औपनिवेशिक समय, भोजपुरी परिवेश और भिखारी ठाकुर का उदय
भिखारी
ठाकुर का रंगकर्म भोजपुरी लोकजीवन की विविध पक्षों का साहित्य है और उनका नाट्य
भोजपुरी लोकजीवन की सांस्कृतिक पहचान. उनके रचनाओं और रंगकर्म में एक पूरी सामाजिक
परंपरा और इतिहास के दर्शन होते हैं. किन्तु संस्कृति के बहसों का अभिजन पक्ष
इन्हें परे ही रखता आया है. इसकी वजह स्पष्ट है क्योंकि ‘इतिहास निरूपण में
अभिजात्यवर्गीय सोच के इतिहास ने सदा ही संभ्रांतवर्ग की पक्षधरता निभाई है. वह
गाँव के बजाय सत्ता केंद्रों की विषयवस्तु रहा है.’[1] यद्यपि इतिहास और साहित्य के भीतर नए विमर्शों के उभार ने अब इतिहास और
साहित्य की नयी व्याख्या लिखनी शुरू की हैं. फलस्वरूप अब तक जो परे था, उसे केंद्र में जगह मिल रही है. भिखारी ठाकुर इसी हाशिये के किनारे से
मध्य की उपस्थिति के रूप में नजर आते हैं. उन्होंने भारतीय परिवेश में बीसवीं सदी
के विमर्शों को बिना किसी पश्चिमी प्रभाव में आये केवल स्वानुभूति से अपने रंगकर्म
में शामिल किया.
भोजपुर अंचल के समाज और लोकजीवन को
भिखारी ठाकुर के रचनाधर्मिता को उनके समय की दो अलग-अलग स्थितियों में हम स्पष्टत:
देख सकते हैं. पहला, औपनिवेशिक दासता से प्रभावित भोजपुर और जीवन के बहुविध अभावों से घिरा
भोजपुर. दरअसल अनेक विषमताओं से भरा भोजपुरी समाज अंदरूनी और बाहरी दोनों तरह के
उत्पीड़नों का साक्षी रहा है. “औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन, जमींदारों के वर्ग उत्पीड़न के खिलाफ रैयतों/किसानों का वर्ग आन्दोलन,
सामाजिक सोपानों में शीर्ष पर बैठी उच्च जातियों के सामाजिक उत्पीड़न
के खिलाफ पिछड़ी/दलित जातियों का सामजिक आंदोलन – बीसवीं सदी
का बिहार इन तीन तरह के आंदोलनों का महत्वपूर्ण क्रियास्थल रहा है.’[2] लेकिन बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध बिहार के लिए राजनीतिक स्तर पर तो
सक्रियता का समय है, पर सामाजिक स्तर पर स्थिति कोई बहुत
अच्छी नहीं थी. कारण स्पष्ट था कि वर्ण-व्यवस्था और सामंतशाही अपने तीखे और
प्रभावी रूप में सक्रिय थी. इसी के भीतर से रंगकर्मी भिखारी ठाकुर निकलकर आये थे.
एक तो हाशिए का व्यक्ति, उसमें भी जाति से नाई भिखारी ठाकुर के लिए यह शोषण आधारित
व्यवस्था जानी-पहचानी थी.
औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के कारकों और
प्रचलित सामाजिक श्रेणीकरण के मेल से बने सामाजिक सोपान की इस व्यवस्था के शोषण का
तंत्र भी अपने क्रूरतम रूप में सक्रिय था. भोजपुरी लोकजीवन और समाज अपने राजनीतिक
परिवेश से नावाकिफ नहीं था. लेकिन यह भी बड़ी सच्चाई थी कि इस समाज के सामने जीवन
जीने के संघर्ष का प्रश्न भी मुँह बाये खड़ा था. पलायन का दंश यहाँ घर-घर में
व्याप्त था. इसके निहित कारण कई थे. यह पलायन मजबूरी थी या शौकिया यह बाद की बात
है पर भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह अंचल
गंगा, घाघरा और गंडक से आसपास बसा हुआ है. इसलिए यह दुहरी मार से ग्रस्त था. एक
प्राकृतिक और दूसरा राजनीतिक,जिसके परिणामस्वरूप भोजपुरिये गभरू जवानों का पूरब
देश के चटकल/जूट मीलों में काम करना मजबूरी भी थी. एक और बड़ा कारण था कि भोजपुरी
अंचल का कास्तकार वर्ग मजदूरी में नकद के बदले अनाज देता था. जबकि बंगाल से लौटे,
‘बिदेसियों’ को वहाँ नकद मिलती थी. ऎसी ही
स्थिति में पेशेवर नाई भिखारी ठाकुर का प्रवासन बंगाल की ओर हुआ. भिखारी ठाकुर के
प्रवसन के पीछे भी कई तरह की स्थितियाँ काम कर रही थीं. पहली यह कि 1914 में भीषण
अकाल पड़ा था और अकाल बीता तो 1934 का भूकंप सामने आ गया था. एक दूसरा आर्थिक पक्ष यह
था कि कामगारों को मजदूरी नकद चाहिए थी, जो कलकत्ता जैसे महानगर में ही संभव था. वैसे
भी ‘सारण में बड़े पैमाने पर प्रवास का लंबा इतिहास रहा था.
इसके कारण यहाँ की निचली जातियों को सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और राजनीति का अपना ही
रूप विकसित करने का अवसर मिला.[3]
सो, भिखारी ठाकुर भी तमाम भोजपुरियों के उम्मीदों के शहर कलकत्ता की ओर चल
पड़े.
इन परिस्थितियों में भिखारी ठाकुर का
आजीविका के लिएकी ओर जाना आजीविका का एक रास्ता बना और दूसरा ‘जात्रा’ ‘रामलीला’ ‘अंकिया’ से प्रथम
परिचय उनके जीवन के उस सांस्कृतिक अभाव को एक दिशा दे गया, जिसकी
अभिव्यक्ति का माध्यम ‘बिदेसिया’ के
साथ सामने आया. भिखारी ठाकुर ने लिखा है “गइलीं मेदिनीपुर के
जीला/ओहिजे देखली कुछ राम-लीला.”[4] लेकिन यह भी एक बड़ा सत्य है, कि इस दौरान ‘पूरब’ गए, भूमिपुत्रों का
दुहरा निर्वासन हुआ. एक उनकी स्त्रियों के लिए जो अधिक कारुणिक और संघर्षशील रहा
और दूसरा स्वयं उनके लिए. भोजपुर अंचल के समाज की इस दारुण-दशा को भिखारी ठाकुर की
कला का प्रश्रय और आवाज़ मिली.
इस विषम परिवेश में उपजे एक
लोककलाकार और उसकी सांस्कृतिक क्रिया के उभार के विषय में धनञ्जय सिंह ने अपने शोध
में लिखा है– “भिखारी ठाकुर के बिदेसिया का उद्भव केवन श्रम पलायन से नहीं हुआ, वरन् संस्कृति-उत्पादन की परंपरा का भी उसमें योगदान है. यह सोलहों आना सच
है कि बिदेसिया का निर्माण शहर(Destination) और गाँव(Origin) की संस्कृति के मेल से हुआ है...जब बंगाल में पुनर्जागरण का दौर था और
सांस्कृतिक नाट्य-शैलियों के द्वारा जनमानस में शोषणमुक्त समाज होने के लिए जागृति
पैदा की जा रही थी. उन्हीं लोकसांस्कृतिक नाट्य-शैलियों से प्रेरित होकर भिखारी
ठाकुर ने भी नाट्य-मण्डली की स्थापना की बात सोची.”[5]अब रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के लिए धनोपार्जन, लोकरंजन,
लोकोपदेश आदि भाव उनके रंगकर्म और मंचीय प्रदर्शन के भीतर समाहित
होने लगे. इन विषम परिस्थितियों में एक लोक कलाकार अपना आकार ले रहा था और इसके
फलस्वरूप उपजा रंगकर्म उसके देशकाल, वातावरण की सच्चाईयों का
आईना था.
एक और बात ध्यान देने की है कि
भिखारी ठाकुर बीसवीं सदी के रंगकर्मी थे और यह सदी ऐतिहासिक तौर पर कई तरह के
क्रांतिकारी परिवर्तनों, हलचलों का दौर रहा है. ऐसे ही समय में कामगार भिखारी
ठाकुर का ट्रांस्फोर्मेशन रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के रूप में हुआ और जो कुछ भी
उन्होंने सिरजा वह भारतीय पारंपरिक रंगमंच की अविरल धारा का एक अनिवार्य अंग बन
गया. इसकी वजहें कई थी. अपने सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ मशाल उठाने वाले इस
रंगकर्मी पर अपने पारंपरिक मूल्यों की भी छाप थी. इसलिए वह अपने विरासत में मिले
इन मूल्योंके बावजूद जड़ता के, यथास्थितिवाद के पैरवीकार न होकर प्रयासों में खालिस
प्रगतिशील थे. भिखारी ठाकुर ने नाच मण्डली से जीवनयापन और उसी नाच के मंच से
लोकोपदेश और जन-जागरण का कार्य किया, जिसकी आज के सन्दर्भों में भी सार्थकता
निर्विवादित है.
सच कहें तो ‘साहित्यकार जिस
देशकाल में जन्म ग्रहण करता है, उस पर उस समय के सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक परिवेश का प्रभाव पड़ता है. यह प्रभाव किसी-न-किसी
माध्यम से उसके रचनाओं में रूपायित होता है.खासकर, माध्यम के
रूप में परम्पराएँ लोकरुचि और कल्पना आदि ही होती हैं. अतः जब साहित्यकार अपने ही
क्षेत्र में योग्यता, क्षमता तथा शिल्प के कारण अपनी पहचान
बनाता है, तो ऐतिहासिक महत्त्व ग्रहण करता है.’[6] भिखारी ठाकुर इसके अपवाद नहीं थे. इसके अलावा मौखिक परंपरा में भी कुछ सूत्र
भिखारी ठाकुर को मिले होंगे, जिससे उनका सांस्कृतिक पक्ष और सुगठित हुआ. उनसे पहले
गोपालगंज के हथुवा महाराज के दरबार की सुन्दरी बाई और दुनिया बाई, दोनों बहनों के
गीत और रसूल अंसारी[7] के
नाच की परंपरा भी उनके सामने थी. उन्होंने सुंदरी बाई के ‘बटोहिया’
और ‘परदेसी की बात’ के
सूत्र लिए थे और रासुहाग सिंह को दिए एक इंटरव्यू (संभवतः यह भिखारी ठाकुर का
एकमात्र इंटरव्यू था) में इसकी स्वीकारोक्ति की है -“मैंने
बिदेसिया नाम सुना था, परदेशी की बात आदि के आधार पर मैंने
बिरहा-बहार बनाया.”[8]वैसे भारतीय रंगजगत में ऐसे उदाहरण शायद ही मिले, जहाँ कोई सर्जक या
रंगकर्मी प्रदर्शन के लगभग सभी पक्षों पर समान दक्षता रखता हो और उसने कहीं से भी
विधिवत् शिक्षा न ली हो. आमतौर पर अधिकांश रंगकर्मी, जिन्होंने अपने लोकरंग को
अपने रंगकर्म का आधार बनाया, वह सभी कहीं-न-कहीं किसी स्कूल के दीक्षित कलाकार थे.
फिर चाहे वह महान रंगकर्मी हबीब तनवीर, एच. कन्हाईलाल या रतन थियम ही क्यों न हों.
यहाँ इन पंक्तियों का अभीष्ट भारतीय रंगजगत के इन महान विभूतियों से भिखारी ठाकुर
की तुलना करना नहीं है, न ऐसा किया जा सकता है. ये सभी रंगकर्मी अलग-अलग
परिस्थितियों में अपनी-अपनी लोकसंस्कृति को अपनी कला के मार्फ़त रंग-समुदाय के
समक्ष पेश कर चुके हैं और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. पर जब भिखारी ठाकुर के
संदर्भ में जब इनका जिक्र किया जा रहा है, तब इसका अर्थ केवल एक ही है कि इन
रंगकर्मियों ने भी अपनी लोकसंस्कृति को अपने रंगकर्म का माध्यम बनाया. अपने समय
में में भिखारी ठाकुर भी यही कर रहे थे. एक दूसरी बात यह भी है कि भिखारी ठाकुर को
न तो कोई विधिवत शिक्षा मिली थी और न ही वह किसी विरासत के उत्तराधिकारी रहे. उनके
रंगकर्म का आधार पूरबी प्रान्तों के प्रदर्शनकारी कलारूप और भोजपुर अंचल में
प्रचलित रंग-परम्पराओं ने भिखारी ठाकुर को प्रेरणा दी तथा समाज और मंच पर कुछ
अनूठा करने की अकूत लालसा ने उनके भीतर के रंगकर्मी को एक विशिष्ट भावबोध एवं स्थान
दिया. उनका रंगकर्म किसी एक फ्रेम में बाँधकर नहीं देखा जा सकता क्योंकिभोजपुरी
अंचल के रंग-परिवेश की परिकल्पना भिखारी ठाकुर के उदय से पूर्व क्या थी, यह
ठीक-ठीक स्पष्ट नहीं. हाँ! इतना जरुर है कि लौंडा नाच, नेटुआ, जट-जटिन सामा-चकेबा,
झिंझिया, पंवरियाँ, लोरिकायन, गोड़उ नाच, घंटी कछ्नाया आदि भोजपुरी समाज में पहले
से प्रचलित थे जिन्होंने भिखारी ठाकुर के रंगकर्म को और समृद्ध किया.
भिखारी ठाकुर के पास किसी सांस्थानिक
मंच से परे अपना मंच था, जिसकी बुनियाद पर भिखारी ठाकुर की खांटी पेशेवर रेपर्टरी
काम कर रही थी.जब हम भिखारी ठाकुर के संदर्भ में पेशेवर रेपर्टरी की बात कर रहे
हैं तो यह बात याद रखनी होगी कि भिखारी ठाकुर ने सामाजिक सम्मान(व्यक्तिगत) की जगह
अपने रंग-प्रदर्शन को वरीयता दी. यह भी कहा जा सकता है कि बेशक रसूल मियाँ का नाच
भोजपुर अंचल में भिखारी ठाकुर से पहले मशहूरियत पा चुका था और भोजपुरी साहित्य के
अध्येताओं को रसूल भिखारी ठाकुर के अग्रवर्ती कवि/सर्जक लगें पर अपनी निरंतरता और
वैविध्यमयी प्रदर्शन परंपरा तथा कौशल की वजह से भिखारी ठाकुर की मण्डली को संभवतः भारतीय
रंगमंच की लोक परंपरा की पहली पेशेवर मंडली कहा जा सकता है.
बहरहाल, जब हम भोजपुरी लोक जीवन के
परिवेश और औनिवेशिक समय में भिखारी ठाकुर के रंगकर्म एवं रचनाशीलता को देखते हैं
तब यह पाते हैं कि उनकी रचनाओं और उनके प्रदर्शनों में “भारतीय राष्ट्रवाद पर
उपनिवेशवाद द्वारा खड़े किये गए राजनीतिक, आर्थिक तथा
सांस्कृतिक तीनों चुनौतियों के मुकाबले का माद्दा एवं चेतना मौजूद है, जबकि 1920 के बाद की स्वीकृत हिंदी कविता अपने को मात्र राजनीतिक तथा
सांस्कृतिक चुनौतियों की ही आलोचनात्मकता तक सीमित रखती हैं.”[9]रंगसर्जक भिखारी ठाकुर यहीं पर आगे निकल जाते हैं. उनका साहित्य और
रंगकर्म आम जन की पीड़ा, लोकजीवन के उल्लास की संस्कृति और
स्त्रियों के सुख-दुःख के संवेदनशील पक्षधर के रूप में आता है. यही वजह है कि अपने
परिवेश से प्रेरणा और शिक्षा ले भिखारी ठाकुर अपने रंगकर्म से भोजपुर अंचल के समाज
और जीवन के चितेरे बन जाते हैं और उनका व्यक्तित्व भोजपुर के सांस्कृतिक महानायक
का आकार ग्रहण कर लेता है. इस बात में को शक नहीं होना चाहिए कि भिखारी ठाकुर अपने
रंग कौशल में मात्र भोजपुरी के रंगकर्मी नहीं रह जाते. उनकी रचनाएँ और उनसे
निर्मित रंगपाठ अपने ही बनाये दायरों से बाहर की सार्थक गाथा कहने लगते हैं. इसलिए
भोजपुरी अंचल के रंग-इतिहास ही नहीं बल्कि जातीय संस्कृति का इतिहास लेखन भी
रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के बिना पूरा नहीं हो सकता, वह भोजपुरी जातीयता के रंगमंच की
अनिवार्य उपस्थिति हैं. किसी रंगकर्मी के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी कि उसका
रंगकर्म कालान्तरण करके आज के संदर्भों को भी अपने पाठ में समाहित करता है. भिखारी
ठाकुर का रंगकर्म इसी की एक बानगी है.
..................
(नटरंग खंड-25, अंक - 55 जनवरी-जून 2015 में प्रकाशित )
(मोडरेटर की सहमति के बिना इस ब्लॉग का कोई भी अंश/लेख आदि प्रयोग में न लाएँ। इस संबंध में makpandeydu@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। सादर - मोडरेटेर, जन्नत टाकीज़)
[1]संपादकीय, लोकरंग-1,सं.सुभाष चंद्र कुशवाहा,
सहयात्रा
प्रकाशन प्रा.लि., दिलशाद गार्डन, दिल्ली-95,
पहला
सं.2009, पृ.1.
[2]फ्लैप, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ
आयाम,
प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत,वाणी प्रकाशन,
नई
दिल्ली-2.
[3]चंद्रशेखर, लोकप्रिय संस्कृति का द्वंद्वात्मक समाजशास्त्र, संदर्भ:
बिदेसिया, सांस, जसम, अशोक नगर, इलाहाबाद-211001, उत्तर
प्रदेश, प्र.सं.2011,पृ.48.
[5]सिंह, धनञ्जय,
लोकधर्मी
नाट्य परंपरा और भिखारी ठाकुर का नाट्य साहित्य, हिंदी विभाग,
दिल्ली
विश्वविद्यालय,पृ.119,
अप्रकाशित
[6]चौधरी, केदार, भिखारी ठाकुर के नाटकों में लोकजीवन,एम.फिल.(1991),
लघु
शोध-प्रबंध, जवाहरलाल
नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली,पृ.70.
[7]सुभाषचंद्र कुशवाहा ने ‘लोकरंग-1’
में
रसूल अंसारी पर एक लंबा शोधपरक लेख लिखा है. वहीं डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने अपनी
पुस्तक ‘आधुनिक
भोजपुरी के दलित कवि और काव्य’ में रसूल अंसारी को भिखारी ठाकुर के
पूर्ववर्ती परंपरा का कलाकार ठहराया है.
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