सिनेमाई युवा का संसार

(यह लेख भारतीय पक्ष पत्रिका के लिए जुलाई 2010 में लिखा गया था. आज अचानक ही इसकी छायाप्रति हाथ लगी. फिर भारतीय पक्ष के वेबसाईट से आर्काईव से अपने इस लेख की प्रति ली और  आपसे शेयर करूँ.-मोडरेटर ) 

समानांतर सिनेमा के युवा-वर्ग का असंतोष और सिस्टम में उसकी लघुता ज्यों की त्यों दिखती है। बिना किसी चमत्कार के नंगा, कड़वा सच, नंगे और अधिक कड़वे रूप में दर्शकों को झिंझोड़ता है। पर पैरलल सिनेमा का यह युवा प्रश्न उठा कर सिस्टम का शिकार होता दिखता है और कहीं न कहीं इस बात को साबित कर देता है कि इस भ्रष्ट गठजोड़ की गांठ इतनी मजबूत है कि यह आम आदमी से टूटेगी नहीं और उसकी नियति इसके खिलाफ खत्म ही होना है।

हिंदी सिनेमा के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि उन फिल्मों का प्रतिशत अधिक है, जो शहरी रवायत के कथानक लिए हुए हैं जबकि इसके उलट गंवई कहानियों वाली फिल्में अपेक्षाकृत कम ही आई हैं। इस भेद के भीतर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सामान्यत: हिंदी सिनेमा के युवा चरित्रों की बात की जाये तो इसकी नींव शुरुआत में ही पड़ गयी थी। नयी-नयी मिली आजादी ने मोहभंग की स्थिति में तब के युवा-वर्ग को दोराहे पर खड़ा कर दिया था। श्री 420′ और आवाराका युवा नायक यह जान गया था, कि यहां केवल रुपया ही पूजा जाता है। जबकि बाद की स्थितियां थोड़े अलग तरह से सामने आयीं। आमतौर पर हिंदी सिनेमा का युवा चरित्र मुख्यत: शहरी उच्च वर्ग/ उच्च मध्यवर्ग, मध्यवर्ग/निम्न मध्य वर्ग/ झोपड़पट्टी तथा गांव का सीधा-साधा नौजवान रहा है। यह स्थिति पुरुष और स्त्री दोनों पर समान रूप से लागू होती है। चाहे बात मदर इंडियाकी हो या लगानकी। यद्यपि 70 का दशक हिंदी सिनेमा इतिहास का एक महत्वपूर्ण दौर है। यह वही समय है जब परदे पर एंग्री यंग मैनका उदय होता है और उसने अपने आने के साथ ही सिनेमा के रोमांस किंग को रिप्लेस कर दिया। तत्कालीन युवा का यह एंग्री रूपदर्शकों की डिमांड नहीं थी बल्कि तत्कालीन व्यवस्था से उपजे असंतोष का युवा प्रतीक था। यह सहज बात है कि व्यवस्था से उपजने वाली परिस्थितियों से कोई भी कला रूप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। जब हमारे इर्द-गिर्द सिस्टम अराजक स्थिति में पहुंच चुका था और देश में बेरोजगार, शिक्षित युवाओं की एक पूरी जमात अंधेरे में ठोकरें खाने को विवश थी, ‘एंग्री यंग मैनने तब इसी युवावर्ग के दबे आक्रोश को सिल्वर स्क्रीन पर जगह दी। सिनेमा में युवा चरित्रों के निर्माण में भारतीय राजनीति का भी गहरा प्रभाव पड़ा।

कुछ पाने को आतुर तेजाबी आंखे

युवा चेहरे का यह असंतुष्ट एंग्री रूप न केवल 70 के मेनस्ट्रीम सिनेमा में आया बल्कि बाद के दशकों में समानांतर सिनेमा में भी दिखा। पर यह सोचने वाली बात थी कि अब तक जो वर्ग सिनेमा और समाज दोनों जगह नान-सीरियस माना जाता रहा था, एकाएक ऐसा असंतुष्ट कैसे दिखने लगा। राजेश खन्ना तक तो ये तेजाबी आंखें रोमांस फरमाती रही थीं। अब युवाओं के सिनेमाई प्रतिनिधि भ्रष्ट-तंत्र को तहस-नहस कर देने और उसमें अपनी जगह बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को आतुर थे। यह मेनस्ट्रीम का युवा खुद कानून को हाथ में लेता है। अपने ऊपर हुए जुल्मों के खिलाफ सड़क पर लड़ाई लड़ता है। वह अविश्वासी है, वह जानता है कि सरकारी तंत्र एक छलावा है। यह इस सड़ चुके सिस्टम को बर्बाद कर देने की कूबत रखता है, जबकि समानांतर सिनेमा के युवा-वर्ग का असंतोष और सिस्टम में उसकी लघुता ज्यों की त्यों आती है। बिना किसी चमत्कार के नंगा, कड़वा सच, नंगे और अधिक कड़वे रूप में दर्शकों को झिंझोड़ता है। पर पैरलल सिनेमा का यह युवा प्रश्न उठा कर सिस्टम का शिकार होता दिखता है और कहीं न कहीं इस बात को साबित कर देता है कि इस भ्रष्ट गठजोड़ की गांठ इतनी मजबूत है कि यह आम आदमी से टूटेगी नहीं और उसकी नियति इसके खिलाफ खत्म ही होना है। ऋआक्रोशके ओमपुरी और पारके नसीरुद्दीन शाह के किरदार को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है) राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद का गांधीवादी युवा जाने-अनजाने ऋहृदय परिवर्तन से) सिस्टम का पार्ट बन ही जाता है वहीं गुरुदत्त का नौजवान कवि महान क्लासिक प्यासामें समाज द्वारा पैदा किये अवसाद में गहरे उतरता ही चला जाता है। इन सबकी अपनी महत्ता है पर इन सबके उलट मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और रवि टंडन का युवक लगभग नास्तिक है और वह हिंदी सिनेमा के जबरदस्त चालू फार्मूले के साथ अमानवीय ताकत लेकर आता है। हिंदी सिनेमा का यह समय इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आपातकाल के संशय और उठा-पठक वाले समय में राजनीति में जयप्रकाश नारायणजैसे व्यक्तित्व ने युवाओं को दिशा दी तो सिनेमा ने सिस्टम से सीधे दो-दो हाथ करने को सिल्वर स्क्रीन का अवतार दिया। समझदार निर्देशक जानते थे कि भारतीय जनता अपने दुखों के निवारण के लिए अवतार या मसीहे का इंतजार करती है। उन्होंने दर्शकों की इस मानसिकता का फायदा उठाया। तीन घंटे के लिए ही सही, परदे पर उन्होंने मसीहा को उतार दिया जो जंजीर, कुली, दीवार, नास्तिक, त्रिशूल, आदि फिल्मों में दिखायी देता है।

समानांतर सिनेमा का युवा
वैसे हिंदी सिने जगत में इस तरह के फिल्मों का बीज भुवन सोम1969, मृणाल सेन) से ही पड़ गया था जो पूर्णरूपेण आठवें दशक में फला-फूला। हिंदी सिनेमा का यह आठवां दशक संवेदनशील, यथार्थपरक, कलात्मक तथा सीमित बजट वाली फिल्मों के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। इस दौर में सईद मिर्जा, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, गौतम घोष, सई परांजपे, मणि कौल, कुमार शाहनी जैसे निर्देशक सामने आये जिन्होंने सलीम लंगड़े पर मत रो, 36 चौरंगी लेन, अंकुश मंडी, पार, अर्धसत्य, आक्रोश जैसी फिल्मों के माध्यम से एक अलग तरह की ही दुनिया प्रस्तुत की जिसे हम जान-बूझकर देखना ही नहीं चाहते थे। और जो हमारे समय का कड़वा सच था। अंकुशके चारों युवा नायक सच के पक्ष में बोलने के बावजूद और कोर्ट में अपना पक्ष रखने के बावजूद मरने को अभिशप्त हैं और यह बिन बोले कह जाते हैं कि बिना राजनीतिक जागरूकता के कोई हमारे समय में साथ नहीं देगा। हमें सिस्टम की कमान अपने हाथों में लेनी होगी और जिसके लिए वृहत्तर वैचारिक जागृति की जरुरत है। इन फिल्मों का युवा किसी विशेष आन्दोलन का परिणाम नहीं था। यह उन नए फिल्मकारों के अपने जीवन अनुभव, और उसके प्रति एक बौध्दिक यथार्थवादी दृष्टि तथा परिवेश बोध से गहरे जुड़ाव और गंभीर समझ का युवा था। अफसोस यह युवा उन तमाम आम युवाओं तक पैठ नहीं बना सका जिनकी बात यह करता था। इसने बुध्दिजीवी युवावर्ग पैदा किया, जो समाज के लिए अधिक मानवीय था। यद्यपि यह मानवीयता के लिए प्रतिबध्द होकर भी अपने मूल स्वभाव में व्यवस्था-विरोधी था।


युवा-काऊ ब्याय बनाम कालेज गोइंग रोमांस
80 के दशक बाद की मुख्यधारा की फिल्मों का युवा फिर से अपनी इमेज नान सीरियसवाली बनाने लगा और बाकी बची-खुची कसर हालीवुड प्रेरित काऊ ब्यायसंस्कृति ने ने पूरी कर दी। शिवा’ ‘अर्जुन’ ‘गर्दिश’, ‘परिंदा’, ‘काला बाजारजैसी फिल्मों ने इन युवाओं को कालेज के परदे पर उतारा। यह युवा कालेजों में छोटे-छोटे गुटों में बंटकर मारपीट, गुंडागर्दी करने लगा। गलियों नुक्कड़ पर हफ्ता वसूलने लगा। उसके इस रूप पर हिरोइनें जान लुटाती हैं। भले ही यह उनसे बदतमीजी करता हो। यह युवा उसी तरह के सैडिस्टिक दृश्य का एक्सटेंशन बना जिसकी बुनियाद राजकपूर ने अपने जवानी के दिनों में रखी थी। यानि स्त्री पर पुरुष शक्ति के प्रभुत्व को ग्लोरिफाई करना। कविता सरकार ने लिखा है-भारतीय दर्शकों में इस तरह के सैडिज्म के लिए विशेष आकर्षण है। इतना ही नहीं इस तरह का मर्दवाद दर्शकों ने अमिताभ की फिल्मों में मर्द’, ‘दीवारमें भी खूब पसंद किया। यानि कितने ही हंटर मार ले, जख्मों पर नमक छिड़क ले पर मर्द के सीने में दर्द नहीं होता। तेजाबजैसी फिल्में कालेज गोइंग युवा को रोमांस की पटरी और पेड़ों के इर्द-गिर्द बेतहाशा नचा-गवा कर अंत में एंग्री यंग मैन का भी रूप दे देती रहीं। यानि थ्री इन वन पैकेज। इसी दौर में यह एंटी हीरोके तौर पर भी डेवलप हुआ। यह नया युवा कालेज, गुंडागर्दी और राजनीति के गलियारे में चक्कर लगाता रहा। इसी समय जोशीले’ ‘दोस्त’, ‘गरीबों का रखवालाजैसी फिल्मों ने काऊ ब्याय संस्कृति को देशी रूप में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया।

एंटी हीरो बनाम प्रेम दूत का उदय
कयामत से कयामत तक’ ‘मैंने प्यार कियाने आमिर खान और सलमान खान को युवावर्ग के बीच प्रेमदूतों के तौर पर स्थापित कर दिया। आर्चीज के कार्ड एक दूसरे को भेजे जाने लगे। खेतों में सरसों लहराने लगी। दूर-दराज के कस्बों तक में वेंलेनटाइन डे मनाया जाने लगा। यह समय प्रेम के सबसे बड़े सितारे शाहरुख खान के उदय का भी था। हर नया पैदा होने वाला बच्चा अब राज या राहुल था। यह दौर दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे का था। यह युवा चरित्र अपने कालेजों में प्रेम के गीत गाने और अपनी सारी ऊर्जा हिरोइन को पाने में लगाता है। नब्बे के उदारवादी दौर में जब बाजार में नयी संभावनाएं जन्म ले रही थीं, तब ऐसे में इन फिल्मों के युवा चरित्रों ने भी सिनेमा को एक नया मोड़ दिया। हालांकि संजय दत्त का खलनायक ऋएंटी हीरो इमेज को) दर्शकों द्वारा खासा पसंद किया गया। यानि इस दौर में भी हिंदी सिनेमा में युवाओं का चरित्र गीत-संगीत, प्रेम और हिंसा के त्रायी पर झूलता रहा। हिंदी सिनेमा की एक बड़ी खूबी रही है कि हर दौर में मुख्यधारा के सिनेमा के बरक्स एक समानांतर सिनेमा की परंपरा भी चलती रही। जो समय दर समय अपने मिजाज को और बेहतर करती रही। खान त्रायी के जादू के समय में भी सत्याऔर युवाजैसी फिल्में आयीं जिन्होंने महानगरीय युवा की एक दूसरी छवि गढ़ी जो अधिक चौकाऊं थीं। अंडरवर्ल्ड के भीतर का युवा और शहरी-शिक्षित मध्यवर्गीय युवा की इमेज प्रस्तुत करती इन फिल्मों ने फिर से उस मिथक को तोड़ा जहां इन युवाओं का चरित्र नान सीरियस फिर से बनने लगा था। लगानका भुवन जहां गंवई माहौल में एक लीडर के तौर पर उभरता है, वहीं नासा का भारतीय युवा वैज्ञानिक स्वदेशलौट अपने पढ़े-लिखे नौजवानों को ब्रेन ड्रेन के जाल से निकल आने को प्रेरित करता है। प्रेम इसमें भी कहीं बाहर नहीं जाता बल्कि वह मजबूती देने का आधार बनता है। दिल चाहता हैके युवक बर्गर, पित्जा खाते गोवा बीच और क्लबों में घूमते युवाओं को अलमस्ती का पाठ देते हैं। इस अलमस्ती के बीच भी यह पीढ़ी अपने समाज से शून्य नहीं है। वह सच का झंडा बुलंद करता है। आजाद मुल्क में इंडिया गेट पर एक अलग किस्म की सार्थक आजादी हेतु लाठियां खाता है और रंग दे बसंतीके माध्यम से नए समय के भगत सिंह, बिस्मिल आजाद के तौर पर उभरता है। यहां से हिंदी सिनेमा में युवा चरित्रों की छवियों ने गंभीर दिल को छू लेने वाली बुनियाद रखी। यह स्त्रियों से पशुवत व्यवहार नहीं करता, उन्हें बराबरी का दर्जा देता है।

मल्टीप्लेक्स फिल्मों की युवा छवि
21वी सदी में लड़कियां लड़कों से आगे निकल जायेंगी, यह सुनते-सुनते बड़े होते हमने फिल्मों में देख लिया, यहां देवदास निरुत्तर है। पारो अब रेत को मुट्ठी में नहीं पकड़ना चाहती (देव डी)। देवदास मरता नहीं, जीने की प्रेरणा देता है कि जियो क्योंकि जिंदगी बहुत खूबसूरत है। अनुराग कश्यप एक नए युवक देवदास को सामने लाते हैं। दिवाकर बैनर्जी ओये लकी, लकी ओयेमें उस युवक को सामने लाते हैं जो चोर है पर दुनिया सफेद कालर में उसकी भी बाप है। रजत कपूर जैसे नए लोग मिथ्याजैसी गंभीर फिल्म देते हैं जहां युवा के अपने सपनीले संसार नंगी और क्रूर सच्चाई में दम तोड़ देते हैं।

यह हमेशा से चलता आ रहा है कि युवा नायक अलमस्ती के आलम में कुछ गंभीर बातें कर जाता है। यह स्थिति अब भी है पर सिस्टम को लेकर अभी भी जो प्रश्न राजकपूर उठा चुके हैं उन्हीं, प्रश्नों को थोड़े और विस्तृत रूप में आज के नए निर्देशकों ने भी अपनी तरह से अपनी फिल्मों में उठाया है। फिल्म बनाने का तरीका काफी बदला है और कथा कहने, किरदार रचने का भी। फिर भी वर्तमान का हिंदी सिनेमा जगत ने इस युवा छवि को और भी बेहतर बनाया है। जाने-अनजाने इन फिल्मों ने हमारी युवा पीढ़ी को काम के ट्रेडिशनल रास्ते से अलग रास्ता चुनने को भी प्रेरित किया है। राक आनके युवक अपना बैंड बनाते हैं। समर 2010′ के युवक डाक्टर सुदूर देहात में जाकर प्रैक्टिस करते हैं। राजनीतिके युवक पारिवारिक विरासत को संभालने की लड़ाई लड़ते दिखते हैं। यह एक नए किस्म का उभार है।हिंदी सिनेमा ने एक नए तरह की युवा छवि रची है जो परम्परा और आधुनिकता में समन्वय करने में सक्षम है।

(सभी चित्र : विभिन्न स्रोतों से,गूगल इमेज के मार्फ़त : साभार)


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