सामा-चकेबा - मिथिलांचल की गौरवशाली परंपरा
'(लोक संस्कृति की समृद्ध विरासत बिहार की भूमि में सदा-सर्वदा से गहरे विद्यमान रही है | आज का नवयुवक एक तरफ तो उत्तर औपनिवेशिक समय में मज़बूरी वश अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है या कटने को विवश है तो दूसरी तरफ हमारी लोक परंपरा पर भी खतरे की तलवार लटक ही है | इसके पीछे निश्चित ही बाज़ार और उसकी शक्तियां हैं पर बिहार की सांकृतिक छवि को जन-जन तक और विशेषकर युवाओं तक पहुँचाने का जिम्मा बिहार के संस्कृति मंत्रालय ने उठाया है | हमें उनके इस प्रयास को सराहना चाहिए | उन्होंने बिहार की सांकृतिक पहचान बनाते कुछ लोक परम्पराओं पर अपनी पुस्तिका 'बिहार विहार'निकाली है जिसमे इन कला रूपों का परिचयात्मक विवरण है | यहाँ मिथिलांचल की गौरवशाली परम्परा 'सामा-चकेबा'पर उसीसे एक अंश साभार ...)
सामा चकेबा'एक प्रकार का 'कंपोजिट' आर्ट है | इसमें मिटटी की बनी अनगढ़ मूर्तियाँ,बाँस के हस्तशिल्प,लिखियार,मिथिला पेंटिंग,गायन,सांस्कारिक अनुष्ठान,नृत्य,अभिनय आदि सब कुछ एक साथ रूपाकार होता है,जो इसे बेहद आकर्षक दृश्यात्मकता प्रदान करता है | दैनन्दिनी के कार्य से निवृत होने के बाद कार्तिक मास के सिहरन वाली रात के दूसरे प्रहर में दुग्ध धवल चांदनी में यह 'खेल'प्रारम्भ होता है तथा अमूमन तीसरे प्रहर तक चलता है | हर रात,तालाब(नदी),बाग़-बगीचे,खेत-खलिहान,मंदिर और ग्राम प्रदक्षिणा का इसमें कार्यक्रम चलता है | इस पूरे खेल के दौरान ननद-भौजाई की चुहलबाजी और हँसी-मजाक वातावरण को जीवंत बनाये रखते हैं | पद्म पुराण की एक पौराणिक कथा से भी 'सामा-चकेबा'को जोड़ा जाता है | इस कथा में श्रीकृष्ण के दरबार के एक पात्र (चूड़क)की नजर उनकी पुत्री'समा'(श्यामा)पर रहती है | पर सामा 'चारुवाक'नामक युवक से प्यार करती है | प्रेमांध चूड़क श्रीकृष्ण के पास इसकी चुगलखोरी करता है | श्रीकृष्ण शाप देते हैं और सामा-चारुवाक पक्षी बन जाते हैं | बहन के शापित होने की खबर भाई साम्ब को लगती है | वह श्रीकृष्ण से अनुनय-विनय करता है पर श्रीकृष्ण राजधर्म की आड़ लेकर उसके आग्रह को ठुकरा देते हैं | साम्ब शिव की आराधना में घनघोर तपस्या करते हैं | शिव प्रसन्न होते हैं तथा मुक्ति का मार्ग बताते हैं | इस मार्ग का अनुसरण कर साम्ब महिलाओं को संगठित करते हैं | श्रीकृष्ण झुकते हैं और सामा-चारुवाक शाप-मुक्त होते हैं |स्त्री के संगठित प्रतिरोध,राज प्रशासन के झुकने,भाई के बहन के प्रति अटूट प्रेम और चुगलखोरों को सजा-यही उत्स है 'सामा-चकेबा'पर्व का | इस पूरे कथानक का बेहद रोचक अभिनय इस पर्व में होता है | आज भी मिथिलांचल के गाँवों में स्त्रियाँ 'सामा-चकेबा'खेलती हैं | कला मर्मज्ञों ने इसके कथा सूत्र की रोचकता,आकर्षक दृश्यात्मकता,गीत-संगीत-नृत्य और इसके पारंपरिक स्वरुप को देखते हुए इसे परिमार्जित कर पारंपरिक 'लोकनृत्य'के रूप में विकसित किया है | इसका बहुआयामी स्वरुप,गायन की विविधता,प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम,भाई-बहन के स्नेहिल सम्बन्ध,चुगलखोरों(समाज विरोधियों)के प्रति सामूहिक-संगठित विरोध,लोक कल्याण की भावना,संस्कारों का प्रशिक्षण,जैसे अनेक खण्डों में बांटकर इसे समझने का प्रयास किया है | इसीलिए इस बहुआयामी लोकनृत्य में शेष बातें एक जैसी होने पर भी प्रदर्शनकारी दल के विचार चिंतन के आधार पर इसकी व्याख्या बदल जाती है | यही इस लोकनृत्य की निजता और विशेषता भी है |
सामा चकेबा'एक प्रकार का 'कंपोजिट' आर्ट है | इसमें मिटटी की बनी अनगढ़ मूर्तियाँ,बाँस के हस्तशिल्प,लिखियार,मिथिला पेंटिंग,गायन,सांस्कारिक अनुष्ठान,नृत्य,अभिनय आदि सब कुछ एक साथ रूपाकार होता है,जो इसे बेहद आकर्षक दृश्यात्मकता प्रदान करता है | दैनन्दिनी के कार्य से निवृत होने के बाद कार्तिक मास के सिहरन वाली रात के दूसरे प्रहर में दुग्ध धवल चांदनी में यह 'खेल'प्रारम्भ होता है तथा अमूमन तीसरे प्रहर तक चलता है | हर रात,तालाब(नदी),बाग़-बगीचे,खेत-खलिहान,मंदिर और ग्राम प्रदक्षिणा का इसमें कार्यक्रम चलता है | इस पूरे खेल के दौरान ननद-भौजाई की चुहलबाजी और हँसी-मजाक वातावरण को जीवंत बनाये रखते हैं | पद्म पुराण की एक पौराणिक कथा से भी 'सामा-चकेबा'को जोड़ा जाता है | इस कथा में श्रीकृष्ण के दरबार के एक पात्र (चूड़क)की नजर उनकी पुत्री'समा'(श्यामा)पर रहती है | पर सामा 'चारुवाक'नामक युवक से प्यार करती है | प्रेमांध चूड़क श्रीकृष्ण के पास इसकी चुगलखोरी करता है | श्रीकृष्ण शाप देते हैं और सामा-चारुवाक पक्षी बन जाते हैं | बहन के शापित होने की खबर भाई साम्ब को लगती है | वह श्रीकृष्ण से अनुनय-विनय करता है पर श्रीकृष्ण राजधर्म की आड़ लेकर उसके आग्रह को ठुकरा देते हैं | साम्ब शिव की आराधना में घनघोर तपस्या करते हैं | शिव प्रसन्न होते हैं तथा मुक्ति का मार्ग बताते हैं | इस मार्ग का अनुसरण कर साम्ब महिलाओं को संगठित करते हैं | श्रीकृष्ण झुकते हैं और सामा-चारुवाक शाप-मुक्त होते हैं |स्त्री के संगठित प्रतिरोध,राज प्रशासन के झुकने,भाई के बहन के प्रति अटूट प्रेम और चुगलखोरों को सजा-यही उत्स है 'सामा-चकेबा'पर्व का | इस पूरे कथानक का बेहद रोचक अभिनय इस पर्व में होता है | आज भी मिथिलांचल के गाँवों में स्त्रियाँ 'सामा-चकेबा'खेलती हैं | कला मर्मज्ञों ने इसके कथा सूत्र की रोचकता,आकर्षक दृश्यात्मकता,गीत-संगीत-नृत्य और इसके पारंपरिक स्वरुप को देखते हुए इसे परिमार्जित कर पारंपरिक 'लोकनृत्य'के रूप में विकसित किया है | इसका बहुआयामी स्वरुप,गायन की विविधता,प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम,भाई-बहन के स्नेहिल सम्बन्ध,चुगलखोरों(समाज विरोधियों)के प्रति सामूहिक-संगठित विरोध,लोक कल्याण की भावना,संस्कारों का प्रशिक्षण,जैसे अनेक खण्डों में बांटकर इसे समझने का प्रयास किया है | इसीलिए इस बहुआयामी लोकनृत्य में शेष बातें एक जैसी होने पर भी प्रदर्शनकारी दल के विचार चिंतन के आधार पर इसकी व्याख्या बदल जाती है | यही इस लोकनृत्य की निजता और विशेषता भी है |
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