सपनों की कब्रगाह है-बॉलीवुड..


"इस मायानगरी में कई पहुंचे पर हर जुम्मे चढ़ते-उतारते सूरज के साथ ही अपने वजूद को बनाते-तलाशते खो गए"-
कुछ को उनकी मन-माफिक ज़मीन नहीं मिली कुछ को सही पहचान.जज्बे और जीवट वाला यहाँ फिर भी रुके और खुद को बनाने की जुगत में लगे रहे.यह बात तो सभी को मालुम है कि,इतने पुराने बरगदों के बीच किसी नए बिचडे को अपनी जमीन पकड़ने में क्या परेशानी होती है उसे आसानी से समझा जा सकता है.इन बिचडों को उन्ही के बीच का थोडी जगह बना चुका पेड़ ही पहचान सकता है और अमूमन ऐसा ही होता आया भी है.पीयूष मिश्रा पहले ऐसे शख्स या कलाकार नहीं हैं जिन्हें अपनी जमीन बनाने में समय लगा है.इससे पहले रंग-जगत से उधर को(सिनेमा जगत)जाने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है.कुछ अभी उधर जाने की उड़ान भरने को तैयार बैठे अपने दिनों को मजबूत बनाने में लगे हैं और मुम्बई से अपने कनेक्शन तलाशने में लगे हैं.वैसे भी एन एस डी के तीन साल या रंगमंडल के लम्बे समय और अपना अमूल्य रंग-योगदान देने.,या फिर श्रीराम सेंटर इत्यादि जगहों पर ऐसे कई कलाकारों की जमात देखी जा सकती है.जो चाय के अनगिनत प्यालों के साथ अपने सपने बुन रहे हैं या उधर का जुगाड़ फिट करने में लगे रहते हैं.यह सही है कि प्रतिभा लोहा मनवा लेती है पर क्या हो अगर ये प्रतिभा सही समय पर असर ना दिखाए.तब स्वाभाविक है कि कुंठा और फ्रस्ट्रेशन बढती है.एक समय की नामचीन और बेहतरीन अभिनेत्री 'सुरेखा सीकरी'को सही पहचान अब टीवी पर 'बालिका वधू'के मार्फ़त मिली है और लोगों ने (आम औडिएंस)ने उनकी रेंज को देखा है.इसके उलट अभी भी कई ऐसे कलाकार हैं जो अभी भी छिटपुट किरदारों में यदा-कदा दिख जाते हैं.इंडियन एक्सप्रेस को दिए अपने साक्षात्कार में पीयूष मिश्रा का दर्द उनकी बातों में झलक जाता है(२९-०३-२००९),साथ ही ,हमें राजेंद्र गुप्ता से लेकर रघुवीर यादव तक का उदाहरण सामने नज़र आता है जिन्होंने रंगमंच से सिनेमा में अपनी पैठ बनायी.ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह तो खैर अब माईलस्टोन बन चुके हैं,सफल और बहुत ही सफल.इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अकेले इन दो कलाकारों ने जो रास्ता और पहचान बनायीं है वह सभी के लिए प्रेरणा-स्त्रोत है.पर बात वही है कि सभी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता ,किसीको...-बहरहाल रंगजगत से जो बड़ा रेला सिल्वर स्क्रीन की ओर झुक रहा है उसके पीछे कौन सी मेन बातें हैं ?इस पर ध्यान देना अधिक जरुरी है.पीयूष मिश्रा जैसा समर्थ कलाकार यह कहने को मजबूर हो जाता है कि 'yes i was restless for success'-अभी भी रंगमंच इस स्थिति में नहीं आ पाया है कि एक कलाकार को उसकी जिंदगी को सहज और सफल तरीके से चला सके.यह भले ही हम कह दे कि ऐसा नहीं है और परिस्थितियाँ बदल रही हैं-पर क्या वाकई ?रंगमंच के ये पुतले क्यों बॉलीवुड में नकार दिए जाते हैं या उन्हें उनकी सही जगह नहीं मिलती इसको देखने की जरुरत है.जब तक सपने ज़िंदा हैं तब तक आदमी जिंदा है ..'पाश'ने लिखा है ना कि 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना'-सही में बॉलीवुड सपनों को सच करने का एक मंच देता है पर यह बात भी उतनी ही बड़ी और कड़वी सच्चाई है कि यह जगह सपनों की कब्रगाह भी है...
शेष अगली पोस्ट में.

Comments

pravin kumar said…
film aur kalakaro ko lekar bhauk ho gaye ho yaar....thik hai...par chalta aa raha hai ye sab....ceativity ko hamesha khatara raha hai

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