चाचा चौधरी एंड कंपनी
पश्चिमोत्तर बिहार के उस जिले में बिजली का न होना रोजमर्रा की बात थी और पर इससे हम स्कूल गोइंग बच्चों को कोई शिकायत भी नहीं थी। रात को लालटेन की रोशनी में किताबों के बीच में आठ आने फी कॉमिक्स मिला करती और इसका गणित भी एकदम साफ़-सफ्फाक था। मसलन कॉमिक्स पाँच रुपये की तो उसका किराया उस मूल्य का दस फीसदी होता था यानी पचास पैसा। यह किराए का कॉमिक्स अट्ठारह से चौबीस घंटे के लिए लिया जाता था। जिसे जैसा है, वैसी ही हालत में लौटाया जाना अनिवार्य होता था। शहर में बेशक कॉन्वेंट और सरकारी स्कूलों के बच्चों के बीच के भेद को हम कई तरह से आंक सकते हैं पर कॉमिक्स के मामले में छात्र एकता का कोई सानी नहीं था। होता भी कैसे उन कॉमिक्सों के किरदारों ने हम सभी बच्चों में नाभि-नाल संबंध जोड़ा था। हम सबकी दिनचर्या लगभग एक-सी थी। दिन-भर स्कूल और शाम को हमलोग कभी अपने शहर के अभय पुस्तकालय तो कभी राज पुस्तकालय तो कभी किसी नई-नई खुली कॉमिक्स लाइब्रेरी से मनोज कॉमिक्स , राज कॉमिक्स , तुलसी कॉमिक्स , इंद्रजाल कॉमिक्स लाते थे , लेकिन इन सभी कॉमिक्स में जिस कॉमिक्स का क्रेज हममें सबसे अधिक था या यूँ कहें कि जिससे हम ...