स्क्रीन पर दर्दीली कविता की उपस्थिति : म्यूजिक टीचर



लेखिका और कवयित्री अनामिका अपने उपन्यास 'लालटेन बाज़ार' में लिखती हैं "संबंधों की इतिश्री की बात करते हो? प्रेम कोई नाटक नहीं जिसका परदा अचानक गिरा दिया जाए. ईश्वर की तरह प्रेम भी अनादि, अनंत है और इसलिए पूज्य भी. प्रेम का उपहास करने वाले मानवता का अपमान करते हैं और प्रकारांतर में ईश्वर का." नेटफ्लिक्स रिलीज 'म्यूजिक टीचर' इसी तरह के भावबोध का संसार रचती है. एक छोटे शहर का संगीत शिक्षक बेनीमाधव (मानव कौल) अपने भीतर एक पीड़ा, एक तरह का अफ़सोस, एक वियोग लिए, अपने भीतर एक एकांत लिए एक आसन्न की प्रतीक्षा में है. वह जो कभी उसका था, वह जो उसका हो न सका, वह जो अब उसके शहर आना है, उससे मिले भी या न मिले. क्या उसे मिलकर अपनी उस शिष्या, प्रेयसी जिसको उसने बड़े लाड़, प्रेम और फटकार से तैयार किया था. वह अपनी ज्योत्स्ना (अमृता बागची) जो अब बड़ी गायिका हो चुकी है से मिलना भी चाहता है और उसके उस सवाल का अब उत्तर दे देना चाहता है कि हाँ वह उसी पुल के ऊपर देवदारों की छाँव में उसका घंटों इंतज़ार करता है, जहाँ उसने ज्योत्स्ना के उस प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दिया था कि हाँ! मैं तुमसे प्रेम करता हूँ. क्या वाकई प्रेम इतना सपाटबयानी में अभिव्यक्त हो सकता है? क्या हमेशा से पुरुषों ने स्त्री के इस उत्तर का कि 'देव कल हमारा फैसला होना है, मैं तुम्हारा निर्णय जानना चाहती हूँ. तुम्हारा निर्णय क्या है देव' और देवदासों ने अधिकतर वही उत्तर दिया 'रात बहुत हो चुकी है, कोई देख लेगा, तुम चली जाओ'. म्यूजिक टीचर बेनी माधव के उत्तर ना दे सकने की स्थितियाँ इससे इतर नहीं हैं. ज्योत्स्ना बेनी से कहती है 'आपकी हाँ मेरे माँ बाबा को ना कहने की हिम्मत दे देगी.' वह हाँ, न पारो को मिला, न ज्योत्स्ना को. यही वजह है कि भरे मन से ज्योत्स्ना के चले जाने के बाद एक शाश्वत पीड़ा बेनी का स्थायी भाव बन जाती है. यदि 'हाँ' मिल जाता तो क्या ये कथाएं इतनी ऊँचाई पर जा पाती? लेकिन यह भी सत्य है कि प्रेमियों की प्रतीक्षा में अतीव धैर्य होता है. बेनीमाधव इसका अपवाद नहीं है. मानव कौल संभवतः अब तक के अपने सर्वश्रेष्ठ किरदार में हैं. बेनी ने बस निर्णय अपने मन से नहीं लिया सो कहता भी है - 'माँ! जो कुछ भी है दे दो. मैंने कब खुद अपनी मर्जी से चुना है.' उसे जिंदगी में हर चीज परफेक्ट चाहिए थी जबकि जिंदगी कभी परफेक्ट नहीं होती. यह उस संगीत के शिक्षक के अल्फाज़ हैं जिसके लिए 'जो दिल को छू जाए वह संगीत है, उसके लिए तो संगीत कम से कम यही है'. लेकिन वह संगीत का महारथी है, अच्छा शिक्षक है पर समय आने पर उसका दिल खुद की ही नहीं सुन सका. जिंदगी परफेक्शन की नहीं अधूरेपन का महाकाव्य है और संभवतः यही अधूरापन उसके प्रति आसक्ति का सबसे बड़ा कारण है. म्यूजिक टीचर हिमालय की खूबसूरत वादियों की गहराई लिए, देवदारों के घने जंगलों में फंसीं ठहरी ठंडी धुंध, बर्फीली नदियों के अनवरत प्रवाह सरीखी खूबसूरत भावनाओं और उसकी बारीकियों की सिल्वर स्क्रीन उपस्थिति है. एक किरदार गीता (दिव्या दत्ता) का है जो जितनी देर स्क्रीन पर रहता है, दर्शक उसकी पीड़ा में एकाकार हो जाते हैं. उसका पति दिल्ली में एक और शादी करके बस गया है और पीछे उसके बीमार ससुर की देखभाल दिव्या दत्ता के जिम्मे है लेकिन इसमें उसके भीतर की बर्फीली ख़ामोशी को जिस तरह से दिव्या जीती हैं वह उनको समकालीन अभिनेत्रियों से कोसों आगे खड़ा करता है. इस किरदार के हिस्से सबसे खूबसूरत संवाद आए हैं और देवदार के घने जंगलों की सघनता और पहाड़ों की मुर्दा शांति उसके जीवन में बेतरह समायी हुई है. इस फिल्म के कुछ संवाद दर्शक को देर तक भिंगों कर रखते हैं 'रिश्ते जबरदस्ती जोड़े जा सकते हैं, दिल नहीं', 'ये जो पहाड़ है न यहाँ जितनी मर्जी रो लो, जितना मर्जी चिल्ला लो, आवाज़ वापस हम तक ही पहुँचती है', 'जीवन में अपनी मर्जी की हर चीज नहीं मिलती', 'कभी-कभी दिल की भी सुन लेते हैं, हर बात दिमाग से तय नहीं किया जाता', 'मैं अपने दोस्तों पर बोझ नहीं बनती', 'मैं सोचती हूँ जो ख्वाहिशें पूरी ही नहीं की जा सकती उनका इंतज़ार कितना मुश्किल होता होगा, लेकिन अब लगता है कि ज़िन्दगी में बा सेक ख्वाहिश रह जाए न, तो इंतजार छोड़ देना और भी मुश्किल हो जाता है.' दिव्या दत्ता जब-जब अपने संवाद लेकर आती है दर्शक उनके किरदार के प्रेम में डूबता चला जाता है. म्यूजिक टीचर हृदय का पाठ है, बुद्धि का नहीं. दिव्या इस फिल्म के जिस भी फ्रेम में आई हैं, अपने हिस्से का दर्शकीय प्यार टोकरी भर ले जाती हैं. वह और मानव कौल मिलकर इंतज़ार को भी खूबसूरत बना देते हैं. कभी-कभी लगता है सीनियर एक्टर्स दिनों-दिन इमरौती होते जा रहे है नीना गुप्ता का किरदार इसकी पुष्टि करता है. बहन 'उर्मी' के रोल में निहारिका लयरा दत्त प्रभावित करती हैं. निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने इस फिल्म को लिखा भी है और गानों को रोचक कोहली ने अपने संगीत से जान दी है. फिल्म के एक गीतकार अधीश वर्मा भविष्य की उम्मीद जगाते हैं - ' एक मोड़ तू मिली जिंदगी / कुछ देर मिली फिर खो गई...टूटा तारा हूँ मैं / गिरता हूँ बेवजह / तेरे साए में मांगूँ मैं पनाह / ऐसा भी क्या हुआ ज़िन्दगी / मेरी हमसफ़र बनी / फिर हुई अज़नबी'. - यह गीत पपोन और नीति मोहन की आवाज़ में फिल्म का ओपनिंग और क्लोजिंग फ्रेम बड़े शानदार तरीके से तैयार करता है. बैकग्राउंड संगीत और कौशिक मंडल की फोटोग्राफी वर्क किस्से में बेहद खूबसूरती से उतरा है यानी जितनी प्यारी कथा उतना सुंदर फिल्मांकन. प्रेम, दर्द, विरह और पीड़ा म्यूजिक टीचर का शाश्वत और स्थायी भाव है, जहाँ ज्योत्स्ना की आवाज़ दूर तक वादियों में बेनी दा के कानों में गूंजती रहती है. इस भाव को लेखक-निर्देशक सार्थक दासगुप्ता, संवाद लेखक गौरव शर्मा, संगीतकार रोचक कोहली ने बड़े जातां से सिनेमाई कैनवास पर उतारा है. यह वाकई एक खूबसरत फिल्म नहीं बल्कि एक दर्दीली कविता है जो बड़ी देर तक आपके जेहन में समायी रहने वाली है. किरदारों के लिए जिस तरह के जीवन की रचना लेखक-निर्देशक की कल्पना की है, उसकी अनिवार्य पूर्ति कैमरा, प्रकाश, वातावरण और किशोर के गीत करते हैं. 'काँच के ख्वाबों को पलकों में लिए, फिर वही रात म्यूजिक टीचर को एक विशिष्ट ऊँचाई देती है. 'फिर वही रात है, रिमझिम गिरे सावन' जैसे पुराने गीतों का दृश्य अनुसार नूतन प्रयोग आजकल के रिमिक्स की हिंसा पैदा नहीं करता बल्कि सुकून के साथ आपको अपने साथ बहा ले जाता है. इतना ही नहीं, इसके किरदारों के हिस्से का दर्द आपका अपना बनकर साथ आता है और यही वजह है कि म्यूजिक टीचर एक ख़ास फिल्म बन जाती है. यह स्क्रीन पर प्रेम कविता की उपस्थिति है. जहाँ यह सन्देश निहित है 'चाहे जितनी जी जान लड़ा लो कोशिश कर लो ओर फिर भी जिंदगी परफेक्ट नहीं बन पाती. कभी हालात साथ नहीं देते तो कभी माँग, पर फिर भी ज़िन्दगी से कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, कभी नहीं.' वैसे भी 'गाने में एक सुर गलत लग जाए तो गाना छोड़ नहीं देते'. और हम जानते भी हैं कि 'मिलन अंत है सुखद प्रेम का और विरह है जीवन'. प्रेम का स्थायी भाव विरह. म्यूजिक टीचर देख लीजिए तब अहसास होगा कि किसी ने सच ही लिखा है 'Never underestimate the pain of a person because in all honesty everyone is struggling. just some people are better at hiding it than others.
* मुन्ना के. पाण्डेय                       
यह फिल्म समीक्षा मूलतः http://filmaniaentertainment.com/film_review.aspxके लिए लिखी गई है. 
फिल्म का टीज़र इs लिंक पर है  https://www.youtube.com/watch?v=OJ4Frv6JQtU
फिल्म netflix पर मौजूद है. 

Comments

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए राजनीति का नया दौर शुरू - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
(मोडरेटर की सहमति के बिना इस ब्लॉग का कोई भी अंश/लेख आदि प्रयोग में न लाएँ। इस संबंध में makpandeydu@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। सादर - मोडरेटेर, जन्नत टाकीज़)

Popular posts from this blog

लोकनाट्य सांग

विदापत नाच या कीर्तनिया

लोकधर्मी नाट्य-परंपरा और भिखारी ठाकुर : स्वाति सोनल