'जाति ही पूछो साधू की'-विजय तेंदुलकर (रा.ना.वि.में)एक उम्दा प्रदर्शन
विजय तेंदुलकर के व्यंग्य नाटक "जाति ही पूछो साधू की"देखते हुए,हरिशंकर परसाई की 'काक झकोरे'में संकलित एक व्यंग्य रचना 'होना एक इंटरव्यू का'बरबस ही याद आती है.ऐसा किसी साहित्यिक मेल के कारण नहीं बल्कि कथ्य के प्रस्तुति के लिहाज़ से.किसी भी नौकरी में अपने मनपसंद उम्मीदवार को लेने के लिए जिन नौटंकियों का सहारा लिया जाता है, उस खेल से हम सभी थोडा-बहुत वाकिफ हैं.शिक्षा जगत में ये कुछ अधिक ही है,इसमें दो राय नहीं हो सकती.वैसे सदियों से अपने आदमी को अधिकाधिक लाभ पहुंचाने का खेल चलता आया है.हिंदी में रीतिकालीन कवि बिहारी लाल जी ने लिखा भी है-"अपने अंग को जानिके /जोबन नृपति प्रवीण....."-यह तो आज तक चल रहा है और चलेगा.जैक नाम की यह चीज़ बहुत कायदे की चीज़ है जी सब कुछ पे भारी.आपके डिग्री,आपकी योग्यता ,आपके सपनों पर भी.अगर आप उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और जैक नहीं है तो आपको ईश्वरीय अनुकम्पा की ही जरुरत होगी.ये जैक नाम का ब्रम्हास्त्र बड़ा अचूक है.विजय तेंदुलकर का यह नाटक ऐसे ही कारस्तानियों को परत-दर-परत सामने खोलता है.दरअसल यह नाटक केवल शिक्षा-तंत्र के ही नहीं बल्कि हमारी अन्य कई दकियानूसी धारणाओं,हमारी संस्थाओं और हमारी प्राथमिकताओं पर सवाल उठाता है.कहने को तो यह हास्य नाटक है पर जैसे-जैसे यह नाटक आगे बढ़ता है वैसे-वैसे नाटक का कटाक्ष तीक्ष्ण-से-तीक्ष्णतर होता जाता है.नाटक महिपत वभ्रुवाहन के लम्बे कथन से शुरू होता है,जिसमे वह अपनी वर्तमान स्थिति-परिस्थिति बताता है.महिपत ने बहुत जुगत और मेहनत से एम.ऐ .की परीक्षा तृतीय श्रेणी से उतीर्ण कर लेता है.इसके बाद महिपत के जीवन में नौकरी के आवेदनों और इन्कारों का दौर शुरू होता है.बाद में,वह यह समझ जाता है कि सिफारिसिज्म के बिना नौकरी मिलना मुश्किल है.वह इस ओर प्रयासरत हो जाता है पर व्यर्थ,यहाँ भी ऐन वक़्त पर कभी जातिगत तो कभी रिश्तेदारी वाली अड़चनें आ जाति हैं और बिना जैक का महिपत फिर वहीँ का वहीँ रह जाता है.एक दिन अचानक सुदूर क्षेत्र के एक कालेज से इंटरव्यू का बुलावा आता है और एकमात्र उम्मीदवार होने की वजह से उसका चयन "स्वर्गीय माताजी गयाबाई सूतराम कला एवं विज्ञान महाविद्यालय "में प्रोफेसर (लेक्चरर)के पद पर हो जाता है.अब यहाँ एक अलग किस्म की दुश्वारियां सामने आती हैं पर तमाम हथकंडे अपनाने के बाद भी महिपत अपनी नौकरी बचा नहीं पाता और "पुनर्मुषकों भवः "की स्थिति में आ जाता है.यानी शिक्षित बेरोजगार....महिपत के रोल में अम्बरीश सक्सेना ने प्रभावित किया है.हालांकि मंच पर उनकी संवाद अदायगी और बॉडी लैंग्वेज को देखते हुए हास्य अभिनेता 'विजय राज'याद आते रहे.इस बार पूतना के रोल में सविता कुंद्रा जंची हैं.संगीत रंगमंडल के कलाकारों का ही था और निर्देशन राजिंदर नाथ का.कुल मिलाकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल की एक और उम्दा पेशकश.(स्थान-अभिमंच सभागार /दिनांक २ से ५ अप्रैल तक/समय -६ बजे सांय ४ और ५ को ३ बजे से एक्स्ट्रा शो भी था)
Comments
(साथ ही पुनर्मुषकों भवः वाला भाव मेरे मन में भी जगा दिया, न जाने कितने दर्शक इस पीड़ा के साथ सभागार से बाहर आए होंगे)
लेकिन फिर से मेरे लिये इस नाटक की सबसे बड़ी बात थी इसका अंत. जैसा नाम से ही स्पष्ट है यह नाटक जातिगत आधार पर भेद-भाव को भी अपना विषय बनाता है. व्यंग्य जाति को भेद के एक बड़े आधार के तौर पर सामने लाता है. लेकिन कहीं इस सबके बीच हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कहानी की नायिका खुद इस प्रपंच की मारी है. उसे शोषितों की जमात में शामिल करना दलित विमर्श की बहस में स्त्री के शोषण को भूल जाना होता.
लेकिन नहीं, नाटक में ऐसा नहीं होता. मार्मिक क्लाईमैक्स में नायिका की मशीनी संवाद अदायगी अद्भुत प्रतीक है. दरअसल वह तो नायक से भी गई-बीती हालत में है. नायक शोषित है लेकिन उसकी अपनी आवाज़ तो है. नायिका तो इससे भी महरूम है और उसकी पहचान कहीं खो जाती है. वह एक शोषक व्यवस्था में मशीनी कलपुर्जा बनकर रह जाती है.
और नायक भी इसे समझता है, बहुत सी दलित चेतना से युक्त कहानियों के विपरीत यहाँ नायक नायिका और शोषक व्यवस्था के बीच फ़र्क देख पाता है. और उसे मालूम है कि उसने भी आखिर नायिका का इस्तेमाल ही किया. आखिर में वो स्वयं ही नायिका के पत्र फाड़कर उड़ा देता है यह कहते हुए कि आखिर मैंने भी तुम्हारा इस्तेमाल ही किया. यह चेतना बहुत कम दलित कहानियों में पाई जाती है और जहाँ भी दिखती है सराअही जानी चाहिए.
एक अस्मिता सदा दूसरी अस्मिता की विरोधी नहीं होती. सत्ता के सामने शोषित अस्मिताओं को खड़ा होने के लिए ज़रूरी है कि पहले वे आपस में एक दूसरे के लिए ज्यादा संवेदनशील रवैया अपनाएं. यह एक बहुलतावादी समाज के आगे बढ़ने के लिए सही रास्ता है.
tumse milna ek aatmiya anubhav tha.
likhte raho.