लोक संस्कृति बरअक्स लोकप्रिय संस्कृति (राजीव रंजन गिरि)

रात नाच महोत्सव समिति, बिलासपुर लोक पर केंद्रित पत्रिाका 'मड़ई' का वार्षिक प्रकाशन करती है। यह पत्रिाका निःशुल्क वितरित होती है। डॉ. कालीचरण यादव के संपादन में इस पत्रिाका ने रचनाकारों-पाठकों के बड़े समुदाय को जोड़ा है। लोक के विभिन्न पहलुओं में दिलचस्पी रखने वाले पाठक यह पत्रिाका डॉ. कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना बिलासपुर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़- ४९५००१ को पत्रा लिखकर भेजने का आग्रह कर सकते हैं। लोक पर केंद्रित इस पत्रिाका के २४ अंक प्रकाशित हो चुके हैं। लिहाजा, आगामी अंक इसका रजत जयंती अंक होगा।
लोक के विभिन्न आयामों को समेटने वाली इस पत्रिाका का मौजूदा दौर में 'लोक' की प्रकृति, चरित्रागत बदलाव आदि को लेकर चिंता लाजिमी है। 'मड़ई' के चौबीसवें अंक के संपादकीय और कुछेक लेखों में इस पर विचार किया गया है। अपनी चिंता और सरोकार को शब्द देते हुए कालीचरण यादव ने लिखा है कि लोक संस्कृति एक अवधरणा के रूप में मनुष्य की सामूहिक चेतना की सहज अभिव्यक्ति है। वह मनुष्य के सामाजिक अनुभवों का सर्जनात्मक रूपांतरण है। लोक मंगल की कामना उसका सारतत्व है। उसकी वस्तु में जीवन की नैसर्गिक लय होती है। वह स्थानीय हो सकती है और उसमें मनोरंजन के भरपूर तत्व भी हो सकते हैं, परंतु उसका एक सामाजिक चरित्रा होता है। वह व्यक्ति को समूह के भीतर लाती है और उसका सर्वांगीण परिष्कार करती है। लोक संस्कृति में सार्वकालिक मानवीय मूल्य अंतर्निहित होते हैं। सामूहिकता उसकी सबसे बड़ी विशेषता है और सामाजिक सहकार उसका अर्थपूर्ण संदेश है। लोक संस्कृति की चिंताएं मानवीय होती हैं और इसीलिए वह मनुष्य को अध्कि सामाजिक और अध्कि मानवीय बनाती है। दरअसल वह सामूहिक रचनात्मकता का प्रतिपफल है। जिसे लोग सामूहिकता में ही पढ़ते हैं। वस्तुतः वह समूह की, समूह के लिए, समूह के द्वारा अभिव्यक्त सर्जनात्मकता है।
अब सवाल उठता है कि मौजूदा दौर में ऐसा क्या है द्घटित हुआ है कि लोक के प्रति लोगों की चिंता बढ़ गयी है। कहना न होगा कि यह लोकप्रिय संस्कृति है। लोकप्रिय संस्कृति यानि पॉपुलर कल्चर यानी पॉप कल्चर। इस लिहाज से देखें तो कहना होगा कि 'लोक संस्कृति' और 'लोकप्रिय संस्कृति' में पफर्क है। विचार योग्य बात यह है कि क्या 'लोकप्रिय संस्कृति' ;पॉपुलर कल्चर के अर्थ मेंद्ध 'लोक संस्कृति' का विस्तार, विकास अथवा अगला पड़ाव है? या 'लोक संस्कृति' के बरअक्स अपनी जगह बना रही 'लोकप्रिय संस्कृति' बिल्कुल प्रतिलोम है? आनेवाले समय में 'लोक संस्कृति' की जगह क्या 'लोकप्रिय संस्कृति' ही बचेगी? क्या 'लोकप्रिय संस्कृति' 'लोक संस्कृति' को लील जाएगी? इन सवालों पर विचार करने वाले बु(र्ध्मियों को 'मड़ई' के संपादकीय, सुरेंद्र वर्मा और प्रखर युवा आलोचक जयप्रकाश के आलेखों पर गौर पफरमाना चाहिए। बकौल कालीचरण यादव, 'हमारा समय बाजार के उत्कर्ष का समय है। आज सब कुछ का बाजार है और सब कुछ बाजार है।' यह सही है कि बाजार का अस्तित्व प्राचीन काल से ही रहा है परंतु पहले बाजार वस्तु विनिमय का केंद्र था। वह समाज की अनिवार्य आवश्यकता था। उसके माध्यम से मनुष्य और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। इसलिए पहले का बाजार एक स्वाभाविक और नैसर्गिक बाजार था। आज के बाजार को हम इस अर्थ में अस्वाभाविक और अप्राकृतिक कह सकते हैं कि वह पहले उपभोग की कृत्रिाम परिस्थितियां पैदा करता है। गौण वस्तुओं की आवश्यकताओं का आरोपण करता है। उसके द्वारा पोषित-पालित उपभोक्ता संस्कृति लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से पूरे समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करती है। इस बाजार की अपनी एक विचारधरा है। उसका अपना एक नियम है, शैली और शिल्प है। इस बाजार की अपनी एक संस्कृति होती है जो वास्तविक लोक संस्कृति के समानान्तर लोकप्रियता के नाम पर लोगों पर थोपी जाती है। लोकप्रिय संस्कृति को मुनापफे से जोड़कर देखा जाता है। वह बाजार के हितों के अनुकूल होती है। लोकप्रिय संस्कृति को प्रौद्योगिकी के माध्यम से लोकप्रिय बनाया जाता है। इस प्रकार लोक संस्कृति की समूहगत रचनात्मकता का विरूपण व अवमूल्यन किया जाता है। लोकप्रिय संस्कृति, लोक संस्कृति के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती है।
कालीचरण जी ने 'लोकप्रिय संस्कृति' को मोटे तौर पर बाजार की पैदाइश बताया है। गौर से देखने पर ज्ञात होता है कि 'लोकप्रिय संस्कृति' ;पॉपुलर कल्चरद्ध तीन मकार के सहारे पैदा और विकसित होती है। ये तीन मकार हैं- मनी, मार्केट और मीडिया। यही कारण है कि इन तीन मकारों के विकास और व्याप्ति के साथ-साथ 'लोकप्रिय संस्कृति' भी बढ़ती जा रही है और इसका दायरा विकसित होता जा रहा है। लोकप्रिय संस्कृति से लोक संस्कृति को मिलने वाली चुनौती के मद्देनजर इसकी सुरक्षा पर विचार करते हुए कालीचरण यादव ने इसरार किया है कि 'हमें लोक संस्कृति की सीमाओं को भी समझना होगा। लोक संस्कृति की समर्थता को रेखांकित करते हुए उसकी नयी अवधारणा विकसित करनी होगी, नए परिप्रेक्ष्य बनाने होंगे। अब लोक संस्कृति की शु(ता और मौलिकता का आग्रह बहुत प्रासंगिक नहीं रह गया है। लोक संस्कृति को काल सापेक्ष बनाना होगा। लोक संस्कृति को ऐतिहासिक विकास की निरंतरता से जोड़ना होगा। लोक संस्कृति रूढ़ियों और परंपराओं के दुहराव का नाम भर नहीं है। हमारी परंपरा में जो कुछ भी सुंदर है, जो कुछ भी सकारात्मक है, उसे आत्मसात करते हुए लोक संस्कृति को नई सर्जनात्मकता से जोड़ना होगा। हमारे समय की चिंताओं से जुड़कर ही वह सामूहिक सर्जनात्मकता को पल्लवित कर सकेगी। अतः जरूरी है कि लोक संस्कृति के नए प्रतिमान गढ़े जाएं, नई अवधरणाएँ विकसित की जाएं। आज के प्रतिकूल समय में लोक कला के विभिन्न रूपों में मानवीय चिंताओं के लिए स्पेस बनाना होगा। उसकी कालब(ता सुनिश्चित करनी पड़ेगी। जिससे हमारी लोक संस्कृति जन शिक्षण का माध्यम बन सकेगी। इस प्रकार वह अपने प्रतिरोधत्मक तेवर को अध्कि अर्थवान और धरदार बना सकेगी तथा बाजारोन्मुखी लोकप्रिय संस्कृति का सशक्त प्रतिपक्ष और विकल्प भी बन सकेगी।' गौर करने लायक बात है कि लोक संस्कृति 'बहता नीर' की तरह होती है। यह 'कूप जल' नहीं होती। हालांकि जो लोग लोक संस्कृति को 'कूप जल' की तरह समझते हैं, उन्हें भी यह सोचना होगा- जैसा कि कालीचरण जी ने बताया है- कि यह रूढ़ियों और परंपराओं के दुहराव का नाम भर नहीं है। मोटे तौर पर कालीचरण जी की बात ठीक है, पर गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि रूढ़ि भी परंपरा नहीं होती। रूढ़ि और परंपरा में भी पफर्क है। परंपरा ऐतिहासिक विकास क्रम में बदलती-परिवर्तित होती जाती है। जबकि रूढ़ि तो है ही रूढ़ि, यह बदलती नहीं है।
इस लिहाज से देखें तो 'कूप जल' भी शब्द के सच्चे अर्थों में रुढ़ि नहीं है। कारण कि 'कूप जल' नित्य नया, ताजा होता रहता है। कुंए में अपने जल की मात्राा को बढ़ाने और निथारकर सापफ करने की क्षमता होती है। 'कूप जल' की जड़ें गहरी होती हैं। ऊपर से भले 'कूप जल' प्रवाहित होते न दिखे पर वह प्रवाहमान होता है। बहरहाल, नए बदलते माहौल में 'लोक संस्कृति' भी बदलेगी और अर्थवत्ता ग्रहण करेगी।
आलोचक जयप्रकाश ने इस मुद्दे को ठीक नोट किया है कि लोक संबंध्ी चिंताएं दो भिन्न ध्रातलों से उठ रही हैं, एक तरपफ लोक के प्रति संरक्षणवादी विचार-दृष्टि है, दूसरी ओर समर्पणवाद है। संरक्षणवादी इस लोक संस्कृति की रक्षा की गुहार लगाते हुए व्याकुल हैं जिसका स्वभाव ही निरंतर बदलाव का है और जो शु(ता के आग्रह का सदैव तिरस्कार करती है, बाहरी प्रभावों के प्रति वह अत्यंत संवेदनशील होती है और उन्हें ग्रहण कर निरंतर पुनर्नव होती है- सच कहा जाए तो उसकी जीवनी-शक्ति का स्रोत उसकी साभ्यतिक संवेदनशीलता में छिपा है। दूसरी तरपफ समर्पणवादी उस लोक संस्कृति को पूंजी-नियंत्रिात और बाजार-केंद्रित भोगवाद की आंध्ी में झोंक देना चाहते हैं जो वैयक्तिक सुखमय की बजाय सार्वजनिक आनंदवाद को लक्ष्यीभूत है- जिसका बुनियादी सरोकार लोकमंगल है। वे मान बैठे हैं कि मॉस कल्चर का प्रतिरोध् संभव नहीं रह गया है। इसलिए यदि वह लोक को लील ले तो यह अंचरज की बात न होगी।
अपने अपने तालिबान
आलोक कुमार सातपुते ने लद्घुकथा को अपनी रचनात्मकता की प्रमुख विधा बनाया है। 'अपने-अपने तालिबान' ;नवचेतन प्रकाशन, दिल्लीद्ध इनकी लद्घुकथाओं का संग्रह है। लद्घुकथा की विशेषता यह होती है कि इसके जरिए रचनाकार अपना विचार, अपना संदेश बेहद कम शब्दों में सीधे-सीधे पाठकों तक पहुँचा देता है। सातपुते की लद्घुकथाएँ भी इसी लिहाज से सपफल हैं। इन लद्घुकथाओं में भारतीय समाज में पफैली विसंगतियों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों और वर्चस्ववादी ताकतों की कलई उतारी गई है। इन लद्घुकथाओं में कहीं हास्य है तो कहीं व्यंग्य की धार, जो कभी चिकोटी काटती हैं तो कभी तिलमिला देती है।
आलोक कुमार सातपुते की लद्घुकथाओं की इन विशेषताओं के साथ कुछ कमजोरियों पर भी बात करनी जरूरी है। सातपुते का मानना है कि 'साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा लद्घुकथा के बारे में कापफी सारी बातें कही जाती हैं। कोई इसको चुटकलेबाजी बताता है, तो कोई इसे साहित्य में प्रवेश का बैकडोर कहता है। वास्तव में यह लद्घुकथा को हाशिए पर ले जाने के षड्यंत्रा के तहत बुर्जुवा वर्ग के साहित्यकारों द्वारा पफैलाया गया भ्रमजाल है।' अव्वल तो यह है कि सातपुते के इस मत का आधार क्या है कि लद्घुकथा ही सबसे लोकप्रिय विधा है? साथ ही इसे हाशिए पर ले जाने का षड्यंत्रा बुर्जुवा वर्ग के साहित्यकार कर रहे हैं? जरा सोचिए अगर ये षड्यंत्रा है भी तो इसका बुर्जुवा वर्ग से क्या मतलब? आखिरकार वो कौन कौन से लोग हैं जो इसमें शामिल हैं। बहरहाल इस तर्क हीन बातों के बारे में क्या कहा जाए? इसी तरह 'तुलसी दास का कोर्ट मार्शल' लद्घुकथा में सातपुते का दलित पात्रा कवि तुलसीदास पर आरोप लगाता है कि 'आपने राम को अपने ही जैसा ब्राह्मणवादी बना दिया, और उसके हाथों शूद्र शंबूक का वध करवा दिया।' अब कौन बताए सातपुते जी को कि तुलसीदास के 'रामचरितमानस' में शंबूक वध का प्रसंग ही नहीं है। वाल्मीकि, भवभूति से तुलसी दास की काव्य यात्राा में इस प्रसंग में आये बदलाव के जरिए बदलते ऐतिहासिक सामाजिक परिपे्रक्ष्य को समझा जा सकता है। आलोक कुमार सातपुते ने बगैर जाने समझे इस पर लद्घुकथा लिख दी। बहरहाल...। 

डॉ.राजीव रंजन गिरि  द्वारा लिखित यह लेख साभार लिया गया है 

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