एक दुखद दिन .....

कल शाम को हिन्दी-विभाग के स्नातकोत्तर फाईनल इयर का रिजल्ट आ गया। इस रिजल्ट के लिए मेरे कई जूनियर बेकरार थे। रिजल्ट आने के बाद की जो स्थिति इन जूनियर दोस्तों की थी,वो बयान करने लायक नही थी। हॉस्टल में मेरे साथ ही रहने वाला उदय सिंह मीना रिजल्ट के बाद एम.फिल.की प्रवेश-परीक्षा में बैठने लायक अंक नही ला पाया । वो मुझसे बार-बार पूछता रहा कि सर फर्स्ट पार्ट में ५०%अंक थे,क्या मैंने इतना ख़राब पेपर किया था जो इस बार ५०%तक की मेरी मिनिमम जरुरत भी नही हो पाई। उदय के टोटल नम्बर ४८.७५%है। मैं उसे क्या जवाब देता,जो लड़का हॉस्टल रीडिंग रूम में रात-रात भर जाग कर पेपरों की तैयारी करता रहा था ,उसे ये भी नही कह सकता था कि उसने पढ़ाई नही की है । खैर ,मेरा ये मकसद विभाग के कामों की मीनमेख निकालना कभी नही रहा ,मगर इस रिजल्ट के बाद उदय जैसे ही और दोस्त बिल्कुल ही माथा पकड़ कर बैठ गए हैं। सब एक सुर में यही कह रहे हैं किहमे पता चला था ,कि डी.यु.में अंक बड़े नपे-तुले आते हैं मगर इतना हो जायेगा हमे नही पता था। मैं क्या कहता चुपचाप उनकी सुनता रहा । फ़िर मेरे बैचमेट रुपेश ,अनिल वर्मा और रानू(अवनिकांत)भी काफ़ी अपसेट थे,ये उनका रीपीट पेपर था,मगर जरुरी ५५%नही बन पाया ।उदय अपने पहले ही प्रयास में नेट की परीक्षा पास कर चुका है,अब उसकी चिंता ये थी कि सर सवाई माधोपुर इसीलिए छोड़ कर आया था ताकि कुछ पढ़ लूँ ,क्योंकि वह का ग्रुप ग़लत मिल गया था,अब जाकर वही करूँगा जो मेरे यार-दोस्त कर रहे हैं। मैंने उसको समझाया कि ये रिजल्ट इतना भी बुरा नही है जितना तुम लोग सोच रहे हो,हर साल लगभग ऐसा ही रिजल्ट आता है। मगर मेरा अंतर्मन ये कह रहा था-"किसे समझा रहे हो मियाँ ,जिसपे बीतती है वही जानता है।"-मेरे काफ़ी नजदीकी दोस्तों के रिजल्ट मन-माफिक नही रहे हैं,अर्नव जे.एन.यु.नही जा पाया ,जबकि मेरे बैच का अच्छा स्टुडेंट रहा है। देर रात गए हंगामे की आवाज़ सुनकर उठा तो देखा उदय कुछ-कुछ बोले जा रहा है,उसके पास ही एम.फिल का फॉर्म टुकडों में बिखरा पड़ा था(पिछले दिनों ही उसने ये फॉर्म ख़रीदा था)। शायाद उसने कुछ नशा भी कर रखा था। साथ के कई दोस्तों के भी फ़ोन रात को देर तक आते रहे कि री-वैलुएशन का क्या चक्कर है ,कैसे ,कब तक अप्लाई कर सकते हैं,रिजल्ट कब तक आ जाएगा ,नम्बर बढ़ते हैं या नही..इत्यादि-इत्यादि। मैंने जहा तक जानकारी थी,अनुमान था ,बताया दिलासा दिया। इससे ज्यादा क्या किया जा सकता है मगर एक प्रश्न मन में उठ रहा है कि क्या ऐसा नही हो सकता या किया जा सकता जिससे लगभग-लगभग सभी अपनी मिनिमम पात्रता पूरी कर पाये,क्या थोड़ा-सा लिबरल होकर फाईनल इयर को कुछ अनुग्रहंक दे दिए जाएँ। कल रात के सीन को देखने के बाद मन बड़ा उदास और अनमना सा हो गया है। मन शायाद ये स्वीकार ही नही कर पा रहा है कि रिजल्ट तो ऐसा ही आता है,या आता रहा है,इसमे नया क्या है। पर फ़िर भी कहीं कुछ चुभ गया है,शायद अपने प्यारे जूनियर्स के कारण या फ़िर पता नही क्यों.... मैं जानता हूँ कि मैं अच्छा दिलासा नही दे पाता ,या फ़िर इस तरह के प्रसंगों में अटपटा-सा फील करता हूँ,या असामाजिक हो जाता हूँ। मैं कभी भी जीवन के विद्रूप क्षणों को बर्दाश्त नही कर पाता या एस्केप करने की कोशिश करता हूँ।सेकेण्ड इयर में अपने एक काफ़ी नजदीकी मित्र के माँ-शोक में जाने से कतरा रहा था कि जिस मित्र के साथ इतने हँसी-खुशी के पल बिताये हैं उसकी आंखों की नमीं कैसे देख पाऊंगा,शायद ये मेरी अतिशय भावुकता हो पर सच यही है।मैं ये समझता हूँ जानता हूँ कि ये नेचुरल है,पर फ़िर भी ना जाने क्यों..... । कल का दिन बड़ा भारी गुज़रा है ,एक जूनियर अब वापस लौट जाने को कह रहा है। कह रहा है-सर गंगापुर सिटी जाकर शादी-शुदी करके आराम के दिन काटूँगा -बात यूँ ही थी मगर फ़िर भी .....उसके भाव समझे जा सकते हैं।

Comments

ever one door may be remain open,just find it
seriosly!
sahi kaha, jispar beetati hai wahi jaanta hai, isliyae aise maamlome me mai chup hi rahta ho

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