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'अबाउट राम'- राम कथा की निराली प्रस्तुति

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कहानी कहने का या सम्प्रेषण की दृष्टि से रंगमंच एक जीवंत और बहुत सशक्त माध्यम है यह सीधे तौर पर अभिनेता और दर्शक के बीच संवाद करता है और यह संवाद विविध रूपों में होता है-जैसे अनेक प्रकार की ध्वनियाँ ,शारीरिक मुद्राएं आदि अभिनेता अपने अभिनय से अपना सम्प्रेषण सामाजिकों तक प्रेषित करता है कभी गाकर, कभी नाच कर तो कभी अपने अभिनय से परन्तु ,मंच से अभिनेता अदृश्य हो और उसकी जगह कठपुतलियों,मुखौटो,तथा तकनीक को सामने लाया जाए तो संवाद के लिए एक कुशल और अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है मानव के सहयोग से इनमें गतियाँ उत्पन्न होती हैं और यह बेजान होते हुए भी मंच पर बोल पड़ती हैं ,दर्शकों का जुड़ाव उससे हो जाता है इस तरह की प्रस्तुति कठिन तपस्या और निरंतर अभ्यास की मांग करती है नाटक की पश्चमी परंपरा में यूनानी देवता डायोनिशस के उत्सवों में मुखौटों को लगाने की परिपाटी थी जो आगे चलकर अभिनेताओं के मुंह पर लगाकर मंचासीन होने की परम्परा में आ गयी जापान की 'नोह'शैली या काबुकी में, तो अपने यहाँ ठेरुकुट्टू कुडी अट्टम आदि में इनका प्रयोग देखने को मिलता है यह मुखौटें सभी प्रयोगों में कथा के पा...

जाना 'बालेश्वर यादव' का-स्मृति शेष

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आज जबकि भोजपुरी लोक-संगीत अपनी अस्मिता की लड़ाई में संघर्षरत है,वैसे में बालेश्वर यादव जैसे लोक-गायक के असमय निधन से भोजपुरी अंचल और इसके लोकसंगीत को अपूरणीय क्षति हुई है.बालेश्वर यादव भोजपुरी समाज और भाषा के महेंद्र मिश्र वाली परंपरा के लोक कलाकार थे.श्री यादव लखनऊ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अस्पताल में कुछ समय से इलाज़ हेतु भर्ती थे.बालेश्वर यादव को उत्तर प्रदेश की सरकार ने 'उनके लोक-संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु 'यश भारती सम्मान'से नवाज़ा था.इतना ही नहीं बालेश्वर पुरस्कारों की सरकारी लिस्ट के गायक नहीं बल्कि सही मायनों में जनगायक थे,उन्होंने भोजपुरी के प्रसार के अगुआ के तौर पर देश-विदेश में पहचाने गए.ब्रिटिश गुयाना,त्रिनिदाद,मारीशस,फिजी,सूरीनाम,हौलैंड इत्यादि देशो में मशहूर बालेश्वर यादव जी के मौत भरत शर्मा,मदन राय,प्रो.शारदा सिन्हा, आनंद मोहन,गोपाल राय जैसे गायकों को भोजपुरी अस्मिता में उनका साथ देने वाले एक स्तम्भ के गिरने जैसा है.ईश्वर बालेश्वर यादव जी की आत्मा को शांति दे और भोजपुरी गीत संगीत से बलात्कार करने वाले सड़कछाप गायकों को सद्बुद्धि दे

भारतीयता की ओर लंगड़ी प्रस्तुति 'सलाम इंडिया'(लुशिन दुबे)

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नाटक में महत्वपूर्ण यह है कि जो प्लाट आप चुनते हैं , उसकी स्टोरी टेलिंग सही टाईमिंग और तरीके से मंच पर हो | वह नाटक अपने मंच पर उतरने के साथ ही,अपनी आगे की जिज्ञासा प्रेक्षकों में जगा दे | ऐसा होने के लिए खेले जाने वाले नाटक के रंगपाठ का कसा हुआ होना चाहिए फिर बारी आती है-अभिनेताओं की | नाटक की प्रस्तुति में नाटक,दर्शक और स्पेस का सम्बन्ध महत्वपूर्ण होता है | जब नाटक रनिंग टाईम में इन तीनों से अलग होता है,वैसे ही डिरेल हो जाता है | यह त्रयी टाईम,एक्शन,प्लेस की त्रयी से तनिक अलग है |लुशिन दुबे द्वारा निर्देशित 'सलाम इंडिया'(अभिमंच सभागार,रानावि)इसी तरह के डिरेलमेंट का शिकार हो जाता है | 'सलाम इंडिया'पवन वर्मा के बेस्ट सेलर पुस्तक 'बीईंग इंडियन'से प्रभावित है और इसके नाटककार नागालैंड के निकोलस खारकोंगकर हैं | इस नाटक में कोलाज़ की तरह चार कहानियों के सोलह किरदारों को मंच पर चार अभिनेता निभाते हैं | पर कई बार ऐसा होता है कि अभिनेता अपने-अपने चरित्र को निभाने में काफी लाउड हो जाते हैं | नाटक में कई सामाजिक इश्यु उठाए गए हैं,जिनमें कई पेंच रखे गए हैं,दिक्कत केवल ...

"१३वां भारंगम"-फिर वही कहानी

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पिछले तेरह वर्षों से भारंगम सफलतापूर्वक अपने नए नए सोपानों पर चढ़ता जा रहा है | इसमें कोई दो-राय नहीं कि इसने एक अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप गढ़ लिया है | बावजूद इसके हर बार भारंगम एक ख़ास तरह के रंगकर्मियों,नाटकों और खेमेबाज़ियों के कारण हमेशा चर्चा में रहा है,जो कि विवादों की जमीन पर पनपे पौधे सरीखा है | इसके कई वाजिब कारण हैं | मसलन- (१) इस समारोह में वही कुछ चेहरे क्यों रिपीट होते रहते हैं जिनका योगदान भारतीय रंग-परंपरा को बढाने में कुछ विशेष नहीं है और वह अभी लर्निंग पीरियड में ही हैं पर,वह इस आयोजन के प्रतिनिधि रंग-व्यक्तित्व बने दीखते हैं ? (२) क्यों यह समारोह आज भी एक ईमानदार भारतीय रंग-परम्परा का मंच नहीं बन पाया ? (३) इतना ही नहीं,यह समारोह हर वर्ष इस तथ्य की जाने-अनजाने पुष्टि करता क्यों दीखता है कि जो रंगकर्मी या दल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के आला हाकिमों के खेमे का नहीं उनके नाटकों को ही इस समारोह का एंट्री कार्ड क्यों मिलता है? (४) क्यों अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही पास आउट (प्रशिक्षित)स्नातकों को ही वरीयता मिलती रही है ? (५) इस समारोह में पिछले कुछ समय से विद्यालय के खेल...

'सिनेमची'-विमर्श वाया सिनेमा

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२३ दिसंबर २०१०,एक ख़ास तारीख,एक ख़ास दिन पर, इस खास दिन पर बातचीत से पहले २० तारीख जेहन में है जब दिल्ली विश्वविद्यालय के दोस्तों का एक समूह जिनमें अमितेश,धर्मेन्द्र प्रताप सिंह,मिहिर पंड्या,अभय रंजन सर,पल्लव सर (हिन्दू कालेज के अस्सिटेंट प्रोफेसर्स) और इस नाचीज़ ने ,जेएनयु से उमाशंकर ने मिलकर एक ऐसा मंच खडा करने की सोची जिसके मार्फत हम दैनंदिन जीवन में अपने आसपास के गतिविधियों के पर नज़र रखते हुए हफ्ते,महीने में एक या दो बार किसी जगह (वह जगह विश्वविद्यालय कैम्पस भी हो सकता है अथवा या किसी कालेज का सेमिनार रूम अथवा ऑडिटोरियम पर ऐसी फिल्मों और डाक्युमेंटरी फिल्मों को दिखाएं जो आम दर्शकों तक आसानी से नहीं पहुँचती.और फिर इसके साथ एक बेबाक बातचीत का, जो फिल्म के कांटेक्स्ट या उस फिल्म से उपजे सवालों को केंद्र में रखकर हो ,मंच दें.जहां अकादमिक और शैक्षणिक दबाव से परे छात्र अपनी बात करें की उस ख़ास फिल्म ने उनको क्या दिया,अथवा वह क्या जान पाए ,उन्होंने क्या लिया?इसकी चर्चा वह इस 'सिनेमची'के मंच से करें.वैसे यह सिनेमची नाम भी 'अमितेश'के ही दिमाग की खुराफात है.अमितेश हिंदी विभाग...

भोजपुरी के सांस्कृतिक दूत-भिखारी ठाकुर

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भिखारी ठाकुर भोजपुरिया साहित्य और समाज में बड़े आदर के साथ लिया जाता है.भोजपुरी लोकमंच पर यह भोजपुरी के शेक्सपियर और भारतेंदु के तौर पर याद किये जाते रहे हैं पर इतना कहना इनकी पूरी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं होगा.हाँ भारतेंदु की संज्ञा कुछ हद तक उचित जान पड़ती है.लेकिन शेक्सपियर कहे जाने का तर्क संभवतः उनके पद्यात्मक नाटक रहे हो.पर भिखारी ठाकुर में वह एक ख़ास किस्म की एलिट मानसिकता और भाषा का जमाव जो शेक्सपियर के नाटकों में देखने को मिलता है,नहीं है.अतः भारतेंदु के साथ तुलना की बात थोड़ी साम्य रखती है.दोनों ने ही जनता के दिलों पर राज किया.दोनों ही कागज़ के साथ मंच पर भी समान रूप से सक्रिय रहे.भिखारी ठाकुर के नाटकों का एक मजबूत पक्ष उनके स्त्री पात्र हैं.'बिदेसिया'की बिरहिनी नायिका की टेर उन लाखों भोजपुरियों की व्यथा-कथा है जो वर्षों से इस प्रांत की एक भयावह सच्चाई रही है.बिदेसिया पूर्वांचल के लोगों के उल्लास का नहीं बल्कि उन श्रमिकों की पीछे रह गयी ब्याहताओं की आंसुओं की लेखनी है,जो कमाने पूरब के तरफ कलकत्ता और असम गए.इन गिरमिटियों (अग्रीमेंट से बने भोजपुरिया अपभ्रंश अग्रिमेंटि...

भोजपुरी फिल्मों का 'अ-भोजपुरिया'सौंदर्यशास्त्र

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आज भोजपुरी सिनेमा जगत अपने शवाब पर है.किलो के भाव फिल्में आ रही हैं,हज़ारों लोगों को काम मिल रहा है.कईयों को इस बात का मुगालता हो सकता है कि यह दौर भोजपुरी का स्वर्णिम दौर है.इसमें कोई दो राय नहीं कि यही वह समय है जब भोजपुरी ने बड़े कैनवास पर अपनी छाप उकेरी है,पर इस कैनवास पर आने की भेडचाल में वह अपनी स्वाभाविक चाल और राह दोनों से भटक गया अथवा भूल गया है.कहा जाता है कि रोम रातों-रात नहीं बसा था.वैसे भी किसी समाज,शहर,उद्योग को विकसित होने में एक लंबा समय लगता है.बेतरतीब और बिना प्लानिंग के बने,बसे शहर,समाज,उद्योग जल्द ही नारकीय स्थिति में आ जाने को अभिशप्त हो जाते हैं.आज भोजपुरिया समाज के लिए यह बेहतर बात है कि भोजपुरी फिल्मों का लगभग सूखा संसार लहलहाने लगा है,पर अब यह संसार अपनी स्वाभाविक गति को भूल चूका है,यह अब रपटीली राह पर चल रहा है.एक समय था कि यह फिल्में नोटिस में नहीं थीं पर अब जबकि इनको पहचान मिल चुकी है और इसका दर्शक-वर्ग और समुदाय बेहतर ढंग से निर्मित हो चला है फिर ऐसे में जरुरत अब इनके रंग बदलने की है वरना इनकी भी नियति उन अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों की तरह हो जाएगी,जिनकी...