महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (अंतिम भाग)
गतांक से आगे (अंतिम भाग)...
भोजपुरी के किसी कवि गीतकार की तुलना में महेंद्र मिश्र का शास्त्रीय संगीत का ज्ञान अधिक व्यापक एवं गंभीर रहा है | उन्होंने कविता और संगीत के रिश्ते पर विचार किया जैसे सूरदास, निराला एवं प्रसाद ने किया | उनकी कविता सिद्ध करती है कि कविता में संगीत का तत्व होना कितना आवश्यक है | खासकर आज, जब मंचीय कवियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है और कविता का संगीत अथवा लय से रिश्ता लगभग समाप्त हो रहा है, उनकी कविता का महत्व बहुत बढ़ जाता है | वे जानते थे कि जिस तरह नाटक अभिनेयता के कारण ही सम्पूर्णता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कविता भी सांगीतिक तत्वों के साहचर्य से ही खिलती है और वास्तविक भावक के हृदय तक संप्रेषित होती है | उन्होंने व्याख्यान तथा कीर्तन का मंच भी अपनाया और जीवन भर कविता लिखते रहे | उनके गीत अर्थ और अनुभव की अनेक धाराओं को खोलने वाले हैं और वे सहज ही अक्षर और ध्वनि के बीच संगीत खोज लेते हैं | यही कला उनको एक समर्थ कवि-गीतकार के रूप में उपस्थापित करती है |
मिश्र जी की चिंता में हैं मानवीय भाव जगत के विभिन्न व्यापार, जिनमें संयोग की चिंता बहुत कम है, वियोग की मार्मिकता अधिक बेधक है | आज वैश्वीकरण और हाई-टेक-संस्कृति की भाषा की आपाधापी में मुख्यतः कविता और उसकी संवेदनशीलता का तेजी से क्षरण हो रहा है | घोर बौद्धिक युग का अवतार हुआ है और मानव की जड़ीभूत हो रही संवेदना उसे मानव रहने देगी,इसमें संशय हो रहा है | महानगरीय संस्कृति और उपभोक्तावादी जीवन-पद्धति के दौर में मानव को मानव बने रहने देना एक भीषण चुनौती है | एक साहित्यकार की संवेदनशीलता ही इस संकट की घड़ी में मानव के साथ है | ऐसी कविता जो छू सके, कहीं चित को शीतलता और शांति प्रदान कर सके - महेंद्र मिश्र की लेखनी से निकलती है | उनकी कविता सहज रूप से कहीं छूती है भीतर कुछ महसूस कराती है और सचमुच कविता कही जाने की अधिकारी है |
मिश्र जी द्वारा प्रणीत गीतों बीसों काव्य-संग्रहों की चर्चा उनके "अपूर्व रामायण" तथा अन्य स्थानों पर आई है | महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र दिवाकर, महेंद्र प्रभाकर, महेंद्र रत्नावली, महेंद्र चन्द्रिका, महेंद्र कुसुमावती, अपूर्व रामायण सातों कांड, महेंद्र मयंक, भागवत दशम स्कंध, कृष्ण गीतावली, भीष्म बध नाटक आदि की चर्चा हुई है | पर इनमें से अधिकाँश आज अनुपलब्ध हैं | एकाध प्रकाशित हुए और शेष आज भी अप्रकाशित हैं | मेरा अनुमान है कि ये छोटे-छोटे काव्य-संग्रह रहे होंगे और उनके गायक मित्रों द्वारा ले लिए गए अथवा सम्यक रख-रखाव के अभाव में काल कवलित हो गए | उनके अन्वेषण का कार्य शिथिल ही है | कवि ने अपने अपूर्व रामायण के अंत में अपना परिचय एक स्थल पर दिया है, जो सर्वाधिक प्रामाणिक परिचय है -
"मउजे मिश्रवलिया जहाँ विप्रन के ठट्ट बसे,
सुन्दर सोहावन जहाँ बहुते मालिकाना है |
गाँव के पश्चिम में विराजे गंगाधर नाथ ,
सुख के स्वरुप ब्रह्मरूप के निधाना हैं |
गाँव के उत्तर से दखिन ले सघन बांस ,
पूरब बहे नारा जहाँ कान्ही का सिवाना है |
द्विज महेंद्र रामदास पुर के ना छोड़ो आस,
सुख दुःख सब सह करके समय को बिताना है |"
(अपूर्व रामायण तारीख ०३-०५-१९२९ मंगलवार को समाप्त हुआ |)
दरबारी संस्कृति एवं सामन्ती वातावरण में रहकर भी महेंद्र मिश्र दरबारीपन से अलग रहे | हलिवंत सहाय जैसे वैभव विलासी के दरबार में रहकर भी उन्होंने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में एक भी कविता नहीं लिखी हैं | रीति काव्य परम्परा का प्रभाव उनके साहित्य पर है तथापि राधा कृष्ण के प्रेम चित्रण के नाम पर नख-शिख-वर्णन, काम-क्रीड़ा-दर्शन, शब्द-चातुरी अथवा दोहरे अर्थ वाले वाक्यों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया है | वे मूलतः संस्कारी भक्त थे, जिन पर राम भक्ति काव्य-परंपरा एवं कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है | अगर तुलसी ने राम भक्ति भव्य प्रसाद निर्मित किया है तो महेंद्र मिश्र ने भी शीतल राम मडैया खड़ा करने की कोशिश की है | उनकी कृष्ण भक्ति की कविताओं की अपेक्षा राम भक्ति की कविताओं में भक्ति तत्व अधिक हैं | ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है कि वे हनुमान के परम भक्त थे | असल में महेंद्र मिश्र का युग ही ऐसा था | उसके पूर्व भोजपुरी साहित्य का सृजन तो कम हुआ ही था और उस युग का हिंदी साहित्य भक्ति और श्रृंगार की मिली-जुली परंपरा का निर्वाह जिस प्रकार भारतेंदु ने किया उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भी किया | उनका हृदय भक्ति के रस से डूबा हुआ था पर उनकी संगीत साधना श्रृंगार एवं प्रेम से सिक्त थी | अपने जीवन का अधिकांश उन्होंने अपने सुख-वैभव में व्यतीत किया था, अतएव उनका रस प्रेमी हृदय उनकी रचनाओं में स्वतः अभिव्यक्त हो गया है | यहाँ यह भी स्मरणीय है कि उनकी साधनाओं कहीं भी बौद्धिक आध्यात्मिकपन नहीं है बल्कि आनंद की सरिता में अवगाहन की कोशिश है | उनकी रचनाओं का आधार श्रृंगारिक पर मूल भावना भक्तिमय ही है | उन्होंने भोजपुरी एवं खासकर पूरबी गीतों का अद्भुत परिमार्जन किया है |
महेंद्र मिश्र वस्तुतः इन्द्रधनुषी रचनाकार हैं | उनकी कविताओं ने अगर अपनी पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाई हैं, तो अवश्य ही उनमें कुछ वैशिष्ट्य रहा है | उन्होंने अपनी रचनाओं से भोजपुरी भाषा एवं साहित्य को समृद्धि प्रदान की है | रचनाकार का काम है रचना करना | रचना की सार्थकता और सामर्थ्य तय करना पाठकों का काम है तथा महेंद्र मिश्र की रचनाओं की सामर्थ्य को बेशक आम जनता ने तो तय कर दिया है | संस्कृत के आचार्य मम्मट ने एक स्थल पर लिखा है - " कविता की रस माधुरी तो कोई सहृदय पाठक ही जान पाता है न कि उसका रचयिता कवि | जैसे भवानी के भ्रू-विलास के सौंदर्य को भवानी-भर्ता शंकर ही जानते हैं न कि उनके जनक हिमालय |"(कविता रसमाधुर्य कर्विवेति न तत् कवि | भवानी भृकुटीर्भंग भवो वेति न भूधर : ||"
) मम्मट का कथन तो यहाँ तक स्वीकारता है कि स्वयं कवि से भी उच्च स्थान है, रसग्राही रसज्ञ पाठक का, जो कितनी ही अर्थ-छटाओं और भाव-भूमियों का तरल स्पर्श करता रस विभोर हो रस प्राप्त करता रहता है.........यही उनका स्थाई मूल्यांकन है | "भोजपुरी-काव्य में उनका वही स्थान है, जो मैथिली-काव्य में विद्यापति का |"(महेंद्र मिश्र की आध्यात्मिक चेतना : रमानाथ पाण्डेय | कविवर महेंद्र मिश्र के गीत संसार पृ.२३,सं.-डॉ.सुरेश कुमार मिश्र )
भोजपुरी के किसी कवि गीतकार की तुलना में महेंद्र मिश्र का शास्त्रीय संगीत का ज्ञान अधिक व्यापक एवं गंभीर रहा है | उन्होंने कविता और संगीत के रिश्ते पर विचार किया जैसे सूरदास, निराला एवं प्रसाद ने किया | उनकी कविता सिद्ध करती है कि कविता में संगीत का तत्व होना कितना आवश्यक है | खासकर आज, जब मंचीय कवियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है और कविता का संगीत अथवा लय से रिश्ता लगभग समाप्त हो रहा है, उनकी कविता का महत्व बहुत बढ़ जाता है | वे जानते थे कि जिस तरह नाटक अभिनेयता के कारण ही सम्पूर्णता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कविता भी सांगीतिक तत्वों के साहचर्य से ही खिलती है और वास्तविक भावक के हृदय तक संप्रेषित होती है | उन्होंने व्याख्यान तथा कीर्तन का मंच भी अपनाया और जीवन भर कविता लिखते रहे | उनके गीत अर्थ और अनुभव की अनेक धाराओं को खोलने वाले हैं और वे सहज ही अक्षर और ध्वनि के बीच संगीत खोज लेते हैं | यही कला उनको एक समर्थ कवि-गीतकार के रूप में उपस्थापित करती है |
मिश्र जी की चिंता में हैं मानवीय भाव जगत के विभिन्न व्यापार, जिनमें संयोग की चिंता बहुत कम है, वियोग की मार्मिकता अधिक बेधक है | आज वैश्वीकरण और हाई-टेक-संस्कृति की भाषा की आपाधापी में मुख्यतः कविता और उसकी संवेदनशीलता का तेजी से क्षरण हो रहा है | घोर बौद्धिक युग का अवतार हुआ है और मानव की जड़ीभूत हो रही संवेदना उसे मानव रहने देगी,इसमें संशय हो रहा है | महानगरीय संस्कृति और उपभोक्तावादी जीवन-पद्धति के दौर में मानव को मानव बने रहने देना एक भीषण चुनौती है | एक साहित्यकार की संवेदनशीलता ही इस संकट की घड़ी में मानव के साथ है | ऐसी कविता जो छू सके, कहीं चित को शीतलता और शांति प्रदान कर सके - महेंद्र मिश्र की लेखनी से निकलती है | उनकी कविता सहज रूप से कहीं छूती है भीतर कुछ महसूस कराती है और सचमुच कविता कही जाने की अधिकारी है |
मिश्र जी द्वारा प्रणीत गीतों बीसों काव्य-संग्रहों की चर्चा उनके "अपूर्व रामायण" तथा अन्य स्थानों पर आई है | महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र दिवाकर, महेंद्र प्रभाकर, महेंद्र रत्नावली, महेंद्र चन्द्रिका, महेंद्र कुसुमावती, अपूर्व रामायण सातों कांड, महेंद्र मयंक, भागवत दशम स्कंध, कृष्ण गीतावली, भीष्म बध नाटक आदि की चर्चा हुई है | पर इनमें से अधिकाँश आज अनुपलब्ध हैं | एकाध प्रकाशित हुए और शेष आज भी अप्रकाशित हैं | मेरा अनुमान है कि ये छोटे-छोटे काव्य-संग्रह रहे होंगे और उनके गायक मित्रों द्वारा ले लिए गए अथवा सम्यक रख-रखाव के अभाव में काल कवलित हो गए | उनके अन्वेषण का कार्य शिथिल ही है | कवि ने अपने अपूर्व रामायण के अंत में अपना परिचय एक स्थल पर दिया है, जो सर्वाधिक प्रामाणिक परिचय है -
"मउजे मिश्रवलिया जहाँ विप्रन के ठट्ट बसे,
सुन्दर सोहावन जहाँ बहुते मालिकाना है |
गाँव के पश्चिम में विराजे गंगाधर नाथ ,
सुख के स्वरुप ब्रह्मरूप के निधाना हैं |
गाँव के उत्तर से दखिन ले सघन बांस ,
पूरब बहे नारा जहाँ कान्ही का सिवाना है |
द्विज महेंद्र रामदास पुर के ना छोड़ो आस,
सुख दुःख सब सह करके समय को बिताना है |"
(अपूर्व रामायण तारीख ०३-०५-१९२९ मंगलवार को समाप्त हुआ |)
दरबारी संस्कृति एवं सामन्ती वातावरण में रहकर भी महेंद्र मिश्र दरबारीपन से अलग रहे | हलिवंत सहाय जैसे वैभव विलासी के दरबार में रहकर भी उन्होंने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में एक भी कविता नहीं लिखी हैं | रीति काव्य परम्परा का प्रभाव उनके साहित्य पर है तथापि राधा कृष्ण के प्रेम चित्रण के नाम पर नख-शिख-वर्णन, काम-क्रीड़ा-दर्शन, शब्द-चातुरी अथवा दोहरे अर्थ वाले वाक्यों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया है | वे मूलतः संस्कारी भक्त थे, जिन पर राम भक्ति काव्य-परंपरा एवं कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है | अगर तुलसी ने राम भक्ति भव्य प्रसाद निर्मित किया है तो महेंद्र मिश्र ने भी शीतल राम मडैया खड़ा करने की कोशिश की है | उनकी कृष्ण भक्ति की कविताओं की अपेक्षा राम भक्ति की कविताओं में भक्ति तत्व अधिक हैं | ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है कि वे हनुमान के परम भक्त थे | असल में महेंद्र मिश्र का युग ही ऐसा था | उसके पूर्व भोजपुरी साहित्य का सृजन तो कम हुआ ही था और उस युग का हिंदी साहित्य भक्ति और श्रृंगार की मिली-जुली परंपरा का निर्वाह जिस प्रकार भारतेंदु ने किया उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भी किया | उनका हृदय भक्ति के रस से डूबा हुआ था पर उनकी संगीत साधना श्रृंगार एवं प्रेम से सिक्त थी | अपने जीवन का अधिकांश उन्होंने अपने सुख-वैभव में व्यतीत किया था, अतएव उनका रस प्रेमी हृदय उनकी रचनाओं में स्वतः अभिव्यक्त हो गया है | यहाँ यह भी स्मरणीय है कि उनकी साधनाओं कहीं भी बौद्धिक आध्यात्मिकपन नहीं है बल्कि आनंद की सरिता में अवगाहन की कोशिश है | उनकी रचनाओं का आधार श्रृंगारिक पर मूल भावना भक्तिमय ही है | उन्होंने भोजपुरी एवं खासकर पूरबी गीतों का अद्भुत परिमार्जन किया है |
महेंद्र मिश्र वस्तुतः इन्द्रधनुषी रचनाकार हैं | उनकी कविताओं ने अगर अपनी पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाई हैं, तो अवश्य ही उनमें कुछ वैशिष्ट्य रहा है | उन्होंने अपनी रचनाओं से भोजपुरी भाषा एवं साहित्य को समृद्धि प्रदान की है | रचनाकार का काम है रचना करना | रचना की सार्थकता और सामर्थ्य तय करना पाठकों का काम है तथा महेंद्र मिश्र की रचनाओं की सामर्थ्य को बेशक आम जनता ने तो तय कर दिया है | संस्कृत के आचार्य मम्मट ने एक स्थल पर लिखा है - " कविता की रस माधुरी तो कोई सहृदय पाठक ही जान पाता है न कि उसका रचयिता कवि | जैसे भवानी के भ्रू-विलास के सौंदर्य को भवानी-भर्ता शंकर ही जानते हैं न कि उनके जनक हिमालय |"(कविता रसमाधुर्य कर्विवेति न तत् कवि | भवानी भृकुटीर्भंग भवो वेति न भूधर : ||"
) मम्मट का कथन तो यहाँ तक स्वीकारता है कि स्वयं कवि से भी उच्च स्थान है, रसग्राही रसज्ञ पाठक का, जो कितनी ही अर्थ-छटाओं और भाव-भूमियों का तरल स्पर्श करता रस विभोर हो रस प्राप्त करता रहता है.........यही उनका स्थाई मूल्यांकन है | "भोजपुरी-काव्य में उनका वही स्थान है, जो मैथिली-काव्य में विद्यापति का |"(महेंद्र मिश्र की आध्यात्मिक चेतना : रमानाथ पाण्डेय | कविवर महेंद्र मिश्र के गीत संसार पृ.२३,सं.-डॉ.सुरेश कुमार मिश्र )
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