गढ़वाल का नीलम : हर्षिल
हर्षिल पहली बार मेरी जेहन में राजकपूर की फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' की वजह से आया था । बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के क्रम में जब गंगोत्री-गोमुख-तपोवन ट्रेकिंग पर गया तो इस इलाके में दो हफ्ते से अधिक समय तक रहा । फिर तो यह जगह उत्तराखण्ड के मेरे महबूब जगहों में से एक हो गई । देवदारों में खो जाना, दूर तक फैले साफ और इस ऊँचाई पर आश्चर्यजनक रूप से लगभग मैदानी इलाकों की तरह समतल भागीरथी के किनारों पर कैंपिंग करना, देर तक टहलना, बतकुच्चन करना, आग जलाना, अहले सुबह दूर दूधिया हिमालय पर सूरज की पहली रोशनी को आंखमिचौली खेलते देखना, कभी धुंध को देवदारों में अटका हुआ देख देर तक निहारना, रेजिमेंट से शाम की घंटी सुनकर ठंड को महसूसते लौटना । शाम को बाजार में पकौड़ियाँ और चाय - क्या ही कहना, हर्षिल के । रात के भोजन के बाद स्टीरियो पर कानों में 'हुस्न पहाड़ों का क्या कहना कि बारह महीने यहां मौसम जाड़ों का' को हल्की आवाज में सुनते किसी मदहोशी में टहलना एक अलग ही दुनिया में ले जाता । सच कहा जाए तो यही वह समय है जब आप दुनिया की सबसे प्यारी जगहों में से एक दुनियावी दाँव-पेंचों से अलग, सुंदर का सपना देखते तारों के नीचे भटकती हुए सुंदर आत्मा होते हैं । असल में इस बार हर्षिल जाना लिस्ट में नहीं था, पर हर्षिल ने फिर से पुकार ही लिया । गंगोत्री को जाते पर्यटको को हर्षिल घाटी से गुजरते भागीरथी की नीली धारा नीलम की तरह लगती है ।
• जाना
हर्षिल की ओर
विश्वविद्यालय
में अक्टूबर की दस दिनों वाली छुट्टियाँ हो गयी थीं और मेरे कुछ पुराने स्टूडेंट्स
भी आ गए थे । उन सबके साथ एक शाम की चाय के बाद बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही
मेरे एक छात्र जोगिंदर ने हमें तैयार कर लिया कि चलिए कम से कम चीला होकर आ जाएँगे
। लेकिन चीला में दो रातों के बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना
शुरू किया और यह काम वह पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे । उन्हें पता था कि इस
आदमी (मेरे) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक
ना ली तो क्या उतराखंड आए । मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना
नहीं, बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है । यह मुहाने से लौटना है, कुछ अधूरापन रह ही जाता है । इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता हूँ तो लगता
है गोया किसी डूबती नब्ज़ वाले रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो । नीत्शे बाबा ने
कभी कहा था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है ।'
मेरे लिए भी सच यही है । चीला से आगे जाने की बात सुन चीला के
फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू । लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल
दिए । वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर
मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : । हम हर्षिल चल दिए । मेरे ख्याल से जोगी,
ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख-देख प्रफुल्लित हो
रहे थे पर कसम से यही वह वक़्त होता है, जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब
कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्योंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़
पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी का आधा मन कहता है -
चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य
ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है - सो
चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा । आखिर पहाड़ी
राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की
ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट
के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी, जो एक
बार बीए में पूरी हुई सो अब तक इस इलाके में यह यात्रा
बदस्तूर जारी है । फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा
आकर्षण रहा है, जहाँ राज कपूर की नायिका गंगा हँसते हुए
पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है ।
हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी ! गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन
बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए । इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती ।
किस्से पर वापसी
- उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए साँझ के चार से थोड़ा ऊपर का समय हो आया था, तिस पर अक्टूबर का महिना । पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से
उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो,
शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी
चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे के राह की सोच कर चलना ही ठीक रहता है । हमने उत्तरकाशी
से थोड़ा ऊपर रूककर चाय गटकने और मैगी लीलने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से
यहाँ तक समय से आ गए हैं, उस लिहाज से आगे आराम से तीन-साढ़े
तीन घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे । मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी
और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े । शाम उतरने लगी थी,अक्टूबर का पहला ही
हफ्ता था, वातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर
इसका अहसास भी हो रहा था । सब खुश थे । मेरे सुपुत्र कौस्तुभ महाराज भी एक गहरी
नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था । गाड़ी
उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर सर्पीले रास्तों पर चढ़ती चली जा रही थी ।
इस पूरे यात्रा
में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी, जिसका
खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया
। सुक्की गाँव हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे भी पहले आईटीबीपी का कैम्प है । यह
जगह हर्षिल से ऊँची है और इस गाँव में सेब भी खूब होता है पर इस जगह पर अमूमन कोई
यात्री नहीं रुकता । वह या तो हर्षिल, धराली या सीधे
गंगोत्री ही रुकता है । इसी सुक्की गाँव से दो कि.मी. नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर
चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे, अच्छे-ख़राब रास्तों पर चल रही थी । सो वह उस सांझ, एक
वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई । मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा
हुआ था और मैं बतकुच्चन और हर्षिल पहुँचने की झोंक में बिना ध्यान दिए गाड़ी को
तेजी से इस दुर्गम पर्वतीय इलाके में खींचे जा रहा था । इस दौरान गाड़ी का वाटर
पम्प पता नहीं कैसे और कहाँ टूट गया था । सारा कूलेंट, पानी
स्वाहा । हम सब उतर कर कार को निहार ही रहे थे कि बगल से गुजरते डम्पर वाले ने
देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं । उस संकरे,
एकांत रास्ते पर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया.
किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई
में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया
और अब गाड़ी इस हालत में आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए
पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल
गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी
चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाने का
रास्ता। खैर कैम्प के आगे के रास्ते एक कोने पर बलवंत सिंह जी की चाय की टपरी थी, जो लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक
गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी । उनकी उम्मीद गलत नहीं थी । हमने बीमार कार वहीं खड़ी
की और वहाँ दबा के ऑमलेट, मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी ।
दुकान की बुझती हुई आग में गर्मी की सम्भावना तलाशते हुए हमने कार ठीक होने तक सुक्की
में ही रुकने का मन बना लिया । ऊपर की ओर एक इमारत थी जिसे एक तरह से होटल कह भी
सकते थे और एक लिहाज से सरायनुमा भी कहा जा सकता था । वहाँ ऐसे कमरे मिल गए थे, जिसमें शौचालय अटैच्ड था । आज चाहे मैं जो कहूँ पर उस वक़्त वह जगह हमारे
लिए ईश्वरीय थी । खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने इसलिए नहीं सीखा था क्योंकि वहाँ
चार धाम यात्रा के अतिरिक्त कभी कोई रुकेगा इसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी । वहाँ
खाने के नाम पर मैगी, चाय, बिस्कुट, अंडे का सीमित इंतजाम था । लेकिन जैसा कि हमारे साथ अधिकतर यह हुआ कि
गढ़वाल में ऐसी किसी भी जगह ठहरे तो पूरा परिवार साथ हो लेता है । यहाँ भी यही हुआ
। मुझे जल्दी ही लग गया कि किस्मत ने किसी वजह से हर्षिल से पहले इस अज्ञात-कुल
शील जगह पर रोका था । सुक्की की वह रात पूरे चाँद की थी । हमने अपनी कार जिस बैंड
पर खड़ी की थी उस जगह से रिहाइश घूमकर दो किलोमीटर थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के
बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय, उसके
पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी के प्रबल अबाध प्रवाह की ध्वनि और दाहिनी ओर
नीचे दिखते हरियल छत वाले कैम्प के कोने में बलवंत जी की टपरी के मुहाने पर अगले
दिन सत्तर कि.मी. दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की उम्मीद में हमारी
कार खड़ी दिख रही थी । और हाँ ! उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली पर तीन दिन रुके ख़ुशी-ख़ुशी
। जी ! वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होटल वाले भले युवक के
परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था । मैं इतनी दफे गंगोत्री गया, हर्षिल गया और दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया । पर हर्षिल से थोड़ा ही
पहले पड़ते इस खूबसूरत जगह पर कभी नजर ही नहीं गयी थी । सच है जीवन में हम कई बार बड़ी
दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में छोटी और पास की चीजों को जाने-अनजाने अनदेखा कर देते हैं । यकीन जानिए,
अब यह परेशानी हमारे लिए एक अलग ही सुख का अनुभव करा रही थी ।
कौस्तुभ वहाँ के स्थानीय बच्चों के लिए खिलौना हो गया था, उसकी
उम्र को यह कहाँ पता था कि माता-पिता यहाँ क्यों रुके हैं । आखिर यह भी तो
रामनारायण उपाध्याय की कविता को अनजाने में छुटपन से ही समझने लगा है -धरती से
मुझे प्यार है और आसमान जी को बहुत भाता है/एक से मेरे शरीर का और दूसरे से मन का
नाता है । हिमालय है ही ऐसा । आप आते अपरिचित हैं पर थोड़े ही समय में लगता है आप
यहीं के हैं, यहीं के थे । मेरे ऐसा समझने के पीछे यह भी तो
हो सकता है कि हमारे पूर्वज कभी इन्हीं रस्तों और पर्वतों-देवदारों की छांव में
गुजर कर अपनी तीर्थयात्राएँ पूरी की हों ।
सुक्की गाँव में
दिल्ली वाले नेटवर्क को समस्या हो रही थी सो बीती शाम को ही ऋचा के सलाह अनुसार
होटल वाले के फ़ोन से मैंने नीचे देहरादून में ऋचा के पिता जी को अपनी लोकेशन और
गाड़ी की स्थिति बता दी थी । उन्होंने जोर का ठहाका लगाया कि हमलोग जाकर एक जगह फंस
गए हैं । मामला यह था कि मैंने चंबा से आगे आते समय उनको फ़ोन करके खूब चिढ़ाया था
कि आप देहरादून ही रह गए और देखिए हम बिना प्लान के गंगोत्री तक का रास्ता नापने
निकल गए और उसी बातचीत में ऋचा के पापा ने कहा आज रात आप उत्तरकाशी रुकोगे तो सुबह
हमलोग आपको पीछे से ज्वाइन कर लेंगे । लेकिन मैंने कहाँ अजी कहाँ ! आज की रात तो
यह गाड़ी हर्षिल ही रुकेगी और संयोग देखिए, न
उत्तरकाशी ना हर्षिल, गाड़ी सुक्की गाँव के पास सुस्ती में आई
और शायद विधाता ने यही मिलने का करार तय किया हुआ था । शायद इसे ही कहते हैं अपना
चेता होत नहीं प्रभु चेता तत्काल । ऋचा के पापा-मम्मी भी देहरादून से सुबह दस बजे
के करीब सुक्की आ गए और नीचे उत्तरकाशी में एक मिस्त्री को बोल आए थे । एक और कमाल
बात समझने की है कि इधर के इलाके में सहयोग बिना अतिरिक्त प्रयास के मिल जाता है ।
हमारे साथ यही हुआ, बाहर के नम्बर की ख़राब कार को देखते हुए
तक़रीबन हर दूसरे सवारी वाहन या मालवाहक वाहन वाले ने उत्तरकाशी में किसी न किसी
मिस्त्री को हमारे होटल वाले का नम्बर दे दिया था ताकि उसके हिसाब से बात करके वह सुक्की
आकर आईटीबीपी कैम्प के पास खड़ी दिल्ली नम्बर की गाड़ी की मरम्मत कर जाए । पहाड़ों की
यह व्यवस्था चमत्कृत करती है । देर शाम तक एक मिस्त्री अपनी गाड़ी से सुक्की आया और
हमारी कार की मरम्मत में जुट गया । मैकेनिक कितना दक्ष था यह तो मालूम नहीं पर
उसके उत्साह और उसकी गाड़ी की सजावट को देखते हुए, उसे सलाम
करने का जी कर रहा था । उसकी कार दशहरे की झांकी सरीखी बनी ठनी थी । खैर ! चार से पाँच
घन्टे की मेहनत और चांदनी रात में सामने वाले पर्वत से बारीक़ से वृहतर होते चाँद
और उसकी चांदनी को पसरते और पूरे इलाके को दूधिया रोशनी में नहाते देखना भी एक अलग
ही अनुभव ही था । उस दृश्य को बयान करना मुश्किल है, जब
एकाएक उजाला बढ़ते-बढ़ते सामने वाले पर्वत की नोक से एक नगीने की तरह क्षण पर टिका
फिर मुकुट की तरह बढ़ा और समूचे वैली और हमारी पीठ की ओर वाले पहाड़ की तीखी ढलान पर
पसरे हुए सेब के खेतों में भीतर तक छा गया । कार अब ठीक थी, लेकिन
जिस रास्ते पर हमें आगे जाना था, उस लिहाज से इस मिस्त्री पर
मेरा भरोसा पता नहीं क्यों टिक नहीं रहा था । जोगिन्दर की भी यही राय थी, तिस पर सत्रह सौ के वाटर पम्प के साढ़े पाँच हजार चुकाने के बाद मिस्त्री
का उदार होकर दिखाना कि 'वह तो भला हो जो मैं ही था अन्यथा
कोई और होता तो शायद ही इतने में करता', मूड को थोड़ा ख़राब कर
ही गया था लेकिन मन के एक कोने में यह बात संतोष के साथ साँसे ले रही थी कि कल की
सुबह हर्षिल में बीतेगी । अफ़सोस इस बात का भी नहीं था कि दो रातें सुकी में बीत
गयीं वह भी किसी अन्य वजह से ।
• जाना
पहाड़ी विल्सन राजा के घर हर्षिल में
हर्षिल के पास है
मुखबा गाँव । सर्दियों में गंगोत्री धाम की डोली की यहीं पर पूजा अर्चना की जाती
है । हर्षिल सेना के दो रेजिमेंट्स के बीच में भागीरथी के सुरम्य तट पर बसा एक
बेहद खूबसूरत गाँव है । इसकी ऊँचाई 2500 मी. है और यहाँ के रसीले सेब नीचे खूब मशहूर हैं । कहते
हैं इस इलाके में सेबों की फसल से पहला परिचय अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन ने कराया था,
जिसे यहाँ के स्थानीय लोग पहाड़ी विल्सन के नाम से पुकारते हैं । हर्षिल
आने का एक बड़ा कारण यह विल्सन भी रहा । वह अंग्रेज जिसका इस इलाके में आना,
झूले वाले पुल का बनाना, स्थानीय युवती से
विवाह बंधन में बंधना और फिर उस पर राबर्ट हचिन्सन का द राजा ऑफ़ हर्षिल नाम से
किताब लिखना, अपने आप में मिथकीय और जासूसी कथाओं की तरह
रोमांचक है । विल्सन का पुराना कॉटेज एक दुर्घटना में जल गया था लेकिन जंगलात
वालों ने उस जगह पर लगभग उसी तरह का एक कॉटेज बनवाया हुआ है,
जिसमें उत्तरकाशी और नीचे से आने वाले अधिकारी वगैरह ठहरते हैं । हर्षिल के पुराने
निवासी कहते हैं-आज जो कॉटेज आप देख रहे हैं हैं, वह तो कुछ
भी नहीं, जो विल्सन के समय की थी । वैसे भी हर पुरानी चीज जो
केवल मौखिक कथाओं में बच गई हो, अपने किस्सों में अलग-अलग और
बड़ा आकार ले ही लेती है । संभव है विल्सन के कॉटेज के साथ ही यह रहा हो । अलबता,
हर्षिल की ख़ूबसूरती ने राजकपूर सरीखे फिल्मकार को अपनी ओर आकर्षित
किया और गंगोत्री धाम जाने वालों तीर्थयात्रियों को भी । पर कायदे से इस हर्षिल गाँव को देखने के लिए एक
दिन भी पूरा है और महसूसने के लिए हफ्ता भी कम है । हर्षिल महसूसने की जगह है । हम
अब हर्षिल में थे, वह साथी मिल गया था जिसे पाने को पिछ्ले
कुछ दिनों से जी बेकरार था । अब हमारे कुछ सुकून के दिन हर्षिल में बीतने वाले थे
।
• हर्षिल का राजा - फ्रेडरिक 'पहाड़ी' विल्सन : किस्सा अनूठा उर्फ़ जितने मुँह उतनी
बातें
हालाँकि फ्रेडरिक
'पहाड़ी' विल्सन
को पहाड़ी विल्सन का पुकार नाम उसके इस इलाके के प्रति प्यार की वजह से मिला है । यह
ऐतिहासिक रूप से इस इलाके में आया सच्चा किरदार है लेकिन राबर्ट हचिसन ने लिखा है
कि यदि आप इस इलाके में विल्सन की कथा सुनने निकलते हैं तो सबसे बड़ी समस्या यह है
कि छह लोगों के पास छह किस्म की कहानी है लेकिन उनमें किंचित समानता होते हुए भी
पर्याप्त भेद भी है । पर यह ज्ञात तथ्य है कि उसकी दो पत्नियाँ थी जो पास के ही
पड़ोसी गाँव मुखबा की थीं । पहली रैमत्ता से कोई संतान न होने की स्थिति में उसने
सुगरामी(गुलाबी) से विवाह किया और जिससे उसके तीन बेटे - नथनिअल, चार्ल्स और हेनरी हुए । हर्षिल और मुखबा के स्थानीय नागरिक उन्हें स्थानीय
उच्चारण के हिसाब से नाथू, चार्ली साहिब और इंद्री कहा करते
थे । हर्षिल में विल्सन की आमद कैसे हुई
थी यह बात बहुत स्पष्ट नहीं है । कोई कहता वह अंग्रेजों की पलटन का निकाला हुआ
सिपाही या अधिकारी था तो कोई किसी और कथा का आधार देता । मसलन, वह योर्कशायर के
मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था और अपने को व्यापारी, फोरेस्टर
या कॉन्ट्रेक्टर कहा करता लेकिन इतना जरुर है कि इधर के इलाके में सेब की खेती और
झूला पुल बनाने की कारीगरी विल्सन की प्रसिद्धि का बड़ा कारण रही है । विल्सन ने
गंगोत्री और हर्षिल के बीच भैरोघाटी के पास एक संस्पेंशन ब्रिज का निर्माण किया था,
जिस पर से आरपार जाने में स्थानीय नागरिकों की आनाकानी और अविश्वास
को देखते हुए उसने अपने घोड़े पर चढ़कर इस पार से उस पार जाकर जनता में वह विश्वास
बहल किया कि इस झूला पुल से घाटी और नदी के प्रबल और भयावह प्रवाह को पार किया जा
सकता है । उस रात की डिनर के समय मेरे, ऋचा, पीकू, ऋचा के मम्मी-पापा ने विल्सन के बारे जानना
चाहा । कमरे में रात के लिए गर्म पानी पहुँचाने आए मध्यवय वाले वेटर से जब मैंने
यह सवाल किया कि पहाड़ी विल्सन के बारे में कुछ बताओ? उसने
फ़िल्मी रहस्य ओढने के बाद मुझसे ही पूछा - 'आप कैसे जानते हो
पहाड़ी राजा विल्सन के बारे में ? रात में उसके बारे
में बात नहीं करना । वह आज भी हर चांदनी रात को अपने घोड़े पर बैठकर रस्सी के झूले
वाले पुल से गुजरता है । हर्षिल और मुखबा के अनेक ग्रामीणों ने उसके घोड़े की टापों
की आवाज़ देर रात गए सुनी है । वह आज भी इन्हीं पहाड़ों में घूमता है । '- मुझे उसके बताने के तरीके में मजा आ रहा था और वह वेटर अपनी पूरी कथाशक्ति
और आंगिक अभिनय से हमें डराने में लगा हुआ था । विल्सन की कथा हर्षिल के शानदार हिस्सों
में से है । एक तो इस किस्से को इस इलाके में आने वाले लगभग सभी ट्रेवेलर्स ने
कमोबेश पढ़-जान रखा है । दूसरे एक दूर-दराज के अंग्रेज के स्थानीय महिलाओं से विवाह
स्थिर कर ताउम्र यहीं ठहर जाने की प्यारी-सी कथा का सुयोग जो इसमें ठहरा है,
जहाँ वह विल्सन से स्थानीय 'हुल्सेन साहिब'
बन गया । गढ़वाल के इस हिस्से में यह अंग्रेज साहिब संभवतः रुडयार्ड
किपलिंग के उस कथा 'द मैन हु वुड बी किंग' का आधार बना था, यह मैं नहीं कहता, हचिसन साहिब का कहना है । पर यह तो तय जानिए कि ब्रिटिश आर्मी का एक युवा
अधिकारी पहले अफगान युद्ध से लौटकर हिमालय के इस इलाके में आता है और इस इलाके में
एक बदलाव की जमीन तैयार करता हुआ किंवदंती बन जाता है । मैं सपरिवार और अपने
स्टूडेंट जोगी के साथ हर्षिल बार-बार लौटने की भूमिका रचता हुआ नीचे उतरता हूँ । एक
डोर-सी बंधी है मेरे और गढ़वाल के बीच, जो दिल्ली रहकर भी
लौटा लाने को आतुर है हमेशा । पंच केदार की जमीन हो कि गंगोत्री-गोमुख-तपोवन । हर्षिल
वाकई यात्रा का अंत नहीं बल्कि शेष है जो कई दफे भी उस 'शेष'
को बचाकर ही रखती है । सम्पूर्णता वैसे भी मृत्यु है और हर्षिल तो
जीवन ही जीवन है , उसका शेष होना ही श्रेयस है । यात्रा का
दुर्गम हर्षिल में इतना रमणीय हो जाता है कि फिर-फिर लौटने की प्रबल उत्कंठा उस
दुर्गम के सुगम मान लेती है । चीला वाली टपरी पर खिर्सू सुनकर हंसने वाले, फिर गंगोत्री जाना समझ उस पंडित जी ने किसी दैवयोग से ही कहा होगा -
शुभास्तु पंथान: और देखिए वही रहा । तो देर किस बात की है आप भी हो आइए हर्षिल,
फिर यह जगह आपकी पसंदीदा जगहों में शुमार हो जाएगी । जिसे आप बार-बार
जीना चाहेंगे ।
• यहाँ
की सुबह-दोपहर-शाम तय कीजिए
सुबह का आरंभ
जल्दी कीजिए । सुबह की चाय के बाद भागीरथी के फैलाव के साथ किनारे-किनारे दूर तक
ढलानों पर तने खड़े खुशबूदार देवदार से बतियाते और उनकी सुगंधी को अपने नथुनों में
भरते जाइए और लौटते हुए मुख्य सड़क पर किसी छोटी काठ की पुरानी दीवारों वाली टपरी
के बाहर ताज़ी उतर रही धूप में दालचीनी,
अदरक वाली चाय को बंद बटर और ऑमलेट के साथ स्वाद लेते हुए अपने रुकने की जगह लौट
आइए । मुख्य बाजार से एक पतली-सी गली हर्षिल के डाकघर तक जाती है । यह डाकघर के
नाम पर पुरानेपन का एकमात्र ढांचा भर दिखता है पर है सक्रिय । सिनेमाप्रेमी खासकर 'राम तेरी गंगा मैली' वाले इस डाकघर के पास अपनी
तस्वीर खिंचवाने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि जब समय और बाज़ार ने जीवन में,
प्रकृति में हर ओर एक तरह की तब्दीली कर दी है, वैसे में यह डाकघर समय के उसी बिंदु पर वैसे ही अक्षुण्ण खड़ा है जैसा कि
राजकपूर ने अस्सी के दशक में सिनेमा बनाते हुए छोड़ा था । डाक विभाग को भी मोबाइल
के ज़माने में इस चालू डाकघर को बदलने की बहुत जल्दी नहीं है । इस छोटे और समय के
एक बिंदु पर ठहरे हुए से सुंदर दृश्यों को यहाँ की चाय की दुकान के बाहर के पटरे
पर बैठे घंटों ताका जा सकता है क्योंकि हर्षिल आपसे आपका परिचय तब कराता है, जब आप शहराती भागमभाग में खुद को भी भूल चुके होते हैं । यहाँ आकर लगता
है कुछ चीजें ठहरी हुई अधिक सुंदर लगती हैं । अब बेशक चिट्ठियाँ बहुत नहीं
आती-जाती पर सुदूर इलाके में इस जगह के खम्भे पर टिके लेटरबॉक्स का मुँह
मुस्कुराते हुए खुला रहता है । राजकपूर की नायिका ने इसी के पास डाकबाबू को
दिक् किया था - 'पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है डाक बाबू,
आने वाले पहले आ जाते हैं और उनके आने की खबर देने वाली चिट्ठियाँ
बाद में' । हर्षिल का वह सुंदर डाकघर व्यक्तिगत तौर पर मुझे
और ऋचा को बेहद पसंद है ।
हर्षिल की दुपहरी
बाजार से बाहर रेजिमेंट एरिया से निकल कर विल्सन के कॉटेज के पीछे बहते पहाड़ी झरने
को पार करके उस गाँव की ओर जाने का समय है, जहाँ
स्थानीय बुनकर ऊनी दस्ताने, स्वेटर, बंडी,
मोज़े, मफलर, टोपी,
अचार, मुरब्बे आदि बनाकर बेचते हैं । यह सब
हर्षिल के स्थानीय बाजार के अलावा बाहर भी भेजी जाती हैं । मेरे लिए इस इलाके का
सबसे सुन्दर समय अक्टूबर तय है क्योंकि ठण्ड की बहुतायत न होने की वजह से मौसम और
नदी-झरने साफ, सफ़ेद धूप खिली मिलती है । आसपास सस्ते सेब खूब
मिलते हैं और रास्ते खुले होने की वजह से आप उन जगहों पर आसानी से घूम आते हैं, जो सामान्यत: बर्फ के मौसम में आप नहीं देख सकते । वैसे भी पहाड़ों में
बर्फ एक किस्म का रंग भर देती है और आप उसके परे जाकर उस इलाके की वास्तविक
ख़ूबसूरती नहीं देख पाते हैं । हालांकि इसकी अपनी सुंदरता है । हर्षिल में भी खूब
बर्फ़बारी होती है लेकिन हर्षिल के रंग अक्टूबर-नवंबर में ही वैविध्य लिए अधिक चटख
दिखेंगे । दोपहर की गढ़वाली कढ़ी, चावल के भोजन के बाद,
शाम दूसरी दुनिया में ले जाती है । वैसे रात को आप अपने होटल वाले
से मड़ुवे की रोटी वाले स्थानीय भोजन की मांग करें । हर्षिल वैसे भी आपको बहुत
एडवेंचर्स के लिए आमंत्रित नहीं करती बल्कि वह आपको अपने भीतर की कृत्रिमता से
बाहर खींच लेती है । जहाँ आपके शहर का जंग लगा इंसान झटके से नया हो उठता है ।
यहाँ विज्ञापनों वाली दुनिया से अलग एक इत्मीनान है । यही कारण है कि हर्षिल के
लिए अपना प्यार और दैवीय आकर्षण बनाये रखा है । तभी तो उस शाम मुख्य सड़क से टहल कर
आते भागीरथी के पुल के ऊपर सनसन बहती बर्फीली हवा और नदी के शोर से अधिक उस पुल पर
बंधे कपड़ों के तिकोनों की फरफराहट के बीच जोगी रुक कर बोला 'सर
यहाँ न माल रोड जैसी चहलकदमी है, न बिजली लट्टुओं की जगमग,
न बहुत सुविधाएँ लेकिन कुछ ऐसा है, जिसे मैं
हमेशा यहाँ आकर जीना चाहूँगा । शायद यही वह 'कुछ' था, जिसके लिए सुकी में दो रातें खराब कार के ठीक
होने की उम्मीद में टिके होने के बावजूद हमें हर्षिल ले आया ।
• कैसे
जाएं :
यदि आप देहरादून
से हर्षिल जाते हैं तो सुवाखोली से सीधे उतरकाशी का रास्ता लें । एक दूसरा रास्ता
धनौल्टी, कनाताल, टिहरी,
चंबा होते हुए, उत्तरकाशी और हर्षिल को जाता
है । ऋषिकेश से आप नरेंद्र नगर, चंबा,
होते हुए उत्तरकाशी और हर्षिल पहुँच सकते हैं । हर्षिल गंगोत्री
मुख्य मार्ग पर है ।
• कहाँ
ठहरें :
हर्षिल में हर
वर्ग के लिए हर बजट में किफायती जगहें मौजूद हैं । मुख्य बाजार और उसके आसपास छोटे-छोटे
होटल हैं, जिनमें आप खासा मोल-तोल करके रुक
सकते हैं । इसके अतिरिक्त होम स्टे और गढ़वाल मंडल का गेस्ट हाउस भी अन्य विकल्प है
। हर्षिल छोटी-सी जगह है । यहाँ वैसे तो भीड़ नहीं होती पर यात्रा सीजन में भीड़
होने की स्थिति में आप हर्षिल से थोड़ा आगे गंगोत्री मुख्य मार्ग पर धराली में भी
रुक सकते हैं ।
• क्या
देखें :
हर्षिल में
पहाड़ों की शांति और गंगा के विस्तार को देवदारों के साथ टहलते हुए देखिए । स्थानीय
गाँवों तक यात्रा कीजिए और उनके हस्तकारी के काम को देखिए और खरीदिए । यह सब
उत्पाद उत्कृष्ट और किफायती हैं । ट्रेक करने वाले तिब्बती मंदिर तक चढ़ाई कर सकते
हैं । थोड़ी दूर की यात्रा कर मुखबा गाँव में गंगा माँ की शीतकालीन गद्दी के दर्शन किया
जा सकता हैं । हर्षिल में अंग्रेज राजा फ्रेडरिक पहाड़ी विल्सन का आवासीय परिसर यहाँ
का एक दर्शनीय स्थल हैं । हालांकि अब इसकी रंगत पूर्ववत नहीं और यह फोरेस्ट वालों
की देख रेख में हैं । किसी शाम अलाव के पास बैठ चाय पीते किसी स्थानीय बुजुर्ग से
विल्सन के कारनामें सुनिए । हिमालयी वृक्षों फूलों और उनपर पलता वन्य जीवन निहारिए
। भागीरथी के साथ टहलते हुए फेफड़ों को ताजगी दीजिये और प्रकृति का संगीत सुनिए ।
• यात्रा
का बेहतरीन मौसम :
हर्षिल उच्च
हिमालयी क्षेत्र में स्थित चार धाम यात्रा के गंगोत्री धाम वाले रास्ते में
गंगोत्री से 25 कि.मी. पहले स्थित है । यहाँ आने के
लिए मार्च से नवम्बर का समय सर्वथा उचित है । जब भी
आयें गरम कपड़े लेकर आएं । गर्मियों में यहाँ की रात ठंडी ही होती है । सर्दियों
में हर्षिल में बर्फबारी बहुत होती है और लगभग यह इलाका मुख्यालय से एक तरह से कटा
हुआ रहता है फिर भी एडवेंचर के शौकीन इस मौसम में भी यहाँ आना पसंद करते हैं ।
तो देर किस बात की है हो आइये गढ़वाल के इस नीलम के साथ अपनी यादें जीने के लिए
। हर्षिल भागीरथी के इलाके का नीलम ही है, सुंदर और बेशकीमती ।
(c) डॉ॰ मुन्ना कुमार पांडेय
सहायक प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, सत्यवती
कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
(यह संस्मरण हिमालयी सरोकारों के लिए समर्पित पत्रिका "हिमांतर" के वर्ष -1, अंक - 3, अप्रैल - सितंबर, 2021 (संयुक्तांक) में प्रकाशित है। इसे www.himantar.com पर भी पढ़ा जा सकता है। इस लेख को बिना लेखक के संज्ञान में लाए छापना और अपने ब्लॉग पर शेयर करना मना है ।)
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