बस यही बचे थे?अब हाय-तौबा क्यों?
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के निजी वस्तुओं की नीलामी की खबरें पिछले कई दिनों से सूचना-तंत्रों की सुर्खियों में थी.पता नहीं हर बार ऐसे मामलों पर हमारी गवर्नमेंट को क्या हो जाता है.शायद किसी कंट्री में ऐसा नहीं होता होगा जहां उसके फादर ऑफ़ द नेशन के साथ इतनी बेरुखी से पेश आया जाता है.बहरहाल,गांधीजी की चीज़ें अपनी सही जगह पर आ गयी हैं.देशवासियों को जय हो..जय हो...करना चाहिए.(शायद).पर,देखने वाली बात ये है कि हमारे जो वस्तुएं इतनी महत्वपूर्ण हैं, वह लाया किस आदमी ने ?जिस नशाबंदी और नशाखोरी के खिलाफ गांधीजी जीवन भर संघर्षरत रहे आखिर उसी फिल्ड के महारथी कहे जाने वाले शराब किंग "विजय माल्या"ने गांधीजी के इन सामानों को खरीद लिया और देश लेकर आये हैं,वह भी एक बड़ी भारी रकम देकर.अब अखबार वाले चिल्ला रहे हैं कि,आखिर एक शराब का व्यवसायी ऐसा कैसे कर सकता है,पर इतने से माल्या के इस काम का महत्त्व ख़त्म नहीं हो जाता.अजी जब हमारी सरकार इस हद तक सोई है कि अब राष्ट्रपिता तक से ही पोलिटिक्स कर दिया.अब तो ये भी नहीं कहा जा सकता कि ये (व्यवस्था)संवेदनहीन हो गयी है.कम से कम इस काम से विजय माल्या ने समाज के एक बड़े हिस्से का दिल जीत लिया है.और मुझे नहीं लगता कि इसके भीतर के सूत्रों (जो हो भी सकते हैं और नहीं भी ,इस पर सोचने की जरुरत बेमानी है)को तलाशना सुबह लाने के लिए रात के अँधेरे को टोकरी में भरकर बाहर फेंकने जैसा निरर्थक प्रयास ही होगा.अब चाहे एक शराब व्यवसायी ने ही ऐसा किया हो पर उस पर ऊँगली उठाना अपनी खीझ दिखाने और खींसे निपोरने जैसा ही होगा..
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