लोकधर्मी नाट्य-परंपरा और भिखारी ठाकुर : स्वाति सोनल

स्वाति सोनल दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी और विश्वविद्यालय शिक्षण सहयोगी  हैं. फिलहाल लोकनाटकों पर पीएच.डी. शोधरत हैं. जन्नत टाकिज के लिए भिखारी ठाकुर पर लिखा इनका शोध -पत्र  साभार आप सभी के लिए प्रस्तुत है-मॉडरेटर.
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चित्र साभार: http://www.exoticindia.com/books/nzc616.jpg

भारतीय लोकधर्मी नाट्य-परंपरा की प्राचीनता, विविधता, शक्ति व समृद्धि निर्विवाद है। आदिनाट्याचार्य भरतमुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र’ में भी ‘लोक’ के बुनियादी महत्त्व को रेखांकित किया गया है। अवश्य ही भरत के समक्ष नाट्य-प्रयोग की एक सुदृढ़ परंपरा रही होगी जो कि ‘लोक-परंपरा’ के रूप में उपस्थित होगी। नाट्यशास्त्रमें भरत ने इसी उपस्थित परंपरा को एक सुसंबद्ध व सर्वमान्य रूप प्रदान करने की चेष्टा की होगी। तभी उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र’ में स्थान-स्थान पर ‘लोक’ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए किसी भी प्रकार के संशय की स्थिति में उसके समाधान हेतु ‘लोक’ की ओर दृष्टि का निर्देश किया है –
“लोको वेदस्तथाध्यात्मं प्रमाणं त्रिविधिं स्मृतम् I
वेदाध्यात्मपदार्थेषु प्रायो नाट्यं प्रतिष्ठितम्   II 23 II
वेदाध्यात्मोपपन्नं तु शब्दच्छन्दस्समन्वितम् I
लोकसिद्धं भवेत् सिद्धं नाट्यं लोकात्मकं तथा II 24 II
न च शक्यं हि लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च I
शास्त्रेण निर्णयं कर्तुं भावचेष्टाविधिं प्रति    II 25 II
नानाशिला: प्रकृतय: शीले नाट्यं प्रतिष्ठितम् I
तस्माल्लोकप्रमाणं हि विज्ञेयं नाट्ययोक्तृभि: II 26 II
अर्थात् नाट्य में तीन प्रमाण माने गए हैं – लोक, वेद तथा अध्यात्म। नाट्य प्राय: वेद और अध्यात्म में प्रतिष्ठित है (23)। वेद तथा अध्यात्म से युक्त तथा शब्द और छंद से समन्वित नाट्य लोकसिद्ध तथा लोकात्म होता है (24)। इस स्थावर-जंगम (जड़-चेतन) लोक की भाव और चेष्टाओं का निर्णय शास्त्र से संभव नहीं (25)। लोक में विभिन्न प्रकार के स्वभाव वाले लोग होते हैं और स्वभाव में ही नाट्य प्रतिष्ठित है। इसलिए नाट्य-प्रयोक्ता को लोक प्रमाण को स्वीकार करना चाहिए (26)।” [1]
लोक में प्रचलित नाट्य-परंपरा की दीर्घकालीनता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “इसके (‘नाट्यशास्त्र’ के) पूर्व अनेक नाट्यग्रन्थ और नाटक लिखे गए होंगे और नृत्य, संगीत आदि सुकुमार विनोदों की बहुत पुरानी परंपरा रही होगी; क्योंकि ‘नाट्यशास्त्र’ में सैकड़ों ऐसी नाट्यरुढियाँ बताई गई हैं जो बिना दीर्घकाल के परंपरा के बन ही नहीं सकतीं।”[2]
 डॉ. शिवकुमार मधुरने भी इसी लोक-परंपरा की महत्ता और प्राचीनता का उल्लेख करते हुए लिखा है- “भरत का नाट्यशास्त्र कोई आकस्मिक उपज नहीं है, वरन् पूर्व परंपरा को लेकर की गई एक सुनिश्चित योजना है। क्योंकि इतना तो स्पष्ट है कि भरत के नाट्यशास्त्र का आधार लोकनाट्य ही रहे होंगे।”[3] निश्चित ही भरत ने अपने समय में उपस्थित लोकधर्मी नाट्य-परंपरा का अध्ययन व चिंतन-मनन कर, इस प्रचलित कला-रूप को ‘नाट्यशास्त्र’ में शास्त्रीय रूप देने का प्रावधान किया है। ‘नाट्यशास्त्र’ में उन्होंने न केवल ‘लोकधर्मी’ व ‘नाट्यधर्मी’ परम्पराओं का उल्लेख-मात्र किया है, अपितु ‘लोकधर्मी’ नाट्य-परंपरा का ‘नाट्यधर्मी’ रूढ़ियों के विकास में अमूल्य योगदान को भी स्वीकारा है। भरत द्वारा परिभाषित ‘लोकधर्मी’ अभिनय की वह शैली है जो स्वाभाविकता पर बल देती है। लोक अपने दैनंदिन जीवन में जैसा आचरण करते हैं जब वैसा ही मंच पर भी अभिनीत किया जाये तो वह ‘लोकधर्मी’ अभिनय शैली के अंतर्गत आएगा। ‘लोकधर्मी’ नाट्य-प्रयोग ताम-झाम रहित, शुद्ध-स्वाभाविक अभिनय पर आश्रित है। लोकवार्ता व लोकक्रिया इसके मूल आधार है न कि दृश्य-सज्जा, अलंकृतता व अन्य ताम-झाम।
जब अभिनय-प्रदर्शन लोक या जन-साधारण की परंपरा के अनुसार हो तो वह ‘लोकधर्मी’ कहलाता है। यह तथ्यात्मक अपरिष्कृत या ग्राम्य विधि है जिसमें कि कृत्रिमता का परिहार व पूर्णतया सादगी पर बल रहता है। इसमें अतिरंजकता का समावेश नहीं होता। ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय शैली ‘लोकधर्मी’ अभिनय शैली की अपेक्षा अधिक कल्पना-समृद्ध, वैचित्र्यपूर्ण व अनुरंजक होती है। इसमें सांकेतिक वाक्य, स्वगत या आकाशभाषित का प्रयोग मिलता है। इसके पात्र दिव्य और अदिव्य दोनों होते हैं। नृत्य व संगीत का शास्त्रीय रूप इसमें प्रस्तुत होता है। पात्रों की भूमिका में ‘विपर्यय’ (पुरुष स्त्री-पात्र की भूमिका में व स्त्री पुरुष-पात्र की भूमिका में) ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय शैली के अंतर्गत आता है। मानवीय सुख दु:खादि को आंगिक अभिनय एवं वाद्यादी के संयोग से अतिरेक रूप में प्रस्तुत करना ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय की विशेषता है। ‘लोकधर्मी’ विधा ‘नाट्यधर्मी’ विधा का आधार है। ‘लोकधर्मी’ की नींव पर ही ‘नाट्यधर्मी’ का प्रासाद तैयार होता है। मौलिक तत्त्व ‘लोकधर्मी’ व उसका परिष्कृत रूप ‘नाट्यधर्मी’ होता है।[4]
हम यह कह सकते हैं कि ‘लोकधर्मी’ व ‘नाट्यधर्मी’ के मध्य एक निश्चित विभाजक रेखा खींच पाना संभव नहीं है। दोनों की सीमाएँ घुली-मिली रहती हैं। किसी प्रयोग में किस शैली की प्रधानता है इस आधार पर हम उसे एक निश्चित शैली-विशेष के अंतर्गत डालते हैं। जब सहज लोक-जीवन के विविध पक्षों का चित्रण बिना ताम-झाम के, सादगीपूर्ण ढंग से लोक द्वारा, लोक के लिए प्रस्तुत हो तो हम उसे ‘लोकधर्मी’ प्रयोग कहेंगे भले ही उसमे बीच-बीच में एकाधिक ‘नाट्यधर्मी’ प्रयोग के चिन्ह मिले। यहाँ सुप्रसिद्ध पारंपरिक नाट्यकर्मी कावलम नारायण पणिक्कर को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। संगीता गुन्देचा से भेंटवार्ता के दौरान ‘लोकधर्मी’ और ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय शैली पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा है, “जहाँ तक लोकधर्मी और नाट्यधर्मी का प्रश्न है, उनमें डिग्री का फर्क है। लोकधर्मी में भी नाट्यधर्मी के गुण होते हैं और नाट्यधर्मी में लोकधर्मी के।”[5]
“लोक-प्रवृत्तियों से संवादी नाट्य ‘लोकधर्मी’ तथा उसका सौन्दर्याधायक अंश ‘नाट्यधर्मी’। ‘लोकनाटक’ का तंत्र और रचना-विधान शास्त्रीय नाटक के स्तर से कभी नहीं लिया जा सकता। इसमें शास्त्र के स्थान पर लोक-परंपरा और चिरविकसित नाट्यरूढियाँ मूल्यवान हैं। गीत, नृत्य, पुराण (मिथ) तथा यथार्थ जीवन-प्रसंग और लोककथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। लोकनाटक के कथानक और इतिवृत्त में एक के बाद एक दूसरी घटना, गीत और नृत्य के ताल-मेल से घुलती-मिलती हुई आगे बढती है, कभी व्यवस्थित ढंग से, कभी अव्यवस्थित ढंग से। तभी लोकनाटक को जीवन और प्रवृत्ति की सहज ‘प्रतिछवि’ की संज्ञा मिली है। इसका मंच जीवन के बीच अपने आप रच उठता है। चारों ओर जन-परिधि में घिरकर कहीं भी, किसी स्थान पर नदी या रम्य मार्ग में, किसी वृक्ष तले इसका मंच अपने आप उभर आता है। न इसमें पट-परिवर्तन के प्रसाधन की अपेक्षा है, न दृश्य-परिवर्तन कि आवश्यकता।”[6]
लोकधर्मी नाट्य-परंपरा में भिखारी ठाकुर का विशिष्ट स्थान है। 18 दिसंबर 1887 ई. में बिहार के सारण जिला के अंतर्गत जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर का सम्पूर्ण जीवन अपने नाटकों के लिए समर्पित रहा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें ‘भोजपुरी का अनगढ़ हीरा’ कहा है। वहीँ अंग्रेजी के विद्वान डॉ. मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने इन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ की संज्ञा दी है. हालाँकि शेक्सपियर से भिखारी ठाकुर की समानता दोनों के नाटकों की पद्यात्मकता और लालित्य-कौशल को लेकर की जा सकती है, परन्तु जहाँ तक कथानक, भाषा, भावभूमि व निरूपण का क्षेत्र है दोनों में अत्यंत भिन्नताएँ हैं। शेक्सपियर के नाटक अभिजात और शास्त्रीय के अंतर्गत आते हैं जबकि भिखारी ठाकुर के नाटक शत-प्रतिशत लोक-जीवन से जुड़े हैं। भिखारी ठाकुर के नाटकों में लोकजीवन समग्रता से उभर कर आया है। लोकधर्मी नाटक की तमाम विशेषताएँ – लोकजीवन का सम्यक चित्रण, सादगी पूर्ण दृश्य-विधान, गीत संगीत की प्रधानता, लचीलापन (सब कुछ शास्त्रीय नियम सम्मत न होकर ‘इम्प्रोवाइजेशन’ की पूरी गुंजाइश) – ये सब भिखारी ठाकुर के नाटकों में मिलते हैं। अपने नाटकों में उन्होंने तत्कालीन स्थानीय समस्याओं का निरूपण अत्यंत कुशलता व कलात्मकता के साथ किया है, जिससे कि वे मार्मिकता के साथ साथ मनोरंजकता की नई ऊँचाईयाँ छूने में सफल रहे। जहाँ कहीं दर्शक-वर्ग उनके नाटकों में आये करुणापूर्ण दृश्यों के साथ तादात्म्य स्थापित कर अश्रुधारा प्रवाहित करने लगता वहीँ बटोहिया या विदूषक तुरंत विषय परिवर्तन कर अपनी वाकपटुता से माहौल को हल्का बना देता। उनके नाटकों में दर्शक और कलाकारों के मध्य का सम्बन्ध कृत्रिम न होकर सहज-स्वाभाविक होता। दोनों के मध्य सीधा संवाद स्थापित होता था। साथ ही उनके नाटकों के पात्रों में विशिष्टीकरण का अभाव मिलता है। इनके हर पात्र बहुआयामी होते हैं। क्षणभर पहले जो पात्र बटोहिया या बिदेसिया की भूमिका में नजर आता दूसरे ही क्षण अपनी भूमिका निर्वाह के पश्चात मंच पर ही वह खंजरी, ढोलक बजाने वालों के मध्य शामिल हो जाता। जो लोग ‘अलगाववाद’ की सिद्धांत (A।ienation Theory) रूप में अवधारणा को ब्रेख्त या पश्चिम की देन मानते हैं, उनका यह भ्रम भिखारी ठाकुर के नाटकों से परिचय के पश्चात बखूबी समाप्त हो जाता है।
हालाँकि भिखारी ठाकुर ने अनेक नाटक रचे व खेले हैं, परन्तु ‘बिदेसिया’ नाटक उनकी विशेष पहचान बन चुका है। कहा जाता है कि ‘बिदेसिया’ नाटक उनकी पहली नाट्य-रचना है। अपने गाँव कुतुबपुर में जब उन्होंने रामलीला मंच की स्थापना की थी तो उसी पर इस नाटक को पहली बार अभिनीत किया गया था। यह नाटक इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि आने वाले समय में भिखारी ठाकुर और ‘बिदेसिया एक दूसरे के पर्याय से बन गए और उनके सभी नाटकों को बिदेसिया रंगमंच के अंतर्गत ही गिना जाने लगा। ‘बिदेसिया’ के अलावा उनके अन्य नाटकों में – राधेश्याम बहार नाटक, द्रौपदी पुकार नाटक, गंगा-स्नान, सूरदास, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलाप, ननद-भौजाई संवाद, पुत्र-वध आदि उल्लेखनीय है। नाटक के नामों के शीर्षक से ही इनके विषय-वस्तु के अंतर्गत आने वाली समस्याओं व स्थितियों का पता चल जाता है।
लोकमानस प्राय: धर्म के प्रति अनुरागी हुआ करता है। लोकजीवन के कलाकार होने के कारण भिखारी ठाकुर के नाटकों में राम, कृष्ण, गंगा आदि से सम्बंधित प्रसंग प्रमुख स्थान प्राप्त करते हैं। भिखारी ने प्रसिद्ध रामायण कथा व कृष्ण कथा के विराट विस्तार में से लोकजीवन में प्रचलित अंशों को चुनकर अपने गीति-नाट्यों को सजाया। किन्तु इस अंतर के साथ कि इन कथाओं के नायक व इनमे प्रचलित धार्मिक-सामाजिक अनुष्ठान पर भिखारी भोजपुरी क्षेत्र की संस्कृति को आरोपित कर देते हैं। उदाहरणार्थ- भिखारी द्वारा वर्णित राम की बारात रामचरितमानस के अयोध्या की बारात से बिलकुल भिन्न भोजपुर की बारात मालूम पड़ती है। परिछावन, गुरहत्थी, लावाछिंटाई, पाणिग्रहण आदि विधियों से लेकर बारातियों के आपसी नोक-झोंक का अत्यंत विस्तार से वर्णन उनके नाटकों में मिल जाता है। कृष्णलीला सम्बन्धी भिखारी के पदों की विशेषता उनका दो रूपों में प्रयोग है। प्राय: हर पद या गाना एक ओर पद या गाना है तो दूसरी ओर संवाद का सहज रूप। यह भिखारी के नाटकीय कौशल का प्रमाण है। भिखारी के नाटकों के सामाजिक संदर्भ व परिवेश के सफल चित्रण में उनके पात्रों के नाम-चयन भी अत्यंत उपयुक्त हैं, जैसे – गबर, उपकारी, उपदर, उजागर, प्यारी, दुलारी, मलेछु, गलीच, झांटुल, उद्वास, चटक, लोमा, उत्पातो आदि। नामों की सूची में प्राय: हर नाम नागरिकता व प्रबुद्धता से दूर ग्राम्यता या भदेसपन के निकट है।
लोकधर्मी नाटक की सार्थकता उसके मंचन में ही निहित है। ये नाटक खेले जाने के लिए ही रचे जाते हैं। इनके लिखित पाठ से महत्त्वपूर्ण इनका मंचन होता है। स्थान की उपलब्धता व दर्शक के रुझान के अनुकूल इन्हें उसी समय छोटा बड़ा कर दिया जाता है। भिखारी ठाकुर के नाटक इस दृष्टि से एकदम खरे उतरते हैं। नाटकों के प्रति पूर्वाग्रह या कठोर अनुशासन के स्थान पर दर्शकों की रुचि उनकी प्राथमिकता रही है। अगर दर्शक किसी दृश्य-विशेष में रम रहे हैं तो आवश्यकतानुसार कल्पना का प्रयोग कर, नई बातें गढ़ कर पात्र दृश्य को बड़ा करते चलते हैं; और अगर दर्शक पक्ष से मनोनुकूल प्रतिक्रिया न मिल रही हो तो नाटक छोटा करने के लिए कुछ खण्डों को छोड़ भी दिया जा सकता है। इससे नाटक की पूरी कथा बाधित नहीं होती। जिस स्थान पर नाटक खेला जा रहा हो अगर वहाँ की कोई ज्वलंत समस्या हो तो  भिखारी ठाकुर किसी न किसी बहाने उसकी चर्चा अपने नाटकों में करा देते। यह ‘इम्प्रोवाईजेशन’ (Improvisation ) लोकधर्मी नाटकों में ही पाया जाता है। ‘लचीलापन’ लोकधर्मी नाटकों की विशेषता है।
लोकधर्मी नाटकों में कथानक व पात्र अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं न कि मंच-व्यवस्था। सब कुछ मंच पर उपस्थित कराने का आग्रह न होकर बहुत कुछ दर्शकों की कल्पनाशक्ति पर भी छोड़ दिया जाता है। भिखारी ठाकुर की मंच-व्यवस्था में भी स्थानीय व सुलभ रूप में उपलब्ध हो पाने वाले साधनों का ही उपयोग होता था। मंच खुला व अत्यंत मामूली होता था। पीछे के भाग पर एक साधारण पर्दा टंगा होता था जिसके सामने वाद्य-यंत्र बजाने वाले मंच के एक कोने में बैठते थे। मंच पर पात्रों का आवागमन सीधे-सादे ढंग से नेपथ्य से या फिर कई अवसरों पर दर्शकों के मध्य से गुजर कर भी होता था। पात्रानुकूल वेशभूषा होती थी पर इसमें भी अनावश्यक ताम-झाम से परहेज किया जाता था। इन सबके बावजूद भिखारी ठाकुर के नाटकों की लोकप्रियता का रहस्य यही मालूम पड़ता है कि उनके प्रदर्शन दर्शकों के लिए इतने आत्मीय व विश्वसनीय इसीलिए हो जाते थे क्योंकि उनकी कथावस्तु का सम्बन्ध लोकजीवन के उस वर्ग से संबद्ध था जो कम से कम साधनों में जीने का अभ्यस्त था। उनके लिए बेमतलब के ताम-झाम व दृश्य-सज्जा का उतना महत्त्व नहीं होता जितना कि अभिनय व्यापार की सहजता व संप्रेषणीयता का। नाटक में प्रदर्शित स्थितियों व समस्याओं से दर्शक का सहज तदाकार हो जाता था। चाहे नौकरी की तलाश में नवविवाहिता पत्नी को छोड़ दूसरे देश नौकरी के लिए जाने की विवशता हो या पैसे के अभाव में बेमेल विवाह की कारुणिकता; वैधव्य के भयानक अभिशाप का चित्रण हो या संपत्ति के लालच में परिवार का बंटवारा; या फिर ननद-भौजाई की मीठी झडपें अथवा देवर-भाभी के बीच की समस्याएँ – इन सारे के सारे प्रसंगों से लोक का जुडाव सहज-स्वाभाविक रूप में हो जाता।
लोकधर्मी नाट्य-परंपरा में गीत, संगीत व नृत्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भिखारी के नाटकों में पद्यात्मकता की प्रधानता इसी महत्ता का निर्वाह करती नजर आती है। लिखित पाठ पर बहुत अधिक जोर न होने के कारण पद्य रूप में संवाद सहज रूप में स्मरणीय व संप्रेषणीय होते हैं। भिखारी के नाटकों में पात्रों का कथोपकथन अधिकांश काव्य/पद्य रूप में ही मिलता है। संस्कृत नाट्य-परंपरा की तर्ज़ पर नाटकों की शुरुआत भी मंगलाचरण से होती है। वाद्य-यंत्र भी सारे के सारे प्रचलित होते थे, जैसे – ढोलक, झाल, हारमोनियम, कंसी, सारंगी. करताल, झाँझ, खँजरी आदि।
भिखारी ठाकुर के नाटकों में अधिकांशत: नारी पात्रों की भूमिका पुरुष ही करते थे। स्वयं भिखारी ठाकुर सत्तर साल की उम्र में भी एक अल्हड गोपी की भूमिका इस प्रकार निभाते थे कि दर्शकों के लिए इस बात का अनुमान लगा पाना कठिन होता था कि षोडशी गोपी की भूमिका सत्तर साल का बूढ़ा निभा रहा है। यह ‘विपर्यय’ नाट्यधर्मी शैली का अंग है, परन्तु भिखारी ठाकुर के नाटकों में शास्त्रीय नियमबद्धता के पालन के रूप में न आकर यह तत्कालीन समाज के नियमों के अनुकूल था जिसके अनुसार स्त्रियों का मंच पर सबके सामने अभिनय करना अच्छा नहीं माना जाता था। इसी करणवश स्त्री पात्रों की भूमिका भी पुरुष अभिनेता ही करते थे। संकलन-त्रय के प्रति भी बहुत आग्रह भिखारी के नाटकों में नहीं मिलता। अगर बिदेसिया को गाँव से कलकत्ता जाना है तो वह बजते गीत के लय पर झूमता मंच के एक दो चक्कर काटता और इस उक्ति के साथ कि ‘लो भैया! पहुँच गए कलकत्ता’, कलकत्ता पहुँच जाता। लोकधर्मी शैली में बल बिलकुल यथार्थवादी निरूपण पर न होकर सहज रूप से संप्रेषण पर होता है। इस सहज संप्रेषण में लोकधर्मी नाट्यधर्मी की रेखाएँ घुल मिल जाती हैं।
भिखारी ठाकुर के नाटकों की लोकग्राहिता ही इसका प्राण है। ये लोकधर्मी नाटक लोक द्वारा, लोक के लिए, लोक का जीवंत, यथातथ्य व मनभावन चित्रण है। बिना पाठ में लगे ये लोकधर्मी नाटक आज भी लोगों के मन में रचे बसे हैं ये इनकी जीवंतता व लोकप्रियता का सहज प्रमाण है।


सहायक ग्रन्थ :
1.     बिहार की नाटकीय लोकविधायें, डॉ. महेश कुमार सिन्हा, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, प्रथम संस्करण जुलाई 2001।
2.     संक्षिप्तनाट्यशास्त्रम्, राधावल्लभ त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, द्वितीय आवृत्ति 2009।
3.     समकालीन रंगमंच, दीनानाथ साहनी, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, प्रथम संस्करण 2003।
4.     भारत के लोकनाट्य, डॉ. शिवकुमार मधुर’,  वाणी प्रकाशन, प्र.सं. 1980।
संपर्क :
स्वाति सोनल      
शोधार्थी
हिंदी-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, ई-मेल :- swatisn।@gmai।.com

संदर्भ सूची.


[1] संक्षिप्तनाट्यशास्त्रम्, राधावल्लभ त्रिपाठी, पृ. 232-33, वाणी प्रकाशन, द्वितीय आवृत्ति 2009.
[2] प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, हजारी प्र. द्विवेदी, पृ. 21, राजकमल प्रकाशन, प्र.सं. 1963.
[3] भारत के लोकनाट्य, डॉ. शिवकुमार ‘मधुर’, पृ. 6, वाणी प्रकाशन, प्र.सं. 1980.
[4] नाट्यशास्त्र में आंगिक अभिनय, डॉ. भारतेंदु द्विवेदी, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, ज्ञानपुर (वाराणसी), प्र. सं. 1990.

[5] रंग-प्रसंग, सम्पादित द्वारा प्रयाग शुक्ल, नई दिल्ली : राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का अर्द्धवार्षिक वृत्त, 2001.
[6] रंगमंच और नाटक की भूमिका, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, नेशनल पब्लिशिंग हॉउस, संस्करण 1965. 

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