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हिंदी नाटक और रंगमंच का शिक्षण और शोध की दिशाएँ

हिंदी साहित्यांतर्गत जबसे नाटक और रंगमंच का शिक्षण महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में होना शुरू हुआ, तबसे ही संभवतः इसके प्रायोगिक पक्ष, जो कि इसका सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण पक्ष है, को जाने-अनजाने उपेक्षित रखा गया है . इतना ही नहीं पुराने अथवा क्लासिक कहे जाने वाले नाटकों के ही नहीं बल्कि आधुनिक नाटकों, जो अधिक प्रदर्शित हुए और खेले गए हैं, उनका भी शिक्षण अधिकांशतः दास्तानगोई पद्धति से ही होता रहा है और उनपर शोध टेक्स्ट केन्द्रित ही अधिक होता रहा है. फ्रेड मैक्ग्लेन ने कहा है कि ‘टेक्स्ट(पाठ) में बंद अभिनेता को आजाद किया जाना चाहिए और सहभागिता के मंच को पुनः बनाना चाहिए. ’ [1] अकादमिक शिक्षण और शोध के संदर्भ में यदि मैक्ग्लेन की इस बात कि ‘टेक्स्ट में बंद अभिनेता को आजाद किया जाना चाहिए’ से पूरी तरह सहमत ना हुआ जाए तो भी हम सभी इतना तो अवश्य देखते हैं कि नाटक के शिक्षण और शोध में ऐसे कई प्रश्नों से हम लगातार अपने पढ़ने के संदर्भ में जूझते हैं, जो मूलतः प्रस्तुति-प्रक्रिया के दायरे में आते हैं. मसलन, जब शिक्षण में प्रसाद के नाटकों की रंगमंचीयता, नाटकों की पाठ-प्रस्तुति, प्रस्तुत...

औपनिवेशिक समय, भोजपुरी परिवेश और भिखारी ठाकुर का उदय

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                 भिखारी ठाकुर का रंगकर्म भोजपुरी लोकजीवन की विविध पक्षों का साहित्य है और उनका नाट्य भोजपुरी लोकजीवन की सांस्कृतिक पहचान. उनके रचनाओं और रंगकर्म में एक पूरी सामाजिक परंपरा और इतिहास के दर्शन होते हैं. किन्तु संस्कृति के बहसों का अभिजन पक्ष इन्हें परे ही रखता आया है. इसकी वजह स्पष्ट है क्योंकि ‘ इतिहास निरूपण में अभिजात्यवर्गीय सोच के इतिहास ने सदा ही संभ्रांतवर्ग की पक्षधरता निभाई है. वह गाँव के बजाय सत्ता केंद्रों की विषयवस्तु रहा है. ’ [1] यद्यपि इतिहास और साहित्य के भीतर नए विमर्शों के उभार ने अब इतिहास और साहित्य की नयी व्याख्या लिखनी शुरू की हैं. फलस्वरूप अब तक जो परे था , उसे केंद्र में जगह मिल रही है. भिखारी ठाकुर इसी हाशिये के किनारे से मध्य की उपस्थिति के रूप में नजर आते हैं. उन्होंने भारतीय परिवेश में बीसवीं सदी के विमर्शों को बिना किसी पश्चिमी प्रभाव में आये केवल स्वानुभूति से अपने रंगकर्म में शामिल किया.               भोजपुर अंचल के स...