लकीर-हबीबी लांघने की असफल कोशिश-"बहादुर कलारिन"
'बहादुर कलारिन' मूलतः छत्तीसगढ़ी लोक कथा का हबीब तनवीर द्वारा नाट्य रूपांतरण है | इस नाटक को नया थियेटर की मशहूर और भारतीय रंगजगत की बेहतरीन अभिनेत्रियों में शुमार 'फ़िदा बाई'के गुजर जाने के बाद हबीब तनवीर ने इस नाटक को करना बंद कर दिया,उनका मानना था कि बहादुर कलारिन की किरदार की जितनी परतें हैं वह सबके बस की बात नहीं,इसलिए फ़िदा बाई के चले जाने के बाद मैंने यह नाटक बंद कर दिया | हबीब साहब के रंगकर्म को नजदीक से जाने वाले यह बखूबी जानते हैं कि बहादुर कलारिन भले ही चरणदास चोर जितना मशहूर न हुआ हो पर यह नाटक हबीब तनवीर के दिल के काफी करीब था | इस नाटक को कुछ वर्ष पहले रायपुर में कुछ रंगकर्मियों ने खेलने की कोशिश की थी,पर उनका यह प्रयास एक कमजोर प्रयास बनकर रह गया बहादुर कलारिन का नाटकीय तनाव इसकी जान है और इसको सँभालने के लिए कुशल निर्देशन और दक्ष अभिनेताओं की मांग करता है | २९ जुलाई को दिल्ली के कमानी सभागार में संगीत नाटक अकादमी के सौजन्य से दर्पण लखनऊ की टीम ने इस नाटक को अवधि-हिंदी मिश्रित जबान में श्री उर्मिल कुमार थपलियाल के निर्देशन में खेला | अवधी और हिंदी के मेल,लोक-संगीत का प्रयोग तथा रंग-छंगा की मंचीय उपस्थिति कराकर थपलियाल जी ने नाटक के लोक तत्वों को भरसक जीवित करने की कोशिश की पर यह बात कहावत में ही अच्छी लगती है कि तबियत से पत्थर उछाला जाये तो आसमान में सुराख हो सकता है | हबीब तनवीर ने जो लकीर खींच दी है वह लकीर लांघना सबके बूते की बात नहीं है | थपिलियाल इससे अछूते नहीं रह सके | बहादुर कलारिन की इस प्रस्तुति में रूपांतरण करते हुए एक बड़ी गलती तो यही पर उभर कर सामने आ जाती है जब राजा के मरने के बाद के दृश्य में सीधे शादियों का दृश्य प्रस्तुत कर दिया जाता है | इस नाटक में जिस इन्सेस्ट की ओर इशारा है और जिस वजह से यह कहानी ईडिपस कॉम्प्लेक्स के साथ एक महान दुखांत की जमीन तैयार करती है,वह दर्पण की प्रस्तुति से गायब दिखा | जबकि मूल कथानक में राजा की मृत्यु पश्चात विलाप करती बहादुर पहली बार अपने जवान होते बेटे 'छछान'के गले लगती है और छ्छान के मन में पहली बार इन्सेस्ट का मनोरोग अपनी ही माँ के प्रति जागता है | बाकी की कसर छ्छान बने अभिनेता ने पूरी कर दी | ग्रामीणों के अभिनय में नैसर्गिकता का अभाव साफ़ दिखा
बहादुर के किरदार को दबंग और चंचल दिखाने में भी साफ़ कमी रही और इसी वजह से राजा या छ्चान वाले गंभीर दृश्यों में भी दर्शकों को हंसी आ रही थी | जब गंभीर अभिनय क्षण पर दर्शकों को आप बाँध न सकें तो इसके मायने यह हुआ कि या तो निर्देशक अपनी किस्सा बयानी ठीक नहीं रख सका है अथवा अभिनेताओं ने किरदार गहराई से नहीं किया | जबकि पहली बार जब बहादुर कलारिन कोरबा के खुले मंच पर खेला और कारखाने के कामगारों और देहातियों द्वारा देखा गया तब यह ट्रेजेडी शुरू से आखिर तक सन्नाटें में देखी गयी थी | इसकी वजह साफ़ है कि नाटक के क्रियाव्यपार में प्रेक्षकों को अनुभव की तीव्रता और गहराई दिखाई दी | वैसे भी रंगमंच की अपेक्षा का वास्तविक अर्थ नाटक के मंच पर अभिनेताओं के माध्यम से दृश्य रूप में मूर्त हो सकने की क्षमता और दर्शकों को बाँध लेने के सामर्थ्य से जुड़ा है | इस दृष्टि से भी थपलियाल अपनी इस प्रस्तुति में असफल रहे
मूल बहादुर कलारिन में गीतों की योजना उसके कथा विस्तार को ताकत देती है | 'अईसन सुन्दर नारी के ई बात ,कलारिन ओकर जात / चोला माटी का हे राम एकर का भरोसा / होगे जग अंधियार,राजा बेटा तोला का होगे-जैसे गीत इस ट्रेजेडी को एक सार्थक ऊँचाई देते हैं पर अवधी भाषा (बोली) की यह प्रस्तुति इस ओर से भी निराश करती है | लोक आख्यान 'बहादुर कलारिन'का नाट्य रूप तैयार करते समय नाटककार हबीब तनवीर के सामने 'राजा ईडिपस'की कथा थी,तो दूसरी ओर इन्सेस्ट का मनोरोग भी | इन्सेस्ट की इसी मनोवृति ने इस नाटक को त्रासद रूप दिया क्योंकि उन्होंने इस नाटक के कथानक के सफल बुनावट के लिए मनोविज्ञान के इसी आदिपक्ष 'ईडिपस कॉम्प्लेक्स' और आत्मरति ग्रंथि यानि 'न्यूरोसिस कॉम्प्लेक्स' के सिद्धांत को अपनाया है और जब यह दृश्य नाटककार-निर्देशक के मन में साफ़ हो तो नाटक का कथानक मंच पर खुलकर प्रेक्षकों के सामने आता है पर अफ़सोस लगभग डेढ़ घंटे का समय लेकर भी अवधी की बहादुर न तो अपने साथ जोड़ सकी न उसकी ट्रेजेडी बाँध सकी और बाकि की कसर अभिनेताओं ने पूरी कर दी | ऐसे में निर्देशक-रूपान्तरकार उर्मिल थपलियाल जी पर ही जवाबदेही आती है क्योंकि हबीब तनवीर के पसंदीदा नाटकों को जब भी कोई मंच पर लेकर आएगा उसे हबीब द्वारा खींची लकीर से बार-बार झूझना होगा | ऐसे में भी दर्पण समूह की जिम्मेदारी बढ़ गयी थी क्योंकि तुलना तो अवश्यम्भावी थी और थपलियाल जी, दर्पण समूह इस कथा को अपने प्रयोगों से मंच पर ईमानदारी से रख न सका | कुल मिलाकर निराशाजनक अनुभव रहा और एक वाक्य में कहें तो नाटक नौटंकी बन गया (यहाँ नौटंकी का अभिधात्मक अर्थ न लें )
बहादुर के किरदार को दबंग और चंचल दिखाने में भी साफ़ कमी रही और इसी वजह से राजा या छ्चान वाले गंभीर दृश्यों में भी दर्शकों को हंसी आ रही थी | जब गंभीर अभिनय क्षण पर दर्शकों को आप बाँध न सकें तो इसके मायने यह हुआ कि या तो निर्देशक अपनी किस्सा बयानी ठीक नहीं रख सका है अथवा अभिनेताओं ने किरदार गहराई से नहीं किया | जबकि पहली बार जब बहादुर कलारिन कोरबा के खुले मंच पर खेला और कारखाने के कामगारों और देहातियों द्वारा देखा गया तब यह ट्रेजेडी शुरू से आखिर तक सन्नाटें में देखी गयी थी | इसकी वजह साफ़ है कि नाटक के क्रियाव्यपार में प्रेक्षकों को अनुभव की तीव्रता और गहराई दिखाई दी | वैसे भी रंगमंच की अपेक्षा का वास्तविक अर्थ नाटक के मंच पर अभिनेताओं के माध्यम से दृश्य रूप में मूर्त हो सकने की क्षमता और दर्शकों को बाँध लेने के सामर्थ्य से जुड़ा है | इस दृष्टि से भी थपलियाल अपनी इस प्रस्तुति में असफल रहे
मूल बहादुर कलारिन में गीतों की योजना उसके कथा विस्तार को ताकत देती है | 'अईसन सुन्दर नारी के ई बात ,कलारिन ओकर जात / चोला माटी का हे राम एकर का भरोसा / होगे जग अंधियार,राजा बेटा तोला का होगे-जैसे गीत इस ट्रेजेडी को एक सार्थक ऊँचाई देते हैं पर अवधी भाषा (बोली) की यह प्रस्तुति इस ओर से भी निराश करती है | लोक आख्यान 'बहादुर कलारिन'का नाट्य रूप तैयार करते समय नाटककार हबीब तनवीर के सामने 'राजा ईडिपस'की कथा थी,तो दूसरी ओर इन्सेस्ट का मनोरोग भी | इन्सेस्ट की इसी मनोवृति ने इस नाटक को त्रासद रूप दिया क्योंकि उन्होंने इस नाटक के कथानक के सफल बुनावट के लिए मनोविज्ञान के इसी आदिपक्ष 'ईडिपस कॉम्प्लेक्स' और आत्मरति ग्रंथि यानि 'न्यूरोसिस कॉम्प्लेक्स' के सिद्धांत को अपनाया है और जब यह दृश्य नाटककार-निर्देशक के मन में साफ़ हो तो नाटक का कथानक मंच पर खुलकर प्रेक्षकों के सामने आता है पर अफ़सोस लगभग डेढ़ घंटे का समय लेकर भी अवधी की बहादुर न तो अपने साथ जोड़ सकी न उसकी ट्रेजेडी बाँध सकी और बाकि की कसर अभिनेताओं ने पूरी कर दी | ऐसे में निर्देशक-रूपान्तरकार उर्मिल थपलियाल जी पर ही जवाबदेही आती है क्योंकि हबीब तनवीर के पसंदीदा नाटकों को जब भी कोई मंच पर लेकर आएगा उसे हबीब द्वारा खींची लकीर से बार-बार झूझना होगा | ऐसे में भी दर्पण समूह की जिम्मेदारी बढ़ गयी थी क्योंकि तुलना तो अवश्यम्भावी थी और थपलियाल जी, दर्पण समूह इस कथा को अपने प्रयोगों से मंच पर ईमानदारी से रख न सका | कुल मिलाकर निराशाजनक अनुभव रहा और एक वाक्य में कहें तो नाटक नौटंकी बन गया (यहाँ नौटंकी का अभिधात्मक अर्थ न लें )
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