"१३वां भारंगम"-फिर वही कहानी


पिछले तेरह वर्षों से भारंगम सफलतापूर्वक अपने नए नए सोपानों पर चढ़ता जा रहा है | इसमें कोई दो-राय नहीं कि इसने एक अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप गढ़ लिया है | बावजूद इसके हर बार भारंगम एक ख़ास तरह के रंगकर्मियों,नाटकों और खेमेबाज़ियों के कारण हमेशा चर्चा में रहा है,जो कि विवादों की जमीन पर पनपे पौधे सरीखा है | इसके कई वाजिब कारण हैं | मसलन-

(१) इस समारोह में वही कुछ चेहरे क्यों रिपीट होते रहते हैं जिनका योगदान भारतीय रंग-परंपरा को बढाने में कुछ विशेष नहीं है और वह अभी लर्निंग पीरियड में ही हैं पर,वह इस आयोजन के प्रतिनिधि रंग-व्यक्तित्व बने दीखते हैं ?

(२) क्यों यह समारोह आज भी एक ईमानदार भारतीय रंग-परम्परा का मंच नहीं बन पाया ?

(३) इतना ही नहीं,यह समारोह हर वर्ष इस तथ्य की जाने-अनजाने पुष्टि करता क्यों दीखता है कि जो रंगकर्मी या दल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के आला हाकिमों के खेमे का नहीं उनके नाटकों को ही इस समारोह का एंट्री कार्ड क्यों मिलता है?

(४) क्यों अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही पास आउट (प्रशिक्षित)स्नातकों को ही वरीयता मिलती रही है ?

(५) इस समारोह में पिछले कुछ समय से विद्यालय के खेले गए छात्र प्रस्तुतियों को शामिल कर लिया जाता है ?

(६) बाकी बचे-खुचे में रेपर्टरी के अधिक खेले गए प्रस्तुतियों को शामिल कर लिया जाता है ?

(७) क्या ऐसे प्रयास इस महोत्सव को एनएसडी के रेडियस तक ही सीमित नहीं कर देंगे ?

(८) ऐसे कदम से क्या यह समझ बनाने की कोशिश की जा रही है कि यही एकमात्र प्लेटफार्म है,जिसने भारतीय रंगकर्म को पूरी तरह बचा रखा है ?

ऐसे और कई प्रश्न हैं,जो इस धारणा की पुष्टि करते हैं कि वाकई कुछ ऐसा चल रहा है या हो रहा है,जो कम-से-कम एक भारतीय रंग महोत्सव के पाक-साफ़ ईमेज बिल्डिंग के लिए किसी तरह से ठीक नहीं है | १० वें भारंगम में प्रख्यात रंगकर्मी प्रसन्ना ने एनएसडी के इस कार्यक्रम का खुलेआम बहिष्कार किया था और बहुत मुखर होकर कहा था कि-'इस महोत्सव को केवल एनएसडी तक सीमित कर देने से उन प्रस्तुतियों को जगह नहीं मिल सकेगी,जो बहुत बेहतर हैं और एनएसडी में सम्बंधित नहीं हैं |'रानावि समिति ने प्रसन्ना के इस तर्क को तब खारिज करते हुए कहा था कि,चूँकि इस वर्ष एनएसडी ने अपनी स्थापना के पचास वर्ष पुरे किये है,अतः रानावि के प्रशिक्षित रंगकर्मियों पर जोर ज्यादा है पर उनका संकेत यह था कि अगले वर्ष से यह व्यवस्था पूर्ववत हो जाएगी | यह व्यवस्था पूर्ववत होने का आश्वासनरूपी लेमनचूस आज तक उन रंगकर्मियों के मुँह में पडा हुआ है,जो बरसोंबरस से अपना रंगकर्म देश के छोटे-बड़े सेंटर्स पर प्रदर्शित करते जा रहे हैं | ऐसे में उनके मन में यह धारणा गांठ मारती जाए,कि इस भारंगम में रानावि दिल्ली में बैठे किसी माई-बाप के एटेस्टेशन या पुश के उनका काम देश-दुनिया के सामने इस मंच से नहीं दिखाया जा सकता,तो क्या आश्चर्य ? समझ में नहीं आता कि यह जो बेहतरीन(?) और बड़ा आयोजन थियेटर को प्रभावी भूमिका में लाने के लिए हो रहा है,उसके आयोजक या मालिक-मुख्तार इसके एक मुकम्मल भारतीय (विदेशी भी )रंगकर्म की भूमिका का प्रसार रचने में कितना गंभीर है? कितनी ईमानदारी से इसे आम-दर्शक से जोड़ने का प्रयास हो रहा है(अब तो कोई टिकट मूल्य भी ऐसा नहीं बचा कि आम छात्र भी इसका हिस्सा बन पाए ) तथा एनएसडी से दूर रहकर चुपचाप रंगकर्म में प्रवृत अनेक रंगधुनी कैसे और कब अपना मुकाम इस मंच पर पा सकेंगे | जिस दिन यह कदम ईमानदारी से उन अब तक उपेक्षित रंगधुनियों तक चलके जायेंगे तब इस रंग-महोत्सव का स्वरुप और विशद,विशाल, रंगीन और सम्पूर्ण हो सकेगा | कुछ ऐसा कदम हो,जिसका रूप वास्तव में अखिल भारतीय हो | जहां एनएसडी के साथ-साथ भारत भवन,भारतेंदु नाट्य अकादमी,कालिदास रंगालय,सुदुर पूर्वोत्तर,दक्षिण,पश्चिम और उत्तर के अनेक छोटे-बड़े सेंटर्स के रंगकर्मी अपने-अपने मास्टरपीस लेकर आने वाले समय में इस मंच पर आयें और सम्पूर्ण विश्व के सामने सच्चे अर्थों में भारतीय रंग-परंपरा को लाये | बिना यह हुए भारंगम अपने उद्देश्यों में इसी तरह के विवादों की नर्सरी बनता रहेगा |
और किसी मुगालते या गफलत कि हमीं बेस्ट हैं, में रहकर केवल अपनी पीठ थपथपाने से भी कुछ नहीं होने वाला है ऐसे में यह महज़ चमकदार वार्षिक आयोजन ही रह जायेगा | जो भारंगम के चरित्र और मंच के लिए तो अच्छा कतई नहीं है | पर यह घेरे-खेमे से परे कब जायेगा,कुछ साफ़-सा नहीं दिख रहा | भारतीय राजनीति के चरित्र और तेवर की झलक कला-जगत में ना ही दिखे तो बेहतर है,क्योंकि यह रंग-ढंग वहीँ का है,जिसकी जगह कम-से-कम भरतमुनि के वंशजों की कर्मस्थली में नहीं है और ना होना चाहिए |

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