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Showing posts from August, 2011

सलवा जुडूम के मुल्क में बस्तर बैंड...

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बस्‍तर हम सब जानते हैं. पर उस बस्‍तर का अर्थ परेशान करता है. मुन्‍ना पांडे ने बस्‍तर का एक दूसरा अर्थ हमारे सामने रखा है: बस्‍तर बैंड. लोक परंपरा की जीवंत मिसाल. ठेठ देसी. अगर कुछ गौरवशाली हो सकता है परंपराओं में, तो बस्‍तर बैंड बेशक उनमें से एक है. मुमकिन है, हिंदुस्‍तान के मुख्‍तलिफ हिस्‍सों में और भी ऐसी कलाएं मिसाल बनने की स्थिति में आ पहुंची होंगी. उन्‍हें फिर से जीवंत बनाना हमारे समय की बड़ी चुनौतियों में से एक है. तय है कि इमदादों से ये काम नहीं होगा. इमदाद धरोहर बना सकते हैं, दीर्घाओं में कलाओं की नुमाइश लगा सकते हैं, या फिर म्‍युजियम में कैद कर सकते हैं. जरूरत इन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की है, डायनमिक बनाने की है. दिलचस्‍पी और इच्‍छाशक्ति जरूर इस दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं. बहारें वापस आ सकती हैं. बहरहाल, सरोकारियों से गुजारिश है कि वे इस दि शा में कुछ सकारात्‍मक पहल लें. वोलंटियर करें. पहले चरण में दस्‍तावेजीकरण का काम तो हो ही सकता है. ये पता तो चले कि हमारी लोक कलाओं में कितने रंग थे, कितने रह गए और कितने रह जाएंगे. अगले दौर में उनके पुनर्जीवन के रास्‍ते पर स...

सामा-चकेबा - मिथिलांचल की गौरवशाली परंपरा

' (लोक संस्कृति  की समृद्ध विरासत  बिहार    की भूमि में सदा-सर्वदा से गहरे विद्यमान रही है | आज का नवयुवक एक तरफ तो उत्तर औपनिवेशिक  समय में मज़बूरी वश अपनी सांस्कृतिक जड़ों  से कटता जा रहा है  या कटने को विवश है  तो दूसरी तरफ हमारी लोक परंपरा पर भी खतरे की तलवार लटक ही है | इसके पीछे निश्चित ही बाज़ार और उसकी शक्तियां हैं पर बिहार की सांकृतिक छवि को जन-जन तक और विशेषकर युवाओं तक पहुँचाने का जिम्मा बिहार के संस्कृति मंत्रालय ने उठाया है | हमें उनके इस प्रयास को सराहना चाहिए | उन्होंने बिहार की सांकृतिक पहचान बनाते कुछ लोक परम्पराओं पर अपनी पुस्तिका 'बिहार विहार'निकाली है जिसमे  इन कला रूपों का परिचयात्मक विवरण है | यहाँ मिथिलांचल की गौरवशाली परम्परा 'सामा-चकेबा'पर उसीसे एक अंश  साभार ...) सामा चकेबा'एक प्रकार का 'कंपोजिट' आर्ट है | इसमें मिटटी की बनी अनगढ़ मूर्तियाँ,बाँस के हस्तशिल्प,लिखियार,मिथिला पेंटिंग,गायन,सांस्कारिक अनुष्ठान,नृत्य,अभिनय आदि सब कुछ एक साथ रूपाकार होता है,जो इसे बेहद आकर्षक दृश्यात्मकता प्रदान ...

बेवजह का कुकुरहांव "आरक्षण" पर

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आरक्षण रिलीज हो चुकी है और पिछले हफ्ते तक जो सम्मानीय बंधू इसके विपक्ष में हल्ला बोल किये हुए थे और सर- फुटौव्वल पर आमादा थे,उन्हें अब तक तो यह मालूम पड़ गया होगा कि यहाँ मामला वैसा नहीं था,जैसा उन्होंने अंदाजा लगाया था याने खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात आरक्षण पर सोलह आने फिट बैठती है आरक्षण देखकर यह लगता हैं कि जिस शख्स का नाम प्रकाश झा है,क्या उसकी क्रियेटिविटी को दीमक लगने लगे हैं ? क्या ये वही फिल्मकार है जिसने दामुल,मृत्युदंड जैसी फिल्में दी थी ? पता नहीं हमारा सिनेमा एक ख़ास किस्म के आदर्शवादिता को क्यों ढ़ोता है फिल्म का नायक आदर्शवादी प्रिंसिपल प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन ) आरक्षण के पक्ष में बोलकर और सच के पक्ष में खडा होने की वजह से अपने पद और संस्थान से निकाल दिया जाता है उसके दलित स्टुडेंट और फिल्म के दूसरे नायक दीपक कुमार(सैफ अली खान) उसके साथ आकर उसके तबेला स्कूल को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर सँभालते हैं और यहाँ से यह फिल्म अपने मूल मुद्दे से भटक जाती है आरक्षण का जरूरी मुद्दा कहीं और चला जाता है फिल्म प्राईवेट कोचिंग और प्राईवेट शिक्षा संस्थानों की पैरेरल व्य...