बेवजह का कुकुरहांव "आरक्षण" पर
आरक्षण रिलीज हो चुकी है और पिछले हफ्ते तक जो सम्मानीय बंधू इसके विपक्ष में हल्ला बोल किये हुए थे और सर- फुटौव्वल पर आमादा थे,उन्हें अब तक तो यह मालूम पड़ गया होगा कि यहाँ मामला वैसा नहीं था,जैसा उन्होंने अंदाजा लगाया था
याने खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात आरक्षण पर सोलह आने फिट बैठती है
आरक्षण देखकर यह लगता हैं कि जिस शख्स का नाम प्रकाश झा है,क्या उसकी क्रियेटिविटी को दीमक लगने लगे हैं ? क्या ये वही फिल्मकार है जिसने दामुल,मृत्युदंड जैसी फिल्में दी थी ? पता नहीं हमारा सिनेमा एक ख़ास किस्म के आदर्शवादिता को क्यों ढ़ोता है
फिल्म का नायक आदर्शवादी प्रिंसिपल प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन ) आरक्षण के पक्ष में बोलकर और सच के पक्ष में खडा होने की वजह से अपने पद और संस्थान से निकाल दिया जाता है
उसके दलित स्टुडेंट और फिल्म के दूसरे नायक दीपक कुमार(सैफ अली खान) उसके साथ आकर उसके तबेला स्कूल को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर सँभालते हैं और यहाँ से यह फिल्म अपने मूल मुद्दे से भटक जाती है
आरक्षण का जरूरी मुद्दा कहीं और चला जाता है
फिल्म प्राईवेट कोचिंग और प्राईवेट शिक्षा संस्थानों की पैरेरल व्यवस्था की ओर चल देती है
बीच-बीच में फिल्म कहीं-कहीं वर्गभेद के मुद्दे को छूती है पर वह आरक्षण के मुद्दे से कतई मेल नहीं करता
आरक्षण की जितनी भी डिबेट प्रकाश झा से या उनकी समझ से संभव थी,उतनी उन्होंने पहले हाफ में रख छोड़ी है
कायदे से फिल्म के जिस हिस्से से आरक्षण समर्थक वर्ग को दिक्कत होनी चाहिए उस ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा
फिल्म का एक दृश्य है कि दलित शिक्षक और नायक दीपक कुमार ,अपने शिक्षक प्रभाकर आनंद के मामले में अपने इलाके के दलित नेता से सहयोग मांगता है पर वह शिक्षा मंत्री ( सौरव शुक्ला)के आगे बिक जाता है इतना ही नहीं वह अपनी कुर्सी के सपने के लालच में उस सवर्ण मंत्री और प्रतिनायक मिथिलेश सिंह (मनोज बाजपेयी ) के आगे मिमियाने वाले अंदाज़ में चित्रित हुआ है
क्या निर्देशक इसको दिखा कर इस वर्ग को यह सन्देश देना चाहता था कि देखो आपके वर्ग का प्रतिनिधि कितनी संकीर्ण सोच (फिल्म में जिसे मंद बुद्धि कहा गया है ) का है या यह कि दलितों और उनकी स्थिति में अब तक अधिक बदलाव ना होने के पीछे उनके द्वारा चुने गए इसी तरह के प्रतिनिधि रहे हैं,जो अपने को दलितों का सच्चा हितैषी और प्रतिनिधि बताते रहे हैं ? यह फिल्म प्रच्छन्न रूप से आरक्षण के आर्थिक आधार पर दिए जाने के तर्क की पैरवी करता दिखता है
सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि वह कैरेक्टर इंजीनियरिंग पढना चाहता है और बाद में पढता भी है
आरक्षण फिल्म के गरियाने वालों को खासकर वह दृश्य भी याद रखना चाहिए जब दलित नायक दीपक कुमार थाने में बंद है तब उसकी जमानत उसी का सवर्ण अमीर साथी सुशांत सेठ (प्रतीक बब्बर) ही कराता है
अब प्रश्न उठता है कि क्या जब भी जमानत जैसे काम या ऐसे ही अन्य काम जिनमें सिफारिश या पैसों की बात होनी है वह बिना सवर्णों के सहयोग के नहीं होगी ? दलितों का उद्धार या उत्थान सवर्णों का ही मुहताज/कृपापात्री रहेगा ?इस बात को महज फ़िल्मी प्रयोग या सहज स्वाभाविक मानकर नहीं चला जा सकता
आरक्षण देखते हुए कई दफे यह लगता है गोया प्रकाश झा ने बाघ और बकरी (इसे अभिधार्थ ना लें )के एक ही घाट पर पानी पीने के कपोलकल्पित रामराज्य को ही फिल्म में उतारने की कोशिश की है
फिल्म का नायक प्रभाकर आनंद कोचिंग शिक्षा व्यवस्था को अपने तबेला स्कूल (एक आदर्श अवधारणा )के माध्यम से ध्वस्त कर देना चाहते हैं और यह इसी तरह के रामराज्य को बनाने की गांधीवादी कोशिश लगती है पर यह पूरा प्रकरण फिल्म का सबसे बोरिंग और लम्बा खींच गया दृश्य है
कायदे से प्रकाश झा ने फिल्म आरक्षण के शीर्षक के साथं न्याय तो नहीं ही किया है
ना तो यह फिल्म आरक्षण की पैरवी करती दिखती है न ही मुखालफत
यह मध्यममार्गी फिल्म है अगर हम यह मान लें कि यह फिल्म आरक्षण के इर्द-गिर्द है
इस फिल्म के शीर्षक से इसका जुड़ाव बस इतना सा है कि फिल्म में दिखाए गए संस्थान का प्रिसिपल आरक्षण के पक्ष में बोलने की वजह से मुसीबत में फंसा दिया जाता है
ध्यान से देखा जाये तो यह प्रिंसिपल इस स्टेटमेंट से पहले ही शिक्षामंत्री जी के भांजे और एक ट्रस्टी महोदय के नजरों में पहले ही खटक रहा होता है
आरक्षण के पक्ष में बोलना महज़ उसके ताबूत की आखरी कील होता है
लब्बोलुआब यह कि यह फिल्म प्रकाश झा की अब तक कि सबसे कमजोर और भटकी हुई फिल्म है और सही कहें तो यह झा का कमर्शियल स्टंट मात्र है,जिसका महज शीर्षक देखकर ही आरक्षण समर्थकों ने बेवजह का कुकुरहांव (इसे भी कृपया अभिधार्थ न लें )मचा दिया
दरअसल यह वैसा ही मानो जब बच्चे को चम्मच में शहद डाल कर चटाई जाए और बच्चा शहद छोड़कर चम्मच को ही दाँतों से पकड़ ले
हाँ ! झा के ट्वीट के खिलाफ मैं भी हूँ
(बहरहाल,फिल्म के एक छोटे दृश्य में भोपाल रंगमंच के बेमिसाल एक्टर आलोक चटर्जी और नया थियेटर के हिमांशु त्यागी को देखा सुखद है पर यह मेरी व्यक्तिगत राय इन कलाकारों के लिए है फिल्म से इसका कोई लेना देना हैं )
याने खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात आरक्षण पर सोलह आने फिट बैठती है
आरक्षण देखकर यह लगता हैं कि जिस शख्स का नाम प्रकाश झा है,क्या उसकी क्रियेटिविटी को दीमक लगने लगे हैं ? क्या ये वही फिल्मकार है जिसने दामुल,मृत्युदंड जैसी फिल्में दी थी ? पता नहीं हमारा सिनेमा एक ख़ास किस्म के आदर्शवादिता को क्यों ढ़ोता है
फिल्म का नायक आदर्शवादी प्रिंसिपल प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन ) आरक्षण के पक्ष में बोलकर और सच के पक्ष में खडा होने की वजह से अपने पद और संस्थान से निकाल दिया जाता है
उसके दलित स्टुडेंट और फिल्म के दूसरे नायक दीपक कुमार(सैफ अली खान) उसके साथ आकर उसके तबेला स्कूल को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर सँभालते हैं और यहाँ से यह फिल्म अपने मूल मुद्दे से भटक जाती है
आरक्षण का जरूरी मुद्दा कहीं और चला जाता है
फिल्म प्राईवेट कोचिंग और प्राईवेट शिक्षा संस्थानों की पैरेरल व्यवस्था की ओर चल देती है
बीच-बीच में फिल्म कहीं-कहीं वर्गभेद के मुद्दे को छूती है पर वह आरक्षण के मुद्दे से कतई मेल नहीं करता
आरक्षण की जितनी भी डिबेट प्रकाश झा से या उनकी समझ से संभव थी,उतनी उन्होंने पहले हाफ में रख छोड़ी है
कायदे से फिल्म के जिस हिस्से से आरक्षण समर्थक वर्ग को दिक्कत होनी चाहिए उस ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा
फिल्म का एक दृश्य है कि दलित शिक्षक और नायक दीपक कुमार ,अपने शिक्षक प्रभाकर आनंद के मामले में अपने इलाके के दलित नेता से सहयोग मांगता है पर वह शिक्षा मंत्री ( सौरव शुक्ला)के आगे बिक जाता है इतना ही नहीं वह अपनी कुर्सी के सपने के लालच में उस सवर्ण मंत्री और प्रतिनायक मिथिलेश सिंह (मनोज बाजपेयी ) के आगे मिमियाने वाले अंदाज़ में चित्रित हुआ है
क्या निर्देशक इसको दिखा कर इस वर्ग को यह सन्देश देना चाहता था कि देखो आपके वर्ग का प्रतिनिधि कितनी संकीर्ण सोच (फिल्म में जिसे मंद बुद्धि कहा गया है ) का है या यह कि दलितों और उनकी स्थिति में अब तक अधिक बदलाव ना होने के पीछे उनके द्वारा चुने गए इसी तरह के प्रतिनिधि रहे हैं,जो अपने को दलितों का सच्चा हितैषी और प्रतिनिधि बताते रहे हैं ? यह फिल्म प्रच्छन्न रूप से आरक्षण के आर्थिक आधार पर दिए जाने के तर्क की पैरवी करता दिखता है
एक बड़ा इरिटेटिंग पात्र पंडित छात्र का है जिसे अपनी फीस तक के लिए जूझना पड़ता है | यह पात्र पूरी फिल्म में जिस हिंदी का प्रयोक्ता दिखा है वैसी हिंदी पता नहीं प्रकाश झा ने किस हिन्दुस्तान में सुनी है
सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि वह कैरेक्टर इंजीनियरिंग पढना चाहता है और बाद में पढता भी है
आरक्षण फिल्म के गरियाने वालों को खासकर वह दृश्य भी याद रखना चाहिए जब दलित नायक दीपक कुमार थाने में बंद है तब उसकी जमानत उसी का सवर्ण अमीर साथी सुशांत सेठ (प्रतीक बब्बर) ही कराता है
अब प्रश्न उठता है कि क्या जब भी जमानत जैसे काम या ऐसे ही अन्य काम जिनमें सिफारिश या पैसों की बात होनी है वह बिना सवर्णों के सहयोग के नहीं होगी ? दलितों का उद्धार या उत्थान सवर्णों का ही मुहताज/कृपापात्री रहेगा ?इस बात को महज फ़िल्मी प्रयोग या सहज स्वाभाविक मानकर नहीं चला जा सकता
आरक्षण देखते हुए कई दफे यह लगता है गोया प्रकाश झा ने बाघ और बकरी (इसे अभिधार्थ ना लें )के एक ही घाट पर पानी पीने के कपोलकल्पित रामराज्य को ही फिल्म में उतारने की कोशिश की है
फिल्म का नायक प्रभाकर आनंद कोचिंग शिक्षा व्यवस्था को अपने तबेला स्कूल (एक आदर्श अवधारणा )के माध्यम से ध्वस्त कर देना चाहते हैं और यह इसी तरह के रामराज्य को बनाने की गांधीवादी कोशिश लगती है पर यह पूरा प्रकरण फिल्म का सबसे बोरिंग और लम्बा खींच गया दृश्य है
कायदे से प्रकाश झा ने फिल्म आरक्षण के शीर्षक के साथं न्याय तो नहीं ही किया है
ना तो यह फिल्म आरक्षण की पैरवी करती दिखती है न ही मुखालफत
यह मध्यममार्गी फिल्म है अगर हम यह मान लें कि यह फिल्म आरक्षण के इर्द-गिर्द है
इस फिल्म के शीर्षक से इसका जुड़ाव बस इतना सा है कि फिल्म में दिखाए गए संस्थान का प्रिसिपल आरक्षण के पक्ष में बोलने की वजह से मुसीबत में फंसा दिया जाता है
ध्यान से देखा जाये तो यह प्रिंसिपल इस स्टेटमेंट से पहले ही शिक्षामंत्री जी के भांजे और एक ट्रस्टी महोदय के नजरों में पहले ही खटक रहा होता है
आरक्षण के पक्ष में बोलना महज़ उसके ताबूत की आखरी कील होता है
लब्बोलुआब यह कि यह फिल्म प्रकाश झा की अब तक कि सबसे कमजोर और भटकी हुई फिल्म है और सही कहें तो यह झा का कमर्शियल स्टंट मात्र है,जिसका महज शीर्षक देखकर ही आरक्षण समर्थकों ने बेवजह का कुकुरहांव (इसे भी कृपया अभिधार्थ न लें )मचा दिया
दरअसल यह वैसा ही मानो जब बच्चे को चम्मच में शहद डाल कर चटाई जाए और बच्चा शहद छोड़कर चम्मच को ही दाँतों से पकड़ ले
हाँ ! झा के ट्वीट के खिलाफ मैं भी हूँ
(बहरहाल,फिल्म के एक छोटे दृश्य में भोपाल रंगमंच के बेमिसाल एक्टर आलोक चटर्जी और नया थियेटर के हिमांशु त्यागी को देखा सुखद है पर यह मेरी व्यक्तिगत राय इन कलाकारों के लिए है फिल्म से इसका कोई लेना देना हैं )
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