सिनेमा,सिनेमा केवल सिनेमा,खाली सिनेमा.....


जेहन में आज भी पहली देखी गई सिनेमा के तौर पर भोजपुरी की "गंगा किनारे मोरा गाँव"ही दर्ज है। बाद में शायद ऋषि कपूर वाली "प्रेम रोग"थी,जिसका गाना हम सभी बच्चे गाया करते थे 'मैं हूँ प्रेम रोगी '। पता नहीं क्यों यही गाना हमारी जुबान पर चढा था।बाद में हमलोग थोड़े और बड़े हुए और सिनेमा ke लिए दीवानगी और बढ़ी। पहले सिनेमा-घरों के विशाल परदों को देख कर बाल-मन यही सोचता था कि हो-न-हो इसी बड़े परदे के पीछे सारा खेल चलता है। हमारी इस बात को बड़े मामा ने जाना तो बहुत हँसे थे,फ़िर एक दिन सीवान(मेरे मामा का घर इसी शहर में है)के प्रसिद्ध 'दरबार' सिनेमा हाल में लेकर गए जहाँ उनका दोस्त मैनेजर हुआ करता था।और तब हमारे आश्चर्य का ठिकाना नही था जब हमने देखा कि ये बड़ा परदा जो सारा खेला दिखाताहै वह तो महज़ ८-१० धोती को सिल कर बना है,और असली खेल तो मुस्तफा मियाँ के हाथों होता है जो उस मशीन (प्रोजेक्टर)को चलाते थे।खैर,सिनेमा से जुडाव दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। आज भी उसी गंभीरता के साथ जुडाव बरकरार है पर सही-सही कह नहीं सकता कि उन दिनों जैसी ईमानदारी अब बची है या नही?

गाँव में जब भी कोई बारात आती तो वह हमारे ही बगीचे में ठहरती क्योंकि हमारा आम का बगीचा गाँव के शुरुआत में ही था। हम बच्चों का इंटरेस्ट इस बात में नहीं होता था कि बारात कैसी है ,दूल्हा कैसा है या फ़िर कहाँ से आई है ,बस पूरी टोली इस बात का पता लगाने में जुट जाती कि ,इस बारात में "विडियो "आया है या नहीं। विडियो माने पूरी रात वी.सी. आर.पर फिल्मों का चलाया जाना। जिसे हम कभी माँ-बाप की चिरौरी करके देखते थे तो कभी रात को सभी के सो जाने के बाद पिछवाडे से उतर कर। इस काम में हम सभी भाईयों में कभी मतभेद नहीं रहा। सबके जागने से पहले घर में हाज़िर रहते पर एक दिन पिताजी ने पकड़ ही लिया। फ़िल्म के लिए रतजगा करने के कारण 'मंटू' दिनभर सोया रहा और जब उसके मामाजी यानी मेरे पिताजी ने कड़ककर पूछा तो टूट गया । बाद में उस एक "गद्दार"की वजह से सभी bhaaee - लोगों का रात का खाना बंद हुआ सो अलग उलटे पिटाई भी पड़ गई और तो और सिनेमा कभी भी भागकर ना देखने की कसम खानी पड़ी(दरसल शर्मिंदगी इसलिए भी ज्यादा हो रही थी क्योंकि छोटे-छोटे भाई-बहन हम चारों को अजीब नज़रों से देख रहे थे)। हालांकि इस कसम को ना तो मैं निभा पाया ना ही अन्य भाई,सभी आज भी सिनेमा के प्रति ऐसा ही राग रखते हैं।

हाई स्कूल अधिक स्वछंदता लेकर आया था। यहाँ कोई देखने सुनने वालानहीं था और 'महेश'जैसे मित्र भी बन गए थे ,जो तिवारी सर के शब्दों में "बड़का फिलिमबाज़"था। स्कूल घर से ३ किलोमीटर दूर था और हम सब साइकिल से आते थे। साइकिल यह सुविधा देती थी कि चाहे जितनी भी देर हो रही हो सिनेमाहाल या घर कहीं भी टाइम पर पहुँचना हमारे हाथ में होता था। कैशोर्य में नए-नए पदार्पण ने हमारा मन इतना बढ़ा दिया था कि अब बारात वालों से अपना विरोध खुलकर जाता देते थे कि 'बड़े घटिया हो जी आपलोग नाच पार्टी लेकर आए हो विडियो नहीं '।कहकर हम अपनी अकड़ में एक तरफ़ चल देते। हाई स्कूल के बगल में सरकारी हस्पताल हुआ करता था (अब भी है),उसीकी दीवार में हमने झुकर निकलने भर का छेदबना लिया था जिसमें हमारा साथ'पुरानी चौक 'के दोस्तों ने दिया था आख़िर उनका मोहल्ला जो ठहरा ,उनकी अनुमति और उनके साथ के बिना यह काम सम्भव नहीं ही था। यह सारा जुगाड़ नए-नए खुले "राजू विडियो हाल"तक शार्टकट तरीके से और जल्दी पहुँचने के लिए था। हमारे ही डेढ़ -दो रुपये जमा करके राजू वाले ने अब विडियो हाल की जगह अब 'राजू मिनी 'टाकिज' बना ली है(ये हमारी मण्डली का मानना है)।

अब जबकि सिनेमा देखने को सारी सुविधाएं भी मौजूद हैं, पिताजी के डंडे का डर भी (कुछ ख़ास)नहीं है तब भी जो मज़ा उस वक्त आता था उतना आराम से बैठ कर पॉपकार्न खाते एयरकूल्ड हाल में नहीं मिलता। पर सिनेमा उठते-जागते दिमाग पर किसी न किसी रूप में हावी है। आख़िर इतने बड़े माध्यम को जो आपके सपने,आपकी सच्चाई सभी कुछ आपके सामने लाता है उसको नकारकर भी तो जी नहीं मानेगा। क्या करें यह तो रगों में दौड़ रहा है ज़िन्दगी सेल्युल्लोइड नहीं होती पर इससे अलग भी तो नहीं है ..कम-से-कम अपने बारे में तो इस पागलपन को खुलेमन से स्वीकारता हूँ।

Comments

बड़ी मौज में लि‍खी है आपने ये पोस्‍ट। इसकी रवानगी में बस बहता ही चला गया, बचपन के अपने खुराफात भी याद आ गए। परदे को लेकर कौतूहल तो जैसे अपनी ही बात लगी। बहुत खूब।

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