लोकनाट्य सांग

[जन्नत टॉकीज पर लोक नाट्य रूपों के बारे में  एक इन्फोर्मेटिव(सूचनात्मक) टिप्पणी  की पहली कड़ी में हरियाणा के लोक नाट्य सांग के बारे में चंद बातें ]

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हरियाणा का लोकनाट्य ‘सांग’ नाटक के किसी शास्त्रीय रूप और बंधन से पूरी तरह नहीं जुड़ता | श्री जगदीश चंद्र प्रभाकर “सांग को प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं | उनका मानना है कि ‘संगीतक’ से ‘सांगीत’ और ‘सांगीत’ से ‘सांग’ शब्द विकसित हुआ|"(देखें,हरियाणा पुरातत्व,इतिहास,संस्कृति एवं लोकवार्ता,पृष्ठ-२०६).जबकि सुरेश अवस्थी ने नौटंकी, संगीत, भजन, निहालदे और स्वांग को समानार्थी मानते हुए, स्वांग को इसका प्राचीनतम रूप माना है |”(भारतीय नाट्य साहित्य,डॉ.नगेन्द्र,पृष्ठ-४१०). सांग की उत्पत्ति का सन्दर्भ चाहे जो हो, पर इतना तय है कि यह हरियाणा के जनसमुदाय की सांस्कृतिक पहचान है | जैसे कि हर प्रदेश का लोकनाट्य उसका सांस्कृतिक दस्तावेज़ होता है, वैसे ही सांग भी हरियाणा का सांस्कृतिक दस्तावेज़ है |

सांग खुले आसमान के नीचे, चौतरफा दर्शकों से घिरा लोकरंजन और लोकरुचि का क्षेत्र है | इसके कलाकर अभिनय कुशल, संगीत विशेषज्ञ तथा दर्शकों को नृत्य-संगीत और भाव-सम्प्रेषण के साथ बाँधकर रखते हैं | ‘सांग’ में पंडित लखमीचंद की प्रसिद्धि बहुत है, इन्हें ‘सांग सम्राट’ की उपाधि से अभिहित किया जाता है | पंडित लखमीचंद सांग में कई प्रमुख भूमिकाएं स्वयं निभाते थे | हरिश्चंद्र सांग में “उनका अभिनय इतना अचूक होता था कि हजारों दर्शक सांग देखने के बाद आँसू लिए घर लौटते थे | यही तो लोक कविता और लोक नाट्य की सबसे बड़ी खूबी है कि दर्शक पात्रों के साथ ही जीते हैं |”(पंडित लखमीचंद ग्रंथावली,श्रीकृष्णचन्द्र शर्मा, पृष्ठ-१९.)

सांग में भी मंच की सज्जा साधारण ही होती है | यह मंच पर किसी बड़े तामझाम को नहीं अपनाता, लोक पोषित इन नाट्य-रूपों में इसकी सम्भावना भी अधिक नहीं है, वरना यह भी अभिजन का कृत्रिम मंच बन जायेगा | तब इन नाट्य रूपों की सहजता भी समाप्त हो जायेगी | इस नाट्य में मुख्य कलाकार अपने साथियों और प्रयोग में आने वाले वाद्य-यंत्रों के साथ मंच पर ही बैठता है और पात्र मंच पर ही घूम-घूमकर अभिनय करते हैं | राजेंद्र स्वरुप वत्स लिखते हैं-“यद्यपि उपलब्ध सांगों में हिंदी के नाटकों की तरह देशकाल व वातावरण का सृजन करने के उद्देश्य से वेशभूषा, आभूषण इत्यादि के संबंध में कोई लिखित निर्देश नहीं मिलते, फिर भी समस्त विश्वस्त सूचकों से लखमीचंद की सांग मंचन कला के बारे में प्राप्त सूचना के आधार पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि लखमीचंद अपनी सहज बुद्धि व अनुभव के बल पर वेशभूषा, आभूषण इत्यादि के माध्यम से वांछित देशकाल व वातावरण का सृजन कर लेते थे |”(सांग सम्राट पं.लखमीचंद,पृष्ठ-२३४.)

सांग में गीत-संगीत-नृत्य का संयोजन एवं उत्कृष्ट अभिनय उसके प्रभाव में वृद्धि कर देता है | सांग का अभिनेता हाव-भाव, चुहल, छेड़छाड़, आंगिक क्रियाओं से दर्शकों को अपने से जोड़ता है | सांग में मूल कथा के बीच में एक पात्र ‘भांड’ या ‘नकलची’ आता है, जो अपने क्रियाकलापों से दर्शकों का मनोरंजन भी करता है और मुख्य कथा में सहयोग भी देता है | अमूमन सांग का अभिनेता अपने हाव-भाव,चुहल,छेड़छाड़,वाक्-पटुता और आंगिक क्रियाओं से दर्शकों को अपने साथ जोड़ता है पर इस प्रयास में उसके संकेत कभी-कभी अश्लील भी हो जाते हैं| परन्तु यह बस उस लोक के भीतर पैठने के क्रम में हुआ अभिनय होता है, अतः सांग प्रेमी जनता इसकी परवाह नहीं करती | सांग में समस्त मंचीय क्रियाव्यापार पुरुषों द्वारा निभाया जाता रहा है,हालांकि देवीशंकर प्रभाकर ने अपने शोध-पत्र  में लिखा है "हरियाणा में कुछ ऐसी सांग मंडलियाँ भी काम करती रही हैं,जिनमें सभी औरतें काम करती थी | ये सांग मंडलियाँ यमुना के खादर में खेल खेलती थीं | इनमें कलायत की सरदारी, गंगरू की नरनी और इंद्री की बाली थीं|' (देखें,डॉ.केशवानंद ममगई, हरिगंधा,नवम्बर-८७-फरवरी-८८,पृष्ठ-७३.)पंडित लखमीचंद के अलावे सांग के कुछ चर्चित कलाकारों में मांगेराम,किशनलाल भाट,पंडित दीपचंद,पनदिर रतिराम,सरुपचंद,नेतराम,हरदेवा आदि प्रमुख हैं | सांग में काल्पनिक और लोकप्रचलित पौराणिक एवं प्रेमाख्यानक कहानियों को कथा आधार बनाया जाता है | हीर-राँझा, पद्मावत, सेठ ताराचंद, विराट पर्व, सत्यवान-सावित्री, नल-दमयंती, मीराबाई, पूरण भगत, शाही लकडहारा, मदनावत, हरिश्चंद्र इत्यादि प्रमुख सांग हैं |
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Comments

Ratan Kaul said…
श्री पांडेय जी, आपका ब्लॉग अत्यंत रोचक है। परन्तु, मेरे दो प्र्श्न हैं :

१. मेरे विचार में 'सांग' या 'स्वांग' नाट्य शैली केवल हरयाणा तक ही सीमित नहीं, बल्कि इस का प्रचलन उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में भी है। क्या आप इस से सहमत हैं?
२. क्या इन लोक नाट्यों में सामाजिक उत्थान एवं सामजिक कुरीतियों के उन्मूलन जैसे विषयों पर जनसाधारण के लिए कोई सन्देश भी रहते हैं अथवा केवल संगीतमय मनोरंजन हे रहता है?
आदरणीय कौल सर
प्रमाण
मैंने यहाँ बस एक छोटी सूचनात्मक पोस्ट लिखी है। यूपी के बागपत बड़ौत इलाक़े में कलायत की सरदारिनो के बारे में कहीं पढ़ा था कि वे जमुना खादर के इलाक़े में सांग करती हैं राजस्थान के बारे में केवल हरियाणा से जुड़े इलाक़े के बारे में ज़रूर मेरे एक शिक्षक बताते रहे हैं आपकी बात से सहमति है। जहां तक दूसरे सवाल की बात है तो उसका बस इतना ही कि ये सांग या लोकरंग की कोई विधा केवल मनोरंजन नहीं बल्कि लोकरंजन के साथ लोकोपदेश का कार्य भी करती रही हैं

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