ये डूसू चुनाव है ...
बाढ और बारिश के इस मौसम में नाना किस्म की बीमारियों के साथ बरसाती मेढकों की जमात भी बाहर आकर टर्राने लगती हैं। इसी तरह कई तरह के टर्राने के सुर हम यदा-कदा अपने आस- पास सुनते रहते हैं। अधिकांश टर्र -टर्र चुनाव के दौरान सुनने में आती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ये मौसम जोर पकड़ चुका है। बरसाती मेंढ.. ....माफ़ कीजिये हमारे संभावित नेता उभर आए है (अपने जमाती भाईलोगों के साथ)। टर्राना अपने-अपने सुर में चालु है।मेढकों से अलग मनुष्यों में ये टर्राना किसी मुद्दे पर आधारित होता है। हमारे यहाँ इस सुर में मुद्दे की चटनी लगी होती है। इसी चटनी का कमाल है,कि इससे कुछ बाबा छात्रों को कभी नैन सुख कभी कार सुख और सबसे बड़ा लक्ष्मी सुख विद सोमरस मिल जाता है। इसी आस में ये अपने-अपने (मतलब की चुनाव तक अपने )उम्मीदवारों के साथ में (माने यूनिवर्सिटी में)दौड़ते -भागते दिखाई देते हैं मानो-"तोरे खातिर प्रेम पियारी राज छोड़ के भयहु भिखारी"-वाला जज्बा लेकर दीखते हैयानी इलेक्शन तक अपने सो काल्ड नेता की परछाई बन जाते हैं। आज तक समझ नही आया किआख़िर चुनावो के बाद यूं गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सर से सिंग । खैर ,आजकल हॉस्टल में रोज पोस्ट डिनर कई नेताओ से मिलना हो रहा है,जो कम-से-कम स्टुडेंट नही ही लगते है। उनकी बातचीत का लहजा ,बॉडी लैंग्वेज ,साथ के भाई लोग उनकी इमेज आम छात्रों में एक गुंडे की ही बनाते हैं। लड़कियों के बहुलता वाले इस मुकाबले में मज़ा तो खूब है,कमाल का विरोधाभासी चुनावी भाषण भी है इनका । मसलन ,दोनों का बड़ा मुद्दा है,सेफ कैम्पस (लड़कियों के लिए),कोम्पक्ट कैम्पस,सेक्सुअल हरासमेंट फ्री कैम्पस आदि। कमाल की बात तो ये होती है कि ये लड़कियों के पास इन्ही मुद्दों के साथ जा रही हैं(ये हर साल के हिट मुद्दे हैं और आज भी चल रहे हैं)मगर इन नेताओ के साथ जो होते हैं उनकी कद काठी कम-से-कम आम आदमियों वाली नही होती। तब सही में लगने लगता है कि हां जिनके साथ ऐसे -ऐसे पहलवान घूम रहे हैं वो जरुर लड़कियों के लिए सेफ कैम्पस बना देंगी-"वो सुबह कभी तो आएगी..... । इनकी मुस्कराहट की भी लडाई है कि कौन कितना बढ़िया मुस्कुराता है। खैर ,आजकल डूसू में इतने सारे अच्छे कामो की उम्मीद जगाते इन उम्मीदवारों को देखते करीब ७ साल बीत गए हैं। साथ ही ,एक बात और बता दूँ कि हर बार ये जानने के बावजूद कि कुछ नया नही होने का फिर भी उम्मीद लगाता हूँ कि शायद इस बार यूनिवर्सिटी की फिजाओं में कुछ बदलाव होगा । हर बार निराश होता हूँ,मगर फिर भी....वो सुबह कभी तो आएगी...का जज्बा बरक़रार है। वैसे इस तरह के चुनाव का नजारा मेरे जे.एन.यु.वाले दोस्तों के लिए एकदम नया हैऔर लगभग उनके लिए आश्चर्य पैदा कर रहा है। अजित तो पूछ बैठा-"इस बार का चुनावी मुद्दा क्या है?"और मैं हंस कर जवाब देता हूँ -"हर बार का मुद्दा ग्लैमर(जिसके पास बढ़िया और आकर्षक स्टफ्फ है वो यहाँ विजेता हैं ) "। पर मैं जानता हूँ ये जवाब नही है। इस बार भी देखता हूँ ....क्या होता है। कम-से-कम ये चुने जाने वाले प्रतिनिधि छात्र-हितों के नाम पर विभागों में तोड़-फोड़ को ही अपना कर्तव्य न समझे।अरविन्द आकर दुबारा ये ना कहे -"गुरु एक-से-बढ़कर एक सामान मैदान में है...और तरुण फ़िर ये ना कहे -"छोड़ ना ..सालों को... इनका तो हर साल का यही ड्रामा है। "....खेल चालु है....
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