हिन्दी हैं हम...... (नही वतन के)एक विमर्श ऐसा भी.


साक्षी घर से बाहर दिल्ली पढने निकली मगर दुनिया ने उसे एक नया पाठ पढाया । वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में शोध -छात्रा है। रिसर्चर एक बेहद ही बेचारा जीव होता है,जब तक कि उसका नेट या जे.आर.ऍफ़.नही हुआ। उसकी चिंता थोडी अलग किस्म की है। उसके बड़े भाई और एक अदद छोटी बहन हैं,जो दिल्ली के ही जे .एन.यु.में हिस्ट्री के स्टूडेंट्स हैं। पिछले दिनों उसका दौरा अपने भाई-बहन के हॉस्टल का हुआ । ना -ना ये मत समझिये की वो पहली बार वह गई थी। चूंकि साक्षी एक्टिविस्ट भी है और प्रतिध्वनि से जुड़ी हुई है अतः इस कारण भी उसका वहाँ जाना होता है। अब कहानी में थोड़ा ट्विस्ट है,साक्षी एक अच्छी कवियत्री भी हैं। सो, इनके भाई-बहन के दोस्तों को उनके इस गुण का पता उस रात चल गया बस फ़िर क्या था ,जैसा किहम सभी जानते हैं कि कवि भी इस समाज में एक बिन कीमत की जायदाद होता है,तो साक्षी जी बड़ी ही भावुक होकर उस बज्म में कविता-पाठ कर रही थी। कविता कार्यक्रम के बाद लोगों ने कहा -"अरे साक्षी ,तुम इतनी बढिया हिन्दी जानती हो,इतनी बढिया पोएट्री करती हो ,और एक तुम्हारे ये भाई-बहन लगता है कि दिल्ली में नही अंग्रेज़ी में पैदा हुए हैं। "-उपरी तौर पर साक्षी को ये कम्मेंट अच्छा लगा,लेकिन एकांत में साक्षी पर वही पुराना शोधार्थियों वाला भूत चढ़ गया,वो लगा बाल की खाल निकालने। शायद हिन्दी का मजाक बना है,वे लोग बड़ाई नही बल्कि मज़े ले रहे थे। बस इतनी बात दिमाग में घुसनी थी कि रिसर्चर को मन दुखी हो गया । अब था मौका मुद्दे के सार्वजनिक होने का कि क्या वाकई हिन्दी की खिचाई हुई है?या ये सिर्फ़ हमारी कमअक्ली या फ़िर दिमाग का फितूर है। सबने अपनी-अपनी राय दी(यकीन जानिए किसी भी आमंत्रित मित्र ने अपनी कीमती राय के पैसे भी चार्ज नही किए)। हिन्दी-विमर्श अब बिना पेट-पूजा के कैसे हो,तो अब चूँकि समस्या उठाई साक्षी जी ने थी तो ये साधुवादी बीडा भी उन्होंने ही उठाया । चूँकि सभी विमर्शक इतनी ऊँचाई के नही थे कि कोई सेमीनार रूम बुक कर लेते और कुछ भव्य -सा आयोजन कर डालते ,तो सर्वसम्मति से निरुलाज से कॉफी और ला -फैकल्टी से पेटिश लिया गया । चर्चा ने जोर पकड़ा(पकड़ना भी चाहिए था क्योंकि पेट में मेटेरियल ,इंधन पड़ चुका था। बहस का पहला निष्कर्ष ये निकला कि इंग्लिश और सोशल साईंस वाले अपने को ज्यादा तोपची समझते है। पता नही क्या-क्या पढ़ते हैं हम उनपर कभी कुछ छीटाकशी करने भी नही जाते (तात्पर्य :हम हिन्दी वाले उनकी तरह ओछे नही है बल्कि ज्यादा समझदार और संस्कारी हैं)। करुण का कहना था "अब ऐसा नही है चीजे बदल रही हैं,चूँकि बदलाव की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि हमे पता नही चल रहा। वैसे भी ऐसे अंग्रेज़ी वाले अपने को हिन्दुस्तान से १००० कदम आगे और इंग्लैंड से महज़ १ कदम पीछे ही मान कर चलते हैं(एक दिक्कत उनकी मानसिकता की भी है) हालांकि ये और बात है कि उनका ये १ कदम वाला पीछापन कभी इंग्लैंड नही पहुचता । पर संतोषजनक बात ये है कि ये अब हमारी सत्ता स्वीकार रहे हैं।" एक और विद्वान् शोधार्थी शिमिर का कथन था-"अब हम भी इस लंगोट छाप टिपिकल हिन्दी से बाहर आकर अपनी पहचान बना रहे हैं। घबराने की जरुरत नही है बस उनकी (एंटी-पार्टी की)मेंटालिटी बदलने की जरुरत है,हम अपनी जगह ठीक हैं।हम अगर ऐसे ही नाज़ुक बनते रहे तो उनका मन और बढेगा ।" एक भावुक वक्ता कर्नव ने लगभग चिल्लाते हुए एंट्री मारी(क्योंकि ये काफी देर से मौका ताड़ रहे थे)-"भाइयो ये महज़ साक्षी की समस्या नही है,इससे पूरे हिन्दी बेल्ट की अस्मिता जुड़ी हुई है,अतः इसके लिए व्यापक स्तर पर आन्दोलन छेड़ना होगा और एक सिग्नेचर कैम्पेन भी चलाना होगा । एक सिगरेट जलाओ भाई (ये भाई सिगरेट बिना एनर्जेटिक नही हो पाते)।"-अब चूँकि बात-विचार कॉफी समय ले चुका था और कॉफी-पेटिश का जोर ख़त्म हो चुका था तो adhyakshiya bhaashan में mahak -maala जी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि "हम हिन्दी वाले भावुक होते हैं और कुछ ज्यादा संवेदनशील भी साथ ही चूँकि ये मसला हमारी साक्षी जी से भी जुडा है जो स्वयम कवि-हृदया हैं सो उनके कोमल मन को ,संवेदन-शील मन को थोडी-सी अनुचित बात से ठेस लग जाती है(अब क्या करें हम हिन्दी वालों का तो दिल ही कुछ ऐसा है)। अतः हम हिन्दी वालों को एकजुट होकर अहिन्दी वालो से टकराना होगा।इसके लिए हमें पुराने के साथ नवीनता का सामंजस्य बिठा कर साहित्य-सर्जना करनी होगी,तभी हम अपना और अपनी हिन्दी का भविष्य सुधार सकेंगे। साक्षी जी को सलाह दी गई किवो मज़बूत बनें साहित्य-सर्जना में उन्हें दूर तक जाना है ,रास्ते में ऐसे-ऐसे ठोकरें मिलती रहती हैं । पर इससे हम रास्ता तो नही बदल लेंगे। (यानि हाथी चले बाज़ार कुत्ते भौंके हज़ार ....)
@::-सम्मलेन ने अंत में ह्रदय की गहराईयों से साक्षी जी द्वारा प्रायोजित जलपान हेतु धन्यवाद दिया । अब हिन्दी के hamaare vidwaan नए सम्मलेन के लिए नए मुर्गे की बाट जोह रहे है।

##(मुद्दा चूँकि नाज़ुक है अतः लेखक ने अपनी पिटाई के डर से नाम और पात्र बदल दिए हैं)

Comments

वाह कुन्ना,क्या स्टोरी का तिया-पाँचा किया है सबके नाम बदल डाले शिमिर,कर्नव । इसलिए तुम्हें भी उसी सूडोनेम से संबोधित किया है ।
Anonymous said…
तुम भी क्या क्या लिखते हो यार. लगता है इस नई-नई बनी 'क्लासलेस सोसायटी' में दिमाग चल गया है. बता रहा हूँ.. अगर ख़ुद धयान नही दिया ना तो हम कुछ महीनो में ही बरबाद हो जायेंगे...! तुम्हारे सर पर हबीब साहब और मेरे सर पर दिल्ली की दीवार गिरी मिलेंगी!

बढ़िया लिखा है. अच्छा ये बताओ इसे लिखने के बाद मीनाक्षी से मार खा ली है या नहीं! ओह... क्या नाम नहीं लेना था??? और वो निरुलास की चाय, ला कैम्पस की पेटीस कहाँ रह गई. मुझ तक तो आई ही नहीं...
aaj tumhare blog ko ek naye andaaz me paya .editing achchhi lagi .sab kuchh aise hee hota hai magar pata nahi apne saath aise hee kuchh kyon nahi hota.sach kehta hoon munna jo mai tujhse kai baar keh chuka hoon .ab to mujhe bhee teri kismat se jalan hone lagi hai . yar ye theek nahi hai .mai apne apko sambhal nahi pata sach kahoon to apni kismat jis par mera kabhi vishwas hee nahi tha ,par khoob gussa aata hai .mai janta hoon ki tu mujhe aur mai tujhe behtar tareeeke se jante hai .in dino jo kuchh hua wo tujhse chhipa nahi hai ...............kya kahoon kuchh samajh nahi aata .mai esa to nahi tha mere dost ,
main bhagyavaadiyon type baat nahi karunga ,magar life ka ek stage aisa aata hai jab hamaari tamaam mehnat-mashakkat ke baad cheeze sahi dhang se output nahi deti.ye daur jyaada der nahi rahta magar dukhaata bahut der tak hai,wo kahte hain naa ki dukh ke din bahut lambe aur sukh ke thode hote hain.
ye daur sabki life mein aata hai maine bhi khoob jhela hai tujhe behtar pata hai.aur tu waisa hi hai badla wadla kuch nahi suna nahi hai kya perfection ko improve karna thoda mishkil hota hai.badhiya hone se pahle zindagi aisa hi imtihaan leti hai.chinta mat karo bas kuch aur samay bas fir sab hamaara hoga.chinta kyon karta hai ab paristhitiytaan hamaari hongi fir sab saath hi to hai.rah gayi jalan ki baat to jo kah diya jaye wo jalan nahi dost ke liye atishay pyaar hota hai...
all comments have a drammatic feature, even in post. interesting.
keep going
pravin kumar said…
mail par comments bheja hai
kya Munna tum kya-kya likhte rahte ho????? iske bdle ek do theory likh di hoti to kam se kam kisi k kaam to aati..............

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