संगीनों के साये में नाटक..जिन्ने लाहौर नई वेख्या ...
जैसा कि आप सभी जानते हैं,राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का भारत रंग महोत्सव इन दिनों राजधानी में चल रहा है,इसमे देश-विदेश के कुछ बेहतरीन ड्रामे प्रर्दशित हो रहे हैं या होने वाले हैं।इसी कड़ी में कल रात पाकिस्तान के "तहरीक-ऐ-निसवां(कराची)की नाट्य-प्रस्तुति थी-'जिन्ने लाहौर नई वेख्या'-इस नाटक के लेखक अपने ही देश के (क्या करें ऐसा कहना पड़ रहा है)असग़र वजाहत हैं। इस नाटक में ऐसा कुछ नहीं है जो किसी ख़ास मुल्क या धर्म को लेकर कुछ अनाप-शनाप लिखा गया हो,चुनांचे ये जरुर है कि ये नाटक धार्मिक कठमुल्लेपन के ऊपर इंसानियत का पैगाम देती है। कहानी बस इतनी है कि 'विभाजन के बाद लखनऊ का एक मुस्लिम परिवार काफ़ी समय रिफयूजी कैम्पों में बिताने के बाद अपने बसाहट के लिए नए आशियाने की तलाश में है। लाहौर में सरकारी तौर पर उन्हें एक रईस हिंदू परिवार की छोड़ी हुई हवेली उन्हें मिल जाती है। पर परेशानी ये है कि उस हवेली में उस हिंदू परिवार के मुखिया की माँ अभी भी रह रही है। पहले थोड़े हिल-हुज्जत के बाद सब उस बुढ़िया को घर के बुजुर्ग की तरह मानने लगते हैं यहाँ तक कि मोहल्ला भी उसे इसी तरह से इज्ज़त देता है। मगर इस घर में बुढ़िया की मौजूदगी से कुछ स्थानीय गुंडों को गुस्सा आता है। इनका मानना है कि पकिस्तान सिर्फ़ मुसलामानों का है। इसके लिए वह तमाम जुगत लगाते हैं पर मौलवी तक से उन्हें फटकार मिलती है। अंत में बुढ़िया मर जाती है और उसे मोहल्ला मौलवी साहब के कहे अनुसार हिंदू रीति-रिवाजों से जलाने के लिए सभी मुहल्ले वाले जमा होते हैं। कट्टरपंथियों को यह बात नागवार गुजरती है और वह नमाज़ पढ़ते मौलवी की अंधेरे में हत्या कर देते हैं। कारान बस इतना कि वह कठमुल्लेपन का शिकार मौलवी नहीं था। नाटक टेक्स्ट में यहाँ ख़त्म नहीं होता पर इस नाटक के निर्देशक द्वय शीमा केरमानी,अनवर जाफरी ने नाटक का अंत यही किया है। उनका मानना हैं कि -
'मेरे लिए विभाजन की सभी कहानियां एक ख़ास मायने रखती हैं,परन्तु एक कहानी जो कि न केवल सच्ची घटना पर आधारित हैं,बल्कि इसके साथ उर्दू के प्रतिष्ठित कवि नासिर काज़मी भी जुड़े हैं,जो कि अम्बाला से लाहौर आए। इससे ये कहानी और भी अधिक सम्मोहक हो जाती हैं।..................हमने कई दृश्यों को संपादित किया हैं जिससे कि पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरवाद के अनुरूप नाटक को प्रासंगिक बनाया जा सके। '(ब्रोशर-जिन्ने लाहौर नई वेख्या)
एक तरफ़ कलाकारों को कला को धर्म और राजनीति से परे रखने की बात की जाती हैं और कल जो हुआ वह उन्ही कुछ धार्मिक कठमुल्लों की वजह से हुआ । अपने लगभग ६ वर्षों के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नाटकों को देखने के क्रम में मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा जिससे मुझे कुछ अजीब सा लगे। अमूमन होता तो ये आया रहा हैं कि यहाँ की फिजाओं में कुछ सुकून जैसा लगता हैं सो ऐसे भी आते-जाते हफ्ता दस दिन में एक चक्कर मार ही आता हूँ। कल का प्ले अभिमंच में था। जिसकी इंट्री भी मेन गेट से ही होती रही हैं पर कल रात तो हद ही हो गई । अभिमंच में पीछे की तरफ़ से इंट्री थी। सुरक्षा व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद की पाँच चक्रीय जांच के बाद ही इंट्री मिल रही थी। 'टिकट हाथ में ले लीजिये,मोबाईल ओन कीजिये ,हेलमेट इधर जमा कराइए इत्यादि-इत्यादि'। वह तो अच्छा हुआ कि इतनी टाईटसुरक्षा के बावजूद दर्शकों को अपने जूते-चप्पल पहन कर अन्दर जाने की इजाज़त थी। दर्शकों के ज्यादा हथियार बंद, सादी वर्दी में भी पुलिस का इन्तेजाम ,वह भी क्यों ...दरअसल कुछ दिमागी फितूर के मारे सो कॉल्ड "देशभक्तों "ने इस प्रदर्शन को लेकर धमकियां दी थीं। और सवाल भी खड़े किए थे कि जब देश के हालत इतने ख़राब दौर में हैं(?)तब पाकिस्तानियों को नाटक प्रदर्शन की परमिशन क्यों दी गई। अब इन्हे कौन समझाए ?हमसे तो नहीं हो सकता भैया । कल इतनी दिक्कतों के बाद जब नाटक खेला गया तो एक यादगार प्रदर्शन के हम भी भागीदार हुए। दर्शकों की एक-एक ताली ऐसे देशभक्तों और कठमुल्लेपन पर तमंचे की तरह लग रहा था। एक पल को ऐसा लगा ही नहीं कि हम किसी पराये का कुछ देख रहे हैं या ये कि ये ज़बान हमें समझ नहीं आती। फ़िर ये भी कि दादी का चरित्र हमारे आसपास का था। उनकी चिंता दर्द सभी कुछ तो सिर्फ़ आम आदमी का था। इंसानियत की परिभाषा गढ़ने और ये बताने कि धर्म से ऊपर भी कुछ हैं ,खून के रिश्तों से भी कुछ ऊपर हैं,सरहदों के ऊपर भी कुछ हैं -यानी प्रेम की भाषा ,प्रेम का धर्म,प्रेम की जात ,प्रेम का रिश्ता। ये हमारे नियम-कायदे बनाने वालों(?)को कभी समझ नहीं आएगा ।
रा.ना.वी.को साधुवाद ,उनके सभी सदस्यों को साधुवाद,दर्शकों को साधुवाद और सबसे बढ़कर उन कलाकारों को सलाम हैं जिन्होंने बाहर (मंच के)चल रहे नौटंकी के बीच अपनी प्रस्तुति दी और इस नाटक को इंडो-पाक मैत्री के नाम कर दिया।
'मेरे लिए विभाजन की सभी कहानियां एक ख़ास मायने रखती हैं,परन्तु एक कहानी जो कि न केवल सच्ची घटना पर आधारित हैं,बल्कि इसके साथ उर्दू के प्रतिष्ठित कवि नासिर काज़मी भी जुड़े हैं,जो कि अम्बाला से लाहौर आए। इससे ये कहानी और भी अधिक सम्मोहक हो जाती हैं।..................हमने कई दृश्यों को संपादित किया हैं जिससे कि पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरवाद के अनुरूप नाटक को प्रासंगिक बनाया जा सके। '(ब्रोशर-जिन्ने लाहौर नई वेख्या)
एक तरफ़ कलाकारों को कला को धर्म और राजनीति से परे रखने की बात की जाती हैं और कल जो हुआ वह उन्ही कुछ धार्मिक कठमुल्लों की वजह से हुआ । अपने लगभग ६ वर्षों के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नाटकों को देखने के क्रम में मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा जिससे मुझे कुछ अजीब सा लगे। अमूमन होता तो ये आया रहा हैं कि यहाँ की फिजाओं में कुछ सुकून जैसा लगता हैं सो ऐसे भी आते-जाते हफ्ता दस दिन में एक चक्कर मार ही आता हूँ। कल का प्ले अभिमंच में था। जिसकी इंट्री भी मेन गेट से ही होती रही हैं पर कल रात तो हद ही हो गई । अभिमंच में पीछे की तरफ़ से इंट्री थी। सुरक्षा व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद की पाँच चक्रीय जांच के बाद ही इंट्री मिल रही थी। 'टिकट हाथ में ले लीजिये,मोबाईल ओन कीजिये ,हेलमेट इधर जमा कराइए इत्यादि-इत्यादि'। वह तो अच्छा हुआ कि इतनी टाईटसुरक्षा के बावजूद दर्शकों को अपने जूते-चप्पल पहन कर अन्दर जाने की इजाज़त थी। दर्शकों के ज्यादा हथियार बंद, सादी वर्दी में भी पुलिस का इन्तेजाम ,वह भी क्यों ...दरअसल कुछ दिमागी फितूर के मारे सो कॉल्ड "देशभक्तों "ने इस प्रदर्शन को लेकर धमकियां दी थीं। और सवाल भी खड़े किए थे कि जब देश के हालत इतने ख़राब दौर में हैं(?)तब पाकिस्तानियों को नाटक प्रदर्शन की परमिशन क्यों दी गई। अब इन्हे कौन समझाए ?हमसे तो नहीं हो सकता भैया । कल इतनी दिक्कतों के बाद जब नाटक खेला गया तो एक यादगार प्रदर्शन के हम भी भागीदार हुए। दर्शकों की एक-एक ताली ऐसे देशभक्तों और कठमुल्लेपन पर तमंचे की तरह लग रहा था। एक पल को ऐसा लगा ही नहीं कि हम किसी पराये का कुछ देख रहे हैं या ये कि ये ज़बान हमें समझ नहीं आती। फ़िर ये भी कि दादी का चरित्र हमारे आसपास का था। उनकी चिंता दर्द सभी कुछ तो सिर्फ़ आम आदमी का था। इंसानियत की परिभाषा गढ़ने और ये बताने कि धर्म से ऊपर भी कुछ हैं ,खून के रिश्तों से भी कुछ ऊपर हैं,सरहदों के ऊपर भी कुछ हैं -यानी प्रेम की भाषा ,प्रेम का धर्म,प्रेम की जात ,प्रेम का रिश्ता। ये हमारे नियम-कायदे बनाने वालों(?)को कभी समझ नहीं आएगा ।
रा.ना.वी.को साधुवाद ,उनके सभी सदस्यों को साधुवाद,दर्शकों को साधुवाद और सबसे बढ़कर उन कलाकारों को सलाम हैं जिन्होंने बाहर (मंच के)चल रहे नौटंकी के बीच अपनी प्रस्तुति दी और इस नाटक को इंडो-पाक मैत्री के नाम कर दिया।
Comments
अच्छा बताया. भईया ये श्रीराम छाप कीर्तनिए! इनका वश चले तो ये क्या नहीं कर देंगे. पर हक़ीक़त बिल्कुल उल्टी है. इंसान और तरक्कीपसंद अकसर उन पर भारी पड़ते हैं और उन्हें मुंह की खानी पड़ती है. कभी ब्यौंत लगे तो हमको भी दिखा लाइए एगो नाटक. :)
नीरज