पुते हुए चेहरों का सच..-"गुलाल"
भूल जाइए कि,हिंदी फिल्मों का मतलब पेड़ों,सरसों के खेतों और बल्ले-बल्ले ही है.अनुराग कश्यप जैसे नयी पीढी के निर्देशकों ,फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा में एक ऐसी लहर पैदा की है ,जिससे जोहर,चोपडा की मार से डरे दर्शकों को एक नयी सुकून मिलती दिख रही है.साल के शुरू में देव-डी और अब "गुलाल"अनुराग कश्यप को सामान्य से काफी ऊपर तक उठा देती है.गुलाल कई मायनों में देखने लायक है.चाहे वह इसके एक्टर्स हो,प्लाट हो,दृश्य हो,गीत संयोजन हो या फिर संवाद,अनुराग की बाजीगरी हर जगह १००%में उपस्थित है.गुलाल हर लिहाज़ से एक बड़े निर्देशक की फिल्म है.
फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि भले ही राजस्थान की हो पर यह पूरे भारत की सच्चाई है.राजपुताना का ख्वाब बेचकर अपने जातिगत,राजनीतिक हित साधने वाला दुकी बना (के.के.)हो या फिर लुंज-पुंज नपुंसकता की हद तक बेवकूफियां करने वाले दिलीप सिंह (राजा सिंह चौधरी)हो ,सभी अपने आस-पास के कैरेक्टर्स हैं,खालिस वास्तविक जीवन के कैरेक्टर्स.यूनिवर्सिटी या कालेज की राजनीति को ज़रा भी नजदीक से जानने और देखने वाला व्यक्ति इस फिल्म के एक-एक संवाद को अपने सुने या सुनाये बातों की तरह समझ लेगा कि आखिर किस तरह की मैनुपूलेटिंग वह करते है और क्या हथियार कैसा हथियार अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने को करते हैं.अब भूल जाइए कि सत्तर का दशक कभी मशहूर था अपने छात्र आन्दोलन को लेकर.अब का आन्दोलन बदल गया है,इसको नियंत्रित करने वाली शक्तियां कम-से-कम ईमानदार और छात्र तो नहीं ही हैं.इस फिल्म को देखते वक़्त मुझे अपने आस-पास का दिल्ली विश्वविद्यालय का चुनावी माहौल याद आता रहा.रैगिंग के खौफ से छात्रों का नामर्दगी की हद तक सीनिअर्स की गुलामी करना और ऐसा नहींकरनेपरपिटना.राजपूत,भूमिहार,ब्राह्मण,दलित,जाट,गुज्जर,बिहारी,आदि ऐसे कितने ही समीकरण है जिनसे हमारे छात्र-संघ का गठन होता है.कितनी ही शराब की बोतलें,बाबाओं (दुकी बना टाईप)का प्रताप यहाँ चलता है वह किसी से छुपा नहीं है.अनुराग कश्यप ,पियूष मिश्रा जैसे लोगों ने यह सीन खुद अपनी आँखों से देख रखा है,और इसका सबूत गुलाल में दीखता है.....शराब भी पीता हूँ.......जब कोई कुछ नहीं करता तो ला (कानून)पढने लगता है.गुलाल इस मायने में भी अधिक ज़मीनी है कि इसमें आपको ना सिर्फ देशी बल्कि अंतर्राष्टीय राजनीति के भी दृश्य दिखते हैं(मुजरे वाले प्रसंग में-'जैसे इराक में घुस गया अंकल सैम'.).बहरहाल,गुलाल में चित्र भले ही राजपूती एंगल के सहारे से कही गयी है पर सच्चाई सभी ऐसे समाजों की है जो क्षेत्र,जाति,धर्म का सहारा लेकर चले और हमारे सिरों पे बैठ गए हैं और जाने-अनजाने हम उनके इस प्रयास में सहयोगी ही बन गए.नायक दिलीप इस तरह की समस्या से ग्रस्त युवक है.जो हम-आप में से कोई भी हो सकता है.दुकी बना उस ढहे या ढह रहे सामंती ढांचे का आधुनिक चेहरा है.इससे परे फिल्म में इस सामंती नकाब के पीछे का एक चेहरा वह भी है जहां औरतें बस एक ऑब्जेक्ट की तरह आती हैं.जो सदियों से चली आ रही मानसिकता को प्रत्यक्ष करती है जहां man is subject of desire and woman is the object of desire कह दिया जाता है.दुकी की पत्नी चाहरदीवारी में बंद रहने को अभिशप्त है,उसे यह जाने का हक़ नहीं कि उसके पति ने अपनी रात किसके बिस्तर पर बिताई है.हाँ किरण का किरदार एक पल को यह भ्रम दे सकता है कि वह इन औरतों से थोडा आगे है पर यह भी भ्रम जल्दी टूटता है,और वह भी अपने भाई के राजनीतिक स्वार्थ का सटीक गोली बनती है और सबसे कमाल की बात तो ये है कि उसे पता है कि वह क्या कर रही है और क्यों कर रही है.रणंजय सिंह का किरदार अपने बाप के हिज हाईनेस वाली दुनिया से नफरत करता है पर इस व्यवस्था में उसी पिद्दी से पर हिट फार्मूले की पैरवी करता दिख रहा है-"राजपूत हो?-असल...).और बाप की सामन्ती नौटंकी का विरोधी होने के बावजूद उसी सिस्टम के दुकी का सहयोगी बनता है.'गुलाल'मजबूत फिल्म नहीं बनती अगर पियूष मिश्रा जैसा किरदार उसमे अनुराग ने नहीं डाला होता.फिल्म में जिस तरह के तनाव को डाईरेक्टर ने रचा है,वह पियूष मिश्रा के अर्धपागल वाले किरदार के मार्फ़त और स्ट्रोंग बन गया है.-'इस किरदार के संवाद,कवितायें,गीत'-घर प्रतीत कराते है गोया आप थिएटर में कोई नाटक देख रहे हैं और यह पात्र एक नेपथ्य की भूमिका में नाटक के क्रियाव्यापार को पोशीदा तरीके से सामने ला रहा है.सही कहें तो 'गुलाल' एक्टरों या संगीतकार,या निर्देशक की फिल्म नहीं बल्कि कलाकारों की फिल्म है,जिसका एक-एक पहलु स्तब्ध करता है और फिल्म का एक-एक दृश्य घटनाक्रम जो-जो हमसे जुड़ते हैं हमारे सफ़ेद और भौंचक चेहरों पर इस ज़हरीले गुलाल को मल देते हैं.देव-डी के निर्देशक का यह यु-टर्न उसकी काबिलियत के लिए तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देता है पर प्रश्न फिर भी वही रहता है कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'-क्या असली डेमोक्रेसी यही है?पुरे फिल्म में एक नाम हर ओर दिखता है वह है-डेमोक्रेसी बीअर '-क्या वाकई ऐसे चिन्हों के मार्फ़त अनुराग वर्तमान प्रजातंत्र की हकीकत बयान कर रहे है?और इस तरह कि व्यवस्था में जो अच्छी सोच है वह साईड लाइन होकर मजाकिया हो गयी है या फिर दुकी बना जैसों के प्रजातंत्र में बस पुते चेहरे और मुखौटों में छुपी रहने को मजबूर हैं.कम-से-कम पियूष मिश्रा के किरदार को देख कर यही लगता है.
दरसल,अनुराग कश्यप की यह फिल्म राजनीति के पुते चेहरों के पीछे की हकीकत-बयानी का दस्तावेज है,जो कहीं से भी फंतासियों के माध्यम से अपनी बात नहीं करती ना-ही कोई आदर्श लेकर सामने आती है.बल्कि यह फिल्म नंगे सच को उसके नंगे रूप में ही हमारे सामने लाकर रख देती है और यह जता देती है कि इस काजल की कोठरी में कोई बेदाग़ नहीं है सबने अपने चेहरों पर गुलाल मल रखा है..कालिख तो खैर हैं ही लगने को देर-स्वर पर लगनी तो है जरुर या फिर क्या पता लग भी गयी हो हमें पता नहीं चल रहा या हम सच्चाई स्वीकारना नहीं चाहते.'गुलाल' को कहा जा रहा है कि देर से आई है पर 'देर आये दुरुस्त आये '......अनुराग कश्यप का काम हिंदी सिनेमा जगत के घडियाली आंसुओं और हैपी-हैपी दुनिया के फ़िल्मी व्यापारियों के बीच थोडा सुकून देने वाला है.कम-से-कम अपने लिए तो इतना इमानदारी से कह ही सकता हूँ.यह नए किस्म की पैदावार है (अनुराग कश्यप ,नवदीप सिंह,राजकुमार गुप्ता,रजत कपूर,दिबाकर बैनर्जी,सौरभ शुक्ल,विनय पाठक,पियूष मिश्रा आदि)जिनके जड़ें आम लोगों तक गहरे आती हैं और बड़ी उर्वर हैं.
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फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि भले ही राजस्थान की हो पर यह पूरे भारत की सच्चाई है.राजपुताना का ख्वाब बेचकर अपने जातिगत,राजनीतिक हित साधने वाला दुकी बना (के.के.)हो या फिर लुंज-पुंज नपुंसकता की हद तक बेवकूफियां करने वाले दिलीप सिंह (राजा सिंह चौधरी)हो ,सभी अपने आस-पास के कैरेक्टर्स हैं,खालिस वास्तविक जीवन के कैरेक्टर्स.यूनिवर्सिटी या कालेज की राजनीति को ज़रा भी नजदीक से जानने और देखने वाला व्यक्ति इस फिल्म के एक-एक संवाद को अपने सुने या सुनाये बातों की तरह समझ लेगा कि आखिर किस तरह की मैनुपूलेटिंग वह करते है और क्या हथियार कैसा हथियार अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने को करते हैं.अब भूल जाइए कि सत्तर का दशक कभी मशहूर था अपने छात्र आन्दोलन को लेकर.अब का आन्दोलन बदल गया है,इसको नियंत्रित करने वाली शक्तियां कम-से-कम ईमानदार और छात्र तो नहीं ही हैं.इस फिल्म को देखते वक़्त मुझे अपने आस-पास का दिल्ली विश्वविद्यालय का चुनावी माहौल याद आता रहा.रैगिंग के खौफ से छात्रों का नामर्दगी की हद तक सीनिअर्स की गुलामी करना और ऐसा नहींकरनेपरपिटना.राजपूत,भूमिहार,ब्राह्मण,दलित,जाट,गुज्जर,बिहारी,आदि ऐसे कितने ही समीकरण है जिनसे हमारे छात्र-संघ का गठन होता है.कितनी ही शराब की बोतलें,बाबाओं (दुकी बना टाईप)का प्रताप यहाँ चलता है वह किसी से छुपा नहीं है.अनुराग कश्यप ,पियूष मिश्रा जैसे लोगों ने यह सीन खुद अपनी आँखों से देख रखा है,और इसका सबूत गुलाल में दीखता है.....शराब भी पीता हूँ.......जब कोई कुछ नहीं करता तो ला (कानून)पढने लगता है.गुलाल इस मायने में भी अधिक ज़मीनी है कि इसमें आपको ना सिर्फ देशी बल्कि अंतर्राष्टीय राजनीति के भी दृश्य दिखते हैं(मुजरे वाले प्रसंग में-'जैसे इराक में घुस गया अंकल सैम'.).बहरहाल,गुलाल में चित्र भले ही राजपूती एंगल के सहारे से कही गयी है पर सच्चाई सभी ऐसे समाजों की है जो क्षेत्र,जाति,धर्म का सहारा लेकर चले और हमारे सिरों पे बैठ गए हैं और जाने-अनजाने हम उनके इस प्रयास में सहयोगी ही बन गए.नायक दिलीप इस तरह की समस्या से ग्रस्त युवक है.जो हम-आप में से कोई भी हो सकता है.दुकी बना उस ढहे या ढह रहे सामंती ढांचे का आधुनिक चेहरा है.इससे परे फिल्म में इस सामंती नकाब के पीछे का एक चेहरा वह भी है जहां औरतें बस एक ऑब्जेक्ट की तरह आती हैं.जो सदियों से चली आ रही मानसिकता को प्रत्यक्ष करती है जहां man is subject of desire and woman is the object of desire कह दिया जाता है.दुकी की पत्नी चाहरदीवारी में बंद रहने को अभिशप्त है,उसे यह जाने का हक़ नहीं कि उसके पति ने अपनी रात किसके बिस्तर पर बिताई है.हाँ किरण का किरदार एक पल को यह भ्रम दे सकता है कि वह इन औरतों से थोडा आगे है पर यह भी भ्रम जल्दी टूटता है,और वह भी अपने भाई के राजनीतिक स्वार्थ का सटीक गोली बनती है और सबसे कमाल की बात तो ये है कि उसे पता है कि वह क्या कर रही है और क्यों कर रही है.रणंजय सिंह का किरदार अपने बाप के हिज हाईनेस वाली दुनिया से नफरत करता है पर इस व्यवस्था में उसी पिद्दी से पर हिट फार्मूले की पैरवी करता दिख रहा है-"राजपूत हो?-असल...).और बाप की सामन्ती नौटंकी का विरोधी होने के बावजूद उसी सिस्टम के दुकी का सहयोगी बनता है.'गुलाल'मजबूत फिल्म नहीं बनती अगर पियूष मिश्रा जैसा किरदार उसमे अनुराग ने नहीं डाला होता.फिल्म में जिस तरह के तनाव को डाईरेक्टर ने रचा है,वह पियूष मिश्रा के अर्धपागल वाले किरदार के मार्फ़त और स्ट्रोंग बन गया है.-'इस किरदार के संवाद,कवितायें,गीत'-घर प्रतीत कराते है गोया आप थिएटर में कोई नाटक देख रहे हैं और यह पात्र एक नेपथ्य की भूमिका में नाटक के क्रियाव्यापार को पोशीदा तरीके से सामने ला रहा है.सही कहें तो 'गुलाल' एक्टरों या संगीतकार,या निर्देशक की फिल्म नहीं बल्कि कलाकारों की फिल्म है,जिसका एक-एक पहलु स्तब्ध करता है और फिल्म का एक-एक दृश्य घटनाक्रम जो-जो हमसे जुड़ते हैं हमारे सफ़ेद और भौंचक चेहरों पर इस ज़हरीले गुलाल को मल देते हैं.देव-डी के निर्देशक का यह यु-टर्न उसकी काबिलियत के लिए तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देता है पर प्रश्न फिर भी वही रहता है कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'-क्या असली डेमोक्रेसी यही है?पुरे फिल्म में एक नाम हर ओर दिखता है वह है-डेमोक्रेसी बीअर '-क्या वाकई ऐसे चिन्हों के मार्फ़त अनुराग वर्तमान प्रजातंत्र की हकीकत बयान कर रहे है?और इस तरह कि व्यवस्था में जो अच्छी सोच है वह साईड लाइन होकर मजाकिया हो गयी है या फिर दुकी बना जैसों के प्रजातंत्र में बस पुते चेहरे और मुखौटों में छुपी रहने को मजबूर हैं.कम-से-कम पियूष मिश्रा के किरदार को देख कर यही लगता है.
दरसल,अनुराग कश्यप की यह फिल्म राजनीति के पुते चेहरों के पीछे की हकीकत-बयानी का दस्तावेज है,जो कहीं से भी फंतासियों के माध्यम से अपनी बात नहीं करती ना-ही कोई आदर्श लेकर सामने आती है.बल्कि यह फिल्म नंगे सच को उसके नंगे रूप में ही हमारे सामने लाकर रख देती है और यह जता देती है कि इस काजल की कोठरी में कोई बेदाग़ नहीं है सबने अपने चेहरों पर गुलाल मल रखा है..कालिख तो खैर हैं ही लगने को देर-स्वर पर लगनी तो है जरुर या फिर क्या पता लग भी गयी हो हमें पता नहीं चल रहा या हम सच्चाई स्वीकारना नहीं चाहते.'गुलाल' को कहा जा रहा है कि देर से आई है पर 'देर आये दुरुस्त आये '......अनुराग कश्यप का काम हिंदी सिनेमा जगत के घडियाली आंसुओं और हैपी-हैपी दुनिया के फ़िल्मी व्यापारियों के बीच थोडा सुकून देने वाला है.कम-से-कम अपने लिए तो इतना इमानदारी से कह ही सकता हूँ.यह नए किस्म की पैदावार है (अनुराग कश्यप ,नवदीप सिंह,राजकुमार गुप्ता,रजत कपूर,दिबाकर बैनर्जी,सौरभ शुक्ल,विनय पाठक,पियूष मिश्रा आदि)जिनके जड़ें आम लोगों तक गहरे आती हैं और बड़ी उर्वर हैं.
Comments
नीरज
achchha likha hai .. baaba
जिन दिनों देव-डी की तैयारी अनुराग की टीम कर रही थी उन दिनों उनके सहायक निर्देशक और उनकी ही टीम के मेंबर 'वासन'मेरे गेस्ट थे मेरे होस्टल में,यह बात विजय,मिहिर,तरुण,और अनमोल जैसे दोस्तों को बखूबी पता है.तब उन ५ दिनों में वासन से अनुराग के स्टाईल और मेकिंग पर लम्बी बातचीत हुई थी और आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि,गुलाल के संगीतकार पीयूष मिश्रा तो अपने भाई सर के पुराने मित्रों में से हैं(जब वह एक्ट-वन में थे),तो ये रही अनुराग को बखूबी जानने की बात,अब कुछ बातें रंगमंच की.तो इस बात के सूत्र मैंने अपने इसी पोस्ट में डाला है (थोडा धीमा पढने पर दिख जायेगा),पीयूष मिश्रा तो जो कुछ भी गा रहे हैं वह सब उनके दिल्ली के रंगमंचीय संघर्ष के दिनों के हैं.आप इसके कैसेट्स 'जनबात' वालों से ले सकते हैं.(जो वहाँ अपने कच्चे रूप में उपलब्ध है)लेखन तो बस एक प्रक्रिया है अपने आपको अपनी लेखनी को थोडा तेज करने की,उसी कोशिश में हूँ..आपलोगों के सुझाओं से ही यह हो पायेगा ..
धन्यवाद और आदर सहित
आपका
मुन्ना के पाण्डेय
Vishal Deo