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Showing posts from July, 2008

हम जो चलने लगे ..........बदलता सहेली गावं

एक जगह है सहेली । आप पूछेंगे ये कहाँ है ? सहेली मध्य प्रदेश के नागपुर- भोपाल हाईवे पर इटारसी से २२ किलोमीटर पर मुख्य मार्ग से २ कि .मी भीतर पश्चिम में स्थित है। मध्यप्रदेश के अन्य गांवो की तरह ही सहेली भी एक साधारण-सा ही गावं है। मगर हम बात कर रहे हैं,यहाँ रहने वाले समुदायों की। इस पंचायत के दायरे में ताकू ,केसला (कोरकू पुरा ),हिरन चापड़ा ,कतियापुरा आदि जगहे आती हैं। इस पूरे एरिया में मुख्यतः दो जातियाँ हैं-अहीर (यादव)और कोरकू (जनजाति) । जहाँ अहीर जाति के पास यहाँ की तक़रीबन सारी जमीन है,वहीँ कोरकू लोग इनकी जमीनों पर आश्रित रहे हैं । पंचायती राज-व्यवस्था में ये गावं आरक्षित घोषित हो गया और इसकी सरपंच अब एक कोरकू महिला "कुब्जा बाई" है काफ़ी समय तक यहाँ की स्थिति जस-की-तस रही है,क्योंकि अनपढ़ होने की वजह से 'कुब्जा बाई' को अपनी पूरी ताकत का पता नही था । अब चूँकि उप-सरपंच यादव समुदाय से ही बनते रहे हैं, अतः सारी मलाई कैसे खानी है या उसका बन्दर-बाँट कैसे होना है उन्हें बेहतर पता रहता था और हमारी 'कुब्जा बाई'कागज़ पर अंगूठा ही लगाती थी । खैर ,हमारा फिल्ड सहेली के आस

डी यु में चिपको आन्दोलन .....(रग्बी बनाम हरियाली)

दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी बड़े जोर-शोर से चल रही है । हर जगह बड़े आकर्षक होर्डिंग्स और पोस्टर -बैनर लगे हुए हैं और लग रहे हैं। हर तरफ़ फील गुड जैसा कुछ-कुछ लग रहा है। मुख्यमंत्री महोदया का महकमा भी ऐसे चिल्लपों मचा रहा है मानो२०१० न हुआ कोई कारूँका का खजाना दिल्ली वालों को मिलने ही वाला है ..यूँ किबस -बस मिला ही चाहता है। लो अब तो बस कुछ ही सौ दिन रह गए हैं...अजी दिल्ली वालोंजब इतना वेट किया अच्छे दिन और लाइफ स्टाइल के लिए तो थोड़ा सा और वेट नही किया जाता तुमसे -हद है बेताबी की। अब क्या करें ,इतने बड़े और बेमिसाल खेल के आयोजन का सुख -सौंदर्य थोड़ा पेसेंस और कुर्बानी की डिमांड तो करेगा ना?सो हर जगह गंदे -भद्दे ,बुरे ,ख़राब आदि -आदि जैसे चीजों को या तो रंग पोता जा रहा है या फ़िर हटाया जा रहा है ताकि आपकी ,हमारी ,हम सबकी दिल्ली नई-नवेली दुल्हन की तरह सजी -धजी और साफ़ -सुथरी ..आं ...आं ...आं ...(विश्वस्तरीय) लगे । अतः इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए प्रशासन और दिल्ली यूनिवर्सिटी ने यूनिवर्सिटी के वी .सी.ऑफिस के सामने लगे सैकडो पेडोको काटने की योजना बनाई है। ताकि यूनिवर्सिटी के ग्र

गवनवा के साड़ी के बहाने.....भोजपुरी गीत

९० के बाद के दौर में २-३ बड़े नाम भोजपुरी गायकी में सामने आए,इनमे मुन्ना सिंह (नथुनिये पर गोली मारे सैयां हमार हो ....-फेम ),भारत शर्मा 'व्यास'( गवनवा के साड़ी नैहर से आई ...-फेम)एवं बालेश्वर यादव जैसे कुछेक प्रमुख हैं । हालांकि इन सबो से काफ़ी पहले से ही बिहार कोकिला शारदा सिन्हा ने काफ़ी सुंदर और दिल को छु लेने वाले गीत गए। देखने वाली बात ये है कि इनके गीतों में फिल्मी ,नॉन फिल्मी ,त्योहारों के,और लोकगीत भी हैं । जब भारत शर्मा जैसे गायक सामने आ रहे और सराहे जा रहे थे ,उसी समय इनके समानांतर एक ऐसे गायकों का दल सामने आया जिसने भोजपुरी गानों का रूप ही बदल के रख दिया ।कमाल की बात तो ये थी कि इन्होने अपने अल्बमो के टाइटल भक्ति वाले रखने लगे ,मसलन शिव विवाह ,शिव कलेवा इत्यादि । ये दोनों एल्बम विजेंद्र गिरी के गाये हुए थे ,जो अपने एक गीत "लजाइन काहे खाई अपना भतरा के कमाई"के कारण काफ़ी मशहूर हुआ । इसी एल्बम को बाद में भोजपुरी दुगोला का सब टाइटल देकर फ़िर से मार्केट में उतारा गया था,जो फ़िर अपने एक दुसरे गीत जो इसी एल्बम के पहले वाले गीत (जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं )का जव

भोजपुरी फिल्मी गीतों की सही पहचान ....

कल जे० एन० यु० गया था .दोस्तों से हो रही चकल्लस के बीच एक महाशय ने ये कह दिया की "अजी आपकी ज़बान के गीतों में अश्लीलता ही अश्लीलता ही है "-उनकी ये बात मुझे चुभ गई .मगर क्या करता जिस तरह की भोजपुरी गीत पिछले एक दशक से ऑडियो ,विडियो माध्यम से हमारे सामने आ रहे है ..उनको सुन कर किसी की भी धारणा यही बनेगी। वैसे इस स्थिति के लिए भोजपुरिया समाज भी कम जिम्मेदार नहीं है,उन्होंने भी इसी तरह के गीतों को बजने भी दिया और बजाया भी.और तुर्रा ये की अपनी ही पीठ ठोकते रहे की बहुत बढ़िया गीत है साथ ही ,थोडी ओढी हुई नैतिकता का दिखावा करते हुए ये भी कह देते रहे कि " ई स्साला गुडुवा(गुड्डू रंगीला ) अइसने गीत गवेला जे कि समाज में हमनी के सुन ना सकिले जा "-उन्हें ये पता है कि गाने अश्लील हैं .मगर इस पर विचार करने का समय उनके पास नहीं है कि कभी अपनी इस ज़बान के अच्छाइयों वाले उन गीतों के बारें में भी जाने जो वाकई भोजपुरिया संस्कृति कि अस्मिता कि पहचान हैं.आठवें दशक में आई कुछ भोजपुरी फिल्मों में भी कुछ गाने ऐसे थे ,जिन्हें सुन कर मन खिल उठता था ...जरुरत है उनकी पहचान कर एक बार फ़िर सुनने की

लाइब्रेरी नही रही अब पढने की जगह ...

पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी के केंद्रीय सन्दर्भ पुस्तकालय ने एक अजीबोगरीब फरमान जारी किया है किअब कोई भी स्टुडेंट ,रिसेर्चेर और शिक्षक अपना बैग और अन्य स्टडी मटेरिअल लाइब्रेरी के भीतर नही ला सकताअब ऐसे में जबकि सभी लोग यहाँ अपने अपने काम यानि पढ़ाई लिखाई के लिए आते हैं और साथ में और जगहों से भी मटेरिअल लाते हैं ताकि इत्मिनान से वो अपना काम कर सके ,ऐसे में लाइब्रेरी प्रशासन का ये हुक्मनामा किस हद तक जायज़ है.यद्यपि हमारे कुछ शोधार्थी और शिक्षकों ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है और लाइब्रेरी प्रशासन से सीधे सीधे ये कह दिया है कि पढाई के मसले पर कोई समझौता नही किया जा सकता.फ़िर भी अभी तक इन महानुभावों के कान पर जूंतक नही रेंग रही है.एक और बात जो कि ज्यादा महत्वपूर्ण है वो ये कि लाइब्रेरी सिस्टम ने ये नौटंकी तब शुरू कि है जब अधिकाँश छात्रों के शोध विषय या तो निर्धारित हो रहे हैं या फ़िर हो चुके हैं।यह सभी को पता है कि एक शोधार्थी अपने चुनिन्दा विषय को लेकर देश के कई पुस्तकालयों में घूमकर मैटर इकठ्ठा करके अपना पेपर लिखता हैऐसे में कई छात्र ऐसे भी होते हैं जिनका पढने का आशियाना ही लाइब्रेरी ही

विश्वविद्यालय के चम्पू

आप सभी ने अपने अपने जिंदगी में यूनिवर्सिटी के एक से बढ़ कर एक चम्पू देखे होंगे .मगर आज हम जिस तरह के विश्वविद्यालयी चंपुओं की बात कर रहे हैं वो कुछ विशेष प्रजाति के हैं। पहली प्रजाति वो है अपने अपने विभाग की सो कॉल्ड ब्रेकिंग न्यूज़ देते हैं .इनके सोर्स का पता नही होता ,और ये जब भी कुछ मार्केट में उछालते हैं unhe सिर्फ़ जूनियर्स में अपना मार्केट बनाना होता है और एक और सीज़न ही इनका peek सीज़न होता है यानि नए बच्चों में अपना कोलर ऊँचा कैसे भी किया जाए .इस तरह के प्रयासों से ये अपने पर फोसला के मेंबरशिप के लेबल से छुटकारा पाना चाहते हैं .जो कि हर साल और भी तगडे गोंड sarikha चिपक जाता है.बहरहाल दुसरेवाले चम्पू डिपार्टमेन्ट में अपनी साख एक अजूबे कि तरह हर दिन नए तरीके से बनाते हैं यानि पढ़ाई तो खैर हो ही साथ ही जब तक टीचर्स डिपार्टमेन्ट में हो तब तक ये ऑफिस के बाहर खड़े होकर अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं, वो अलग बात है कि टीचर्स ख़ुद ही इन्हे इग्नोर करते रहते हैं .ये कमाल के धैर्यवान होते हैं इनकी धैर्यता को शत शत नमन .तीसरे वो हैं जिन्हें बी बी सी यानि बिना बात चेप कहा जाता है,.इनका का

इरादे से ..

हॉस्टल की निराली दुनिया में कभी कभी ऐसा भी दिन आता है जब हम सभी को फेअरवेल यानि विदाई दी जाती है .मगर दिल्ली यूनिवर्सिटी के ग्वायेर हॉल में न तो फ्रेशेर्स वेलकॉम मिला न ही फेअरवेल .तिस पर ये की अथॉरिटी ने बढ़ते मेस खर्च और जमा न कर पाने की असमर्थता लिए कुछ स्टूडेंट्स के कारण हमारा मेस ही बंद रखा. ये तब हुआ जब स्टूडेंट्स अपने अपने करियर को एक नया शेप देने में लगे थे यानि आगे कुछ दिनों में होने वाले एंट्रेंस की तयारी में लगे हुए थे,अथॉरिटी के कुछ खास लोगो तक हॉस्टल खली करने का लव लैटर नही पहुँचा ,अपनी नजदीकियों के कारण शायद हमारे सचिव साहब जिनका कार्यकाल काफी संदिग्ध रहा है ,नौ हजार से ज्यादा मेस डयूस रहने के बावजूद उनकी एंट्री mes में है मगर जो वाकई पैसा जमा करने में असमर्थ हैं अथॉरिटी उन्हें बहार रख रही है .शायद अपने पढ़ाई से मतलब रखने और अपनी प्रकृति में रिज़र्व रहने के कारण अथॉरिटी की हिटलर शाही उन्ही पर अपनी गाज गिरा रही है ,जबकि अगली लिस्ट आने तक उन्हें गेस्ट बसिस पर हॉस्टल दिया जा सकता है .मगर लगता है उन्हें वो तिकड़म नही आते जो इस चाटुकारिता वाली सिस्टम में चलते हैं .तो जाहिर है