विदापत नाच या कीर्तनिया
जगदीशचन्द्र माथुर ने बिदापत नाच को 'उत्तर बिहार की अल्प-परिचित प्रदर्शन-विधा' से अभिहित किया है | "बिहार के पूर्णिया जिले में 'बिदापत नाच' नाम से एक आंचलिक नाटक की परंपरा है | इसमें मध्ययुगीन मिथिला के किर्तनियाँ नाटक तथा असम के अंकिया नात दोनों की झलक दिखाई पड़ती है | मंडलियों में प्रायः किसान और मजदूर होते हैं - अधिकतर हरिजन-वर्ग के |.......मंच और अभिनय परंपरा में असमिया अंकिया नाट का प्रभाव अधिक स्पष्ट है |.......जिस स्थान पर पात्र अपनी सज्जा करते हैं, उसे यहाँ 'साज घर' कहा जाता है | इसकी तुलना असमिया-नाटक के 'छ्घर' या 'छद्मगृह' से की जा सकती है |"(देखें,परंपराशील नाट्य ,जगदीशचंद्र माथुर,पृष्ठ-88.) इसमें मंच का विधान मुक्ताकाशी होता है | अन्य लोक नाटकों की तरह ही इस नाट्य-रूप की शक्ति इसका 'संगीत' पक्ष ही है | मुख्य गायक 'मूलगाईन' कहलाता है और उसके साथियों को 'समाजी' कहा जाता है | मूलगाईन असम नाट्य अंकिया के मूल गायक को भी कहते हैं, तो उधर समाजी भोजपुरी के नाट्य रूप बिदेसिया में भी उपस्थित होते हैं | गीतात्मक अभिव्यक्तियों से पात्रों का परिचय करवाना और 'बिकटा'(विदूषक) इसकी कुछ अन्य विशेषताएं हैं |
बिदापत मूलतः विद्यापति का अपभ्रंश शब्दरूप है | विद्यापति के गीत (प्रत्येक नाटक और प्रस्तुति का भगवती वंदना से शुरू होना) का नाटकीय प्रयोग इस नाम प्रचलन के पीछे रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है | बिदापत नाच की शुरुआत 'भगवती वंदना' से या 'विघ्नविनाशक गणपति की वंदना' से होती है | इसके कथावस्तु का आधार लोक-प्रचलित धार्मिक आख्यान ही हैं | उमापति उपाध्याय रचित 'पारिजात हरण नाटक'(1325 ई.) इसका प्रतिनिधि नाटक है | माथुर जी ने यहाँ भी इसका सन्दर्भ असम से जोड़ा है - " 'पारिजात हरण' नाम से महापुरुष शंकर देव ने असम में 15वीं सदी के आसपास एक दूसरा नाटक लिखा, जो रंगमंचीय तत्वों में उमापति उपाध्याय के नाटकों की अपेक्षा अधिक समृद्ध है | झिरवा गाँव के जनकदास की मंडली ने,जो 'पारिजात हरण' नाटक खेला, उसके लेखक का नाम वे नहीं दे सकें | किन्तु, जान पड़ता है कि उसमें दोनों ही नाटकों का सम्मिश्रण है |"(वही,पृष्ठ-88-89.)
बिहार के लोकनाट्यों पर असम और कलकत्ते (पूरब मुलुक) के सांस्कृतिक प्रभाव का मुख्य कारण यहाँ के मजदूरों का पूरब देश की और आजीविका के लिए उधर जाना और दिन-भर के थकान के बाद मनोरंजन के लिए उनके नाटकों को देखकर, वापिस आते वक़्त उन परम्पराओं को आत्मसात करके अपना एक नाट्यरूप अपनी जमीन पर तैयार किये जाने को हम स्वाभाविक तौर पर मान सकते हैं | कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने 'बिदापत नाच' पर एक लेख भी लिखा है और अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'मैला आँचल' में एक दृश्य भी खींचा है |
बहरहाल, बिदापत नाच के मूलकथा से पहले वाद्यों (ढोल और मृदंग, झाल आदि ) की संगत बिठाई जाती है | (दर्शकों का जमावड़ा तैयार करने की, माहौल बनाए की यह जुगत हमें और भी कई नाट्य रूपों में देखने को मिलती है |) "इसे यहाँ (मिथिला) वाले 'जमीनिका' कहते हैं | 'जमीनिका' का अर्थ है भूमिका और 'जमीनिका' 'यवनिका' का अपभ्रंशित रूप होगी, ऐसा माथुर जी ने भी माना है | (देखें,वही,88-89.) कीर्तनियां नाम के पीछे की वजह इसके कीर्तन शैली के गीत-भजन-संगीत की अधिकता है | इसके प्रणेता उमापति उपाध्याय कीर्तन शैली में कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचते और गाते थे | यह गायन और नृत्य बाद में इसका ट्रेडमार्क स्टाईल बन गया | इसमें भी पूर्वरंग में सूत्रधार नांदी पाठ के बाद ही वार्ता शुरू करता है |
इस नाट्य रूप पर रामलीला और रासलीला का भी प्रभाव दीखता है | दरअसल, "किर्तनिया शैली में वही लचीलापन है,जो रामलीला और रासलीला लोकनाट्य शैली में है | रामलीला करने वाले लोग एक ओर पूरे रामचरित मानस को मंच पर उतारने की शक्ति रखते हैं,तो दूसरी ओर राधेश्याम कथावाचक की शैली में लिपिबद्ध रामकथा को मंचस्थ करने का सामर्थ्य भी रखते हैं |"(देखें,मैथिली साहित्यिक इतिहास,प्रो.बालगोबिंद झा'व्यथित',पृष्ठ-48-49.)
इस नाट्यशैली में मुखौटों का प्रयोग भी देखने को मिलता है | कृष्ण और शिव के गण मुखौटे धारण किये मंच पर आते हैं और "उस समय समाजी जो गीत गाते हैं उसकी गति त्वरा होती है और 'मार्चिंग सॉंग ' की-सी ध्वनि निकलती है |"(प्राचीन भाषा नाटक,सं.जगदीशचंद्र माथुर/दशरथ ओझा,पृष्ठ-46.) पद्यात्मक संवाद इस शैली की विशेषता है, इसमें प्रवेश और संवादों के स्तर पर गीतों का प्रयोग दिखाई देता है |
वास्तव में, यह लोकनाट्य शैली अपने मंचन और स्वरुप में 'टोटल थियेटर' है और इसके प्रदर्शन के इतिहास पर नज़र डालें, तो यह "लोकभाषा का आदि रंगमंच"(देखें,बिहार विहार, सं.विनोद अनुपम,पृष्ठ-४१.) | इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव क्षेत्र में न केवल मिथिला प्रान्त बल्कि नेपाल, उड़ीसा, असम और बंगाल तक के क्षेत्र हैं |
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