नज़र न केकरो लग जाए तोहरा हुस्न .....भोजपुरी फिल्मोत्थान

एक बड़े अन्तराल के बाद भोजपुरी की दो फिल्में तक़रीबन आगे-पीछे आयीं । ये थी -'हमार सजना'और 'नेहिया लगवनी सइयां से'। पहली फ़िल्म भोजपुरी के नामचीन निर्माता मोहन जी प्रसाद की थी तो दूसरी गोपालगंज(बिहार) के बाबा कामतानाथ दूबे की । जहाँ 'नेहिया ...' का व्यापार मंदा रहा वही 'हमार सजना'ने ठीक-ठाक कारोबार किया। इसका एक बड़ा कारण मोहन जी प्रसाद की व्यावसायिक कुशलता थी,मोहन जी इस खेल के मंजे खिलाड़ी भी थे जबकि कामतानाथ इस फिल्ड में अभी आए ही थे। मगर भोजपुरिया फिल्मों ने यही से एक बार फ़िर पंख फैलाने शुरू कर दिए। वैसे तो इन फिल्मों ने कोई इतिहास नही रचा मगर इनका योगदान इसलिए सराहनीय है कि जब ९०-९५ के समय में भोजपुरी फिल्में न के बराबर आ रही थी ,तब इन्होने भोजपुरी फ़िल्म-जगत के सुस्त पड़े बाज़ार में थोडी हलचल पैदा की।
इस बीच भले ही फिल्में नही आ रही थी ,मगर भोजपुरी गीतों का कारोबार जबरदस्त तरीके से उफान पर चल रहा था। यह मुद्दा और है कि ये श्लील थे या अश्लील । बहरहाल ,इसी बीच हिन्दी फिल्मों कब एक पिटा हुआ सितारा रवि किशन भोजपुरी फिल्मों में गिरा और देखते-ही-देखते पुराने सुपरस्टार कुणाल सिंह की कुर्सी पर काबिज़ हो गया। रवि किशन की 'गंगा जईसन माई हमार' ने तहलका मचा दिया और इस फ़िल्म के हिट होने में इसके गीत-संगीत पक्ष का बड़ा योगदान था। इस फ़िल्म ने तब के चर्चित गीतों को अपनाया था,जिसका परिणाम ये हुआ कि लोग सहज ही सिनेमा-हालो में खीचे चले आए।ये गीत थे-'नज़र न केकरो लग जाए....''चाचा हमार विधायक हवें '.........इत्यादि। इसीके के साथ भोजपुरी का एक और लाल फिल्मी परदे पर उतरा ,जो पहले से ही न केवल भोजपुरी क्षेत्र बल्कि समस्त पूर्वांचल के घरो में अपनी पैठ बना चुका था । यह वह कलाकार था जिसने 'बगल वाली जान मारेली....'और 'पूरब के बेटा 'के कारण देश के बाहर भी मशहूर होकर भोजपुरिया चेहरे की पहचान बन गया था । यह कलाकार था -मनोज तिवारी'मृदुल' । मनोज तिवारी की फ़िल्म 'ससुरा बड़ा पईसा वाला' ने भोजपुरी फिल्मों की कमाई के सारे पिछले रिकॉर्ड तोड़ डाले। परिणाम ये हुआ कि मनोज तिवारी और रवि किशन भोजपुरी फिल्मों के जय-वीरू हों गए यानि जिस फ़िल्म में ये हों फ़िल्म का हिट होना तय माना जाने लगा । हर दर्शक -वर्ग के लोग इनकी फिल्मों को देखने सिनेमा-हालो तक आने लगे । अब स्थितियां ये हों गई कि ,जिन सिनेमा -घरों मे हिन्दी फिल्मों का जलवा रहता था , वहाँ अब भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर , बैनर आ गए। हिन्दी फिल्मों के दर्शक अब भोजपुरिया दर्शकों की भूमिका में आ गए। अब भोजपुरी क्षेत्र के किसी शहर में यदि ५ सिनेमा-हॉल थे तो वहां के ३-४ हॉल में तो भोजपुरी फिल्में ही लगने लगी। कल्चरल शिफ्ट का दौर आ गया था ।
भोजपुरी फिल्मों के बूम का एक बड़ा कारण और भी था , वो ये कि हिन्दी फिल्मों में अब कोई भी पूर्वी व्यक्ति का चरित्र रामू,श्यामू,निरे बेवकूफ या फ़िर खलनायक का होने लगा था । साथ ही भारतीय गावों का स्वरुप सिर्फ़ पंजाब, हरियाणाऔर गुजरात के आस-पास ही सीमित हों गया था । कारण साफ़ था क्योंकि हिन्दी सिनेमा के निर्माताओं में भंसाली,चड्ढा ,चोपडाओं की मठाधीशी थी। भोजपुरी समाज अब अपने को देखना चाहता था । इन हिन्दी फिल्मों में भोजपुरिया माटी का रंग नदारद था । शायद इसी खालीपन को भोजपुरी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों ने पकड़ा और शुरू हों गया एक-पर-एक फिल्मों का आना । यह इस क्षेत्र की नए किस्म की (फिल्मी)जागृति थी,जो आने वाले समय में अपनी सीमाओं से परे जाकर सभी सीमाओं को प्रभावित करने वाला था। .......आगे पढिये किस तरह भोजपुरी फिल्में आयीं और अपना एक ऐसा स्वरुप लेने लगी जो विशुद्ध हिन्दी फिल्मों का था ,जहाँ से अब भोजपुरी ने नई करवट ली ......
तब तक मुसाफिर को दीजिये इजाज़त ...खुदा हाफिज़...

Comments

munnu mai tumse wahi ek baat fir se kehna chahunga jo maine tumhari pehli bhojpuri post pad kar kahi thi ki.."dost is line ko pakde rehna"
tumhare paas bhojpuri filmo ki jaisi samajh aur soch hai mai uska pichhle 7 saalo se qayal hu .blogging ne tumhe ek achha platform diya hai ise mat chhodna.achchhi post

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