद करती है और अभिने