भिखारी ठाकुर के मायने
“ठनकता था गेंहुअन तो नाच के किसी अँधेरे कोने से धीरे-धीरे उठती थी एक लंबी और अकेली भिखारी ठाकुर की आवाज़ ” कवि केदारनाथ सिंह की यह पंक्तियाँ भोजपुरी और पूरे पुरबियों के बीच भिखारी ठाकुर की लोकप्रसिद्धि का बयान ही है. प्रख्यात रंग-समीक्षक हृषिकेश सुलभ ने भी भिखारी ठाकुर की आवाज़ को ‘अधरतिया की आवाज़’ कहा है. जब भी भोजपुरी संस्कृति और कला-रूपों पर बात होती है, भिखारी ठाकुर का नाम सबसे पहले जुबान पर आता है. ऐसा होने की कई वाजिब वजहें हैं. भारतीय साहित्य और रंगजगत में ऐसे उदाहरण शायद ही मिले, जहाँ कोई सर्जक या रंगकर्मी प्रदर्शन के लगभग सभी पक्षों पर सामान दक्षता रखता हो और उसनें कहीं से कोई विधिवत शिक्षा न ली हो. अमूमन जितने भी रंगकर्मियों ने अपनी लोक-संस्कृति का हिस्सा होकर अपने रंगकर्म को विकसित किया अथवा उसको दूसरी संस्कृतियों से भी परिचय कराया, वह सभी किसी-न-किसी स्कूल के सीखे हुए, दक्ष और सुशिक्षित कलाकार थे. फिर चाहे वह महान रंगकर्मी हबीब तनवीर, एच.कन्हाईलाल या रतन थियम ही क्यों न हों. यहाँ इन पंक्तियों के लिखने का अभीष्ट बस इतना ही है कि यहाँ इन रंगकर्मियों से या उनके रंग...