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Showing posts from January, 2010

एक बढ़िया निर्देशक की कमज़ोर प्रस्तुति-'माहिम जंक्शन'

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कमानी सभागार में उपस्थित लगभग सभी सहृदयों के दिमाग में यही बात घूम रही होगी कि क्यों आखिर वह माहिम जंक्शन देखने आया.मेरे पास दो वाजिब कारण था.पहला ये कि इस प्ले में मेरा जूनियर 'शिवम् प्रधान'काम कर रहा था और दूसरा यह कि मैं हिंदी सिनेमा के सत्तर के दशक के सिनेमा का कायल हूँ.अफ़सोस मैं इस प्ले में अपनी दूसरी वजह को ना पाकर निराश हुआ.अपने निर्देशकीय वक्तव्य में'सोहेला कपूर'ने इस नाटक को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताया है.उनकी ज़ुबानी-"बचपन में देखी हुई अनेक खुशनुमा बालीवुड फिल्मों का यह अनुचिंतन मेरे लिए बड़ा आनंददायक रहा.इन फिल्मों ने हमारी पीढ़ी को अपने नाच-गानों और नाटकीयता के द्वारा असीम आनंद दिया है.पुनर्पाठ और बालीवुड,इधर ये दोनों ही मुख्यधारा में हैं.नाटक में पुनर्पाठ के साथ आज की प्रतिध्वनियाँ भी हैं.कहानी के कई सूत्र अतीत को वर्तमान से जोड़ते हैं.यह मुम्बई के जीवन को भी एक उपहार है,जीने इधर घातक आतंकवादी हमलेझेले हैं."-यह तो अहि निर्देशकीय.पर यह कहना शायद अति नहीं होगा कि यह नाटक अपने शुरू से ही अजीब तरह से भागम-भाग वाली स्थिति का शिकार हो गया था.कलाकार बॉडी मूवम

उनकी आवाज़ अधरतिया की आवाज़ थी-भिखारी ठाकुर

भि‍खारी ठाकुर बीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृति‍क महानायकों में एक थे। उन्‍होंने अपनी कवि‍ताई और खेल तमाशा से बि‍हार और पूर्वी उत्‍तरप्रदेश की जनता तथा बंगाल और असम के हि‍न्‍दीभाषी प्रवासि‍यों की सांस्‍कृति‍क भूख को तृप्‍त कि‍या। वह हमारी लोक जि‍जीवि‍षा के नि‍श्‍छल प्रतीक हैं। कलात्‍मकता जि‍स सूक्ष्‍मता की मांग करती है उसका नि‍र्वाह करते हुए उन्‍होंने जो भी कहा दि‍खाया; वह सांच की आंच में तपा हुआ था। उन्‍होंने अपने गंवई संस्‍कार, ईश्‍वर की प्रीति‍, कुल‍, पेट का नरक‍, पुत्र की कामना‍, यश की लालसा आदि‍ कि‍सी बात पर परदा नहीं डाला। उनके रचे हुए का वाह्यजगत आकर्षक और सुगम है ताकि‍ हर कोई प्रवेश कर सके। किंतु प्रवेश के बाद नि‍कलना बहुत कठि‍न है। अंतर्जगत में धूल-धक्‍कड़ भरी आंधी है; और है – दहला देनेवाला आर्तनाद‍, टीसनेवाला करुण वि‍लाप‍, छील देनेवाला व्‍यंग्‍य तथा गहन संकटकाल में मर्म को सहलानेवाला नेह-छोह। उनकी नि‍श्‍छलता में शक्‍ति‍ और सतर्कता दोनों वि‍न्‍यस्‍त हैं। वह अपने को दीन-हीन कहते रहे पर अपने शब्‍दों और नाट्य की भंगि‍माओं से ज़ख़्मों को चीरते रहे। मानवीय प्रपंचों के बीच राह बनाते हुए