"LE JUSTES"by अल्बेयर कामू-हिंसा के रास्ते क्रांति या क्रांति के लिए हिंसा की बहस


बीसवीं शताब्दी के महान चिन्तक और लेखक अल्बेयर कामू के नाटक le justes का हिंदी रूपांतर "न्यायप्रिय"(अनुवाद-प्रो.शरतचंद्रा और सच्चिदानंद सिन्हा)का सफ़ल मंचन पिछले ७-१० अक्टूबर को पटना के कालिदास रंगालय में नत्मंड़प नाट्य-समूह द्बारा किया गया.इस नाटक का निर्देशन संभाला था जाने माने रंग-निर्देशक और रंगकर्मी परवेज़ अख्तर साहब ने.'न्यायप्रिय'के प्रस्तुति आलेख की परिकल्पना हिन्दुस्तान की गुलामी और उससे मुक्ति के लिए की जा रही हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों को ध्यान में रख कर की गयी है.'न्यायप्रिय'का कथानक एक भूमिगत क्रांतिकारी संगठन के इर्द-गिर्द घूमता है.गुलाम भारत में यह क्रांतिकारी दल अँगरेज़ कलेक्टर की हत्या की योजना बनाता है,जिसमें शामिल होने के लिए कनाडा में फरारी जीवन जी रहा तेजप्रताप यहाँ आता है.शेखर जो दल में मस्ताना के नाम से मशहूर है,निश्चित कारवाई के दिन अँगरेज़ कलेक्टर की बग्घी में बच्चों को देखकर बम नहीं फेंक पाता.दल में इसको लेकर एक तीखी बहस शुरू हो जाती है.दमयंती दल की एक पुरानी सदस्य है,जो शेखर से प्रेम करती है.दल प्रमुख बलदेव दो दिन बाद बम फेंकने की योजना बनाता है.कलेक्टर की हत्या के बाद शेखर गिरफ्तार हो जाता है.जेल में खुफिया विभाग का अधिकारी शेखर को कई प्रलोभन देता है.शेखर से मिलने मारे गए अँगरेज़ कलेक्टर की पत्नी और पंडित त्रिवेदी भी पहुँचते हैं ताकि वह प्रायश्चित कर ले.शेखर को फांसी लगती है.फांसी के दिन एक गहरी पीडा से गुजरती दमयंती अगला बम फेंकने और फांसी के तख्ते तक पहुँचने का निश्चय करती है.(ब्रोशर)-यद्यपि 'न्यायप्रिय'क्रान्ति की हिंसा पर बहस है या फिर हिंसक क्रान्ति पर एक बहस.यह नाटक अपने आलेख और परिकल्पान में भले ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय में उपजे एक भूमिगत क्रांतिकारी दल के सदस्यों के बीच क्रान्ति के लिए हिंसा कितनी जरुरी क्यों जरुरी के पक्ष और विपक्ष के तर्कों को सामने लाता है पर मौजूदा हालात में आज जब नक्सली हिंसा की बढती घटनाओं के बीच बुद्धिजीवी वर्ग में मत-वैभिन्य हो रखा है तब इस नाटक के बहाने इस बात पर विचार करना अधिक जरुरी हो जाता है कि-

-क्या क्रान्ति के लिए हिंसा जरुरी है?

-अनदेखे न्यायपूर्ण समाज के भविष्य के लिए वर्तमान को लहूलुहान करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

-क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसक तरीके क्या मानवीय कष्टों को कम करते हैं?

-क्या पार्टी के कायदे और निर्देशों के बीच अपने दिल और मानवीय संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होती?नाटक में तेजप्रताप और शेखर के बीच की बहसें सार्त्र और कामू के समय की परिस्थितियों की ओर इशारा करती लगती है,कामू भी १९३५ में फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और बाद में अपने स्वतंत्र विचारों के कारण पार्टी से निष्कसित कर दिए गए.बहरहाल,नाटक पर लौटते हैं.नटमंडप के कलाकारों जावेद अख्तर खान ,मोना झा,विनोद कुमार,अजित कुमार निवेदिता,बुल्लू,,राजू,अनिश अंकुर आदि ने अपना शत-प्रतिशत अभिनय योगदान देकर इस नाटक को सफल बनाया.सबसे जरुरी बात जो यहाँ कहनी महत्वपूर्ण है वह ये कि पटना के कालिदास रंगालय में जिस स्थिति में नाटकों का मंचन हो रहा है और जिस अभाव में नाट्य-कला को यहाँ जीवित रखे हुए हैं वह काबिले-तारीफ़ है.उन्हें सैल्यूट करना चाहिए.बिहार की मिटटी ने अनेक रंग-विभूतियों को पैदा किया है और आज भी यहाँ परवेज़ अख्तर,जावेद अख्तर,मोना झा,विनोद कुमार,संजय उपाध्याय,राजीव रंजन आदि नामचीन रंगधुनी कार्यरत हैं जो राष्ट्रीय-अंतर्राश्तिर्य स्टार पर बिहार के रंगमंच को पहचान दिला रहे है पर बिहार का कला और संस्कृति मंत्रालय पता नहीं किस ओर आँखें मूंदे बैठा है.

अंत में ,परवेज़ अख्तर इस जटिल और बहस कायदे की बहस वाली वैचारिक नाट्य-प्रस्तुति के लिए प्रशंसा के पात्र हैं.न्यायप्रिय सच्चे अर्थों में le justes का सृजनात्मक प्रयास है.

Comments

nidhi said…
thak thak thak...vazu bhi kar liya, ab to jnnat me dakhilaa ho hi jaaye...
etihasik bahas hai ye yudh or shaanti ki.

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