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Showing posts from September, 2008

हंसने मुस्कुराने के लिए ....

ज़िन्दगी से जब भी थोडी ऊब हो तब कुछेक कवियों की रचनायें बड़ी सहजता से हमारे होंठो पर एक मुस्कराहट छोड़ जाती हैं । पेश है कुछ ऐसे ही कवियों की रचनायें ,उम्मीद करता हूँ उन्हें(कवियों को ) बुरा नहीं लगेगा - (1) "जनता ने नेता से हाथ जोड़कर पुछा - माई-बाप ,क्या आप भी यकीन करते हैं समाजवाद में? नेता ने मुर्गे की टांग चबाते हुए कहा- पहले हम समाज बाद में। " (२) "एक अति आधुनिका कम -से-कम वस्त्र पहनने की करती है अपील और पक्ष में देती है ये दलील कि - 'नारी की इज्ज़त बचाने का यही है अस्त्र , तन पर धारो कम - से-कम वस्त्र। फ़िर पास नहीं फटकेगा कोई पापी दुशासन जैसा जब चीर ही ना होगा तन पर तब , चीरहरण का डर कैसा'।" (3) देख सुंदरी षोडशी मन बगिये खिल जाए मेंढक उछलें प्यार

ये हिंदू प्रेत्तात्मा है...जीसस से नही डरेगी.

पिछले दिनों यूनिवर्सिटी के पास ही फिल्मिस्तान सिनेमा हॉल में हाल ही में आई फ़िल्म"१९२०" देखने गया था। इस फ़िल्म को देखने के पीछे दो मोटिव थे,पहला तो ये कि,मुझे होरर(भुतिया)फिल्में पसंद हैं ,दूसरा ये कि ,इस फ़िल्म में पंडित जसराज ,परवीन सुल्ताना ,शुभा मुदगल जैसे आर्टिस्टों ने गीत गाया था। खैर, गीतों के साथ -साथ जिस तरह के माहौल को मैंने वहां देखा तो लगा कि सही में अपने यहाँ वाले दर्शक जैसे ही होंगे (श्याम चित्र मन्दिर टाइप)। अब बातें फ़िल्म की -दरअसल ये कहानी एक ऐसे जोड़े की है जो एक पुरानी हवेली में इस इरादे से आता है कि उसे तोड़ कर वहाँ एक होटल बनाया जा सके। हवेली अभिसप्त है ,भुतिया है। यहाँ आए पहले दो लोग संदिग्ध स्थितियों में मारे जा चुके हैं। ये जोड़ा (नायक-नायिका)इस बात से बेखबर है। वैसे एक ध्यान देने वाली बात ये है कि हीरो ,जो की हिंदू है एक अनाथ लड़की(हिरोइन) से अपने घर परिवार धार्मिक संस्कारों से टकराकर शादी करता है। लड़की चूँकि ईसाई है और उसकी परवरिश भी चर्च में हुई है तो उसकी निष्ठा अभी इश्वर में है।पर कहानी ये नहीं है । दरअसल हिरोइन उस प्रेत्तात्मा के जड़ में आ जाती

श्याम चित्र मन्दिर (सिनेमा रोड)

घर से तक़रीबन १०-१२ साल हो गए हैं बाहर रहते मगर आज भी जब कभी वहां जाना होता है तो शहर के सिनेमा रोड पर पहुँचते ही दिल की धड़कने अचानक ही बढ़ जाती हैं।ये वह सड़क है जहाँ मैं और मेरे साथ के और कई लड़के बड़े हुए ,समय -असमय ये बाद की बात है। श्याम चित्र मन्दिर हमेशा से ही हम सभी के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रहा था,चाहे कोई भी फ़िल्म लगी हो श्याम चित्र मन्दिर जिंदाबाद। बगल में डी.ऐ.वी.हाई स्कूल है जहाँ से मैंने दसवीं पास की थी। स्कूल में हमेशा ही विज्ञान और मैथ पहली पाली में पढाये जाते थे,मगर मैं ठहरा मूढ़ उस वक्त भी खाम-ख्याली में डूबा रहता था। कभी पास ही के रेलवे स्टेशन पर जाकर स्टीम इंजिन के गाड़ी पर लोगों के जत्थे को चढ़ते उतरते देखता ,तो कभी स्टेशन के पटरी के उस पार के जलेबी के पेडों से जलेबियाँ तोड़ना यही लगभग पहले हाफ का काम था । इस बीच महेश ने मुझे श्याम चित्र मन्दिर का रास्ता सूझा दिया ,फ़िल्म थी -अग्निपथ। भाईसाब तब अमिताभ का नशा जितना मत्थे पे सवार था उतना तो शायद अब किसी और के लिए कभी नहीं होगा। अमिताभ जी की इस फ़िल्म ने पूरी दिनचर्या ही बदल दी। अब शुरू हो गया श्याम सिनेमा के बाबु क्ल

.......इस कारण ये नाचे गदहा.

एक बार की बात है,बादशाह अकबर और बीरबल शाम को टहलने निकले । टहलते-टहलते वे दोनों बाज़ार में पहुंचे;बाज़ार का दृश्य अजीबोगरीब था। एक गदहा बीच बाज़ार में उधम मचाये हुए था,दुलत्तियाँ मार रहा था ,ढेंचू-ढेंचू चिल्ला रहा था सभी व्यापारियों ,ग्राहकों,आने-जाने वालों की जान आफत में थी कि पता नहीं गधा कब,किसे दुलत्ती मार दे। ये दृश्य देखकर बादशाह ने बीरबल से पुछा -'बीरबल,किस कारण ये नाचे गदहा ?'-बीरबल ने पहले गदहे को फ़िर उसकी कारस्तानी को बड़े गौर से देखा और मुस्कुराकर बोले-'जहाँपनाह ,आगे नाथ ना पीछे पगहा (रस्सी)इस कारण ये नाचे गदहा । '-बादशाह ने स्थिति कीअसलियत जान ली और तुंरत ही सिपाहियों को हुक्म दिया किगदहे के गले में पगहा डालकर काबू करो और अभी कांजी हाउस दे आओ। आदेश पर तुंरत ही अमल हुआ और गदहा थोडी ही देर में सीखचों के पीछे चुपचाप खड़ा पत्ते चबा रहा था । ये थी तब की बात जब समाज सामंती सेट -अप में था। मगर अबकी स्थिति कहीं बेहतर है(ऐसा माना जाता है....) क्योंकि अब डेमोक्रेसी है ,यानी आम जनता का तंत्र ..प्रजातंत्र। तब सिर्फ़ सत्ता-प्रतिष्ठान के लोगों को ही सब कुछ करने का हक था मगर

एक थे भिखारी ठाकुर......शेषांश

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गतांक से आगे.... ........भिखारी ठाकुर का कमाल ही था कि एक ही व्यक्ति एक से अधिक रूपों में अपने को बदलता जाता ,भिन्न -भिन्न पात्रों के विभिन्न आचरण एवं उसके हाव-भाव को अपने में सहेजता रहता,उसी के अनुरूप अपने को ढालता जाता और दर्शकों को अपनी ही धारा में बहाए लिए चलता । उनकी अभिव्यक्ति का स्वर इतना सटीक,सरल,सहज और स्वाभाविक होता कि दर्शक भावविभोर हो जाते। प्रसाधन एवं रूप परिवर्तन का कार्य दर्शकों की थोडी-सी आँख बचा के कर लिया जाता। भिखारी ठाकुर ने अपने ज़माने में 'बिदेसिया'को बिहार,झारखण्ड,बंगाल और पूर्वी उत्तरप्रदेश एवम असाम के लोगों के जेहन में उतार दिया था। असाम में जब 'बिदेसिया' का मंचन हुआ था ,तब वहाँ के सिनेमा घरों में ताला लगने की नौबत आ गई थी। 'बिदेसिया'का मूल टोन यही है कि किस तरह से एक भोजपुरिया युवक कमाने पूरब की ओर जाता है और किसी और औरत के फेर में फंस जाता है। इस नाटक या तमाशे की ख़ास बात ये है कि ये भी परंपरागत नाटकों की तरह सुखांत है। इस नाटक के बारे में जी.बी.पन्त संस्थान के 'बिदेसिया प्रोजेक्ट'का रिमार्क है- "bidesia is a phrase design

एक थे भिखारी ठाकुर.....

भोजपुरी अंचल के लोगों में भोजपुरी के शेक्स्पीअर भिखारी ठाकुर कितने भीतर तक पैठे हुए हैं,ये उन्ही लोगों से पूछिए। मेरा भिखारी ठाकुर के रंगकर्म पर इन्ही दिनों में काफी कुछ पढ़ना हुआ ,देखना भी हुआ। उनमे से आपके लिए भी कुछ ........ । ताकि आप भी जान पाये इस महान लोक- कलाकार को। भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक साथ ही कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक,लोक-संगीतकार,और कुशल अभिनेता थे, यानी जैक ऑफ़ आल ट्रेड्स ।भिखारी ठाकुर ने जहाँ अपने से पूर्व से चली आ रही परम्परा को आत्मसात किया था,वही उन्होंने आवश्यकतानुसार उसमे संशोधन-परिवर्धन भी किया। वे स्वयं में एक व्यक्ति से बढ़कर एक सांस्कृतिक संस्था थे। रामलीला ,रासलीला ,जात्रा,भांड,नेटुआ,गोंड.आदि लोक-नाट्य-विधाएं भिखारी के प्रिया क्षेत्र थे। साथ ही,उन्होंने परम्परागत ,पारसी,एवं भारतेंदु के नाटकों से भी प्रभाव ग्रहण किया था। भिखारी ठाकुर ने पारंपरिक नाट्य-शैली से सूत्रधार ,मंगलाचरण तथा अन्य रुढियों को भी कुछ ढीले -ढाले ढंग से स्वीकार किया और विदूषक के बदले "लबार"जैसे पात्र को लोगों के मनोरंजन के लिए प्रस्तुत किया। मंची

चलो हिन्दी मर्सिया पखवाडा मनाएं....

कुछ समय पहले दूरदर्शन के राष्ट्रीय समाचार के प्रसारण के एन पहले नेताजी सुभाषचंद्र बोस का कथन हिन्दी के सन्दर्भ में दिखाया जाता था-"देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाने वाली हिन्दी ही राष्ट्र-भाषा की उत्तराधिकारी है। "-मैं नही जानता के अब भी ये दिखाया जाता है या नही। खैर ,अपने बचपन के दिनों में जब मैं नानी या माँ के साथ जब भी सफर करता था खासतौर पर ट्रेनों में ,तब पूर्वांचल के स्टेशनों पर( चाहे वो बनारस डिविजन के हो या गोरखपुर या फ़िर सोनपुर डिविजन के)हिन्दी को प्रमोट करते ऐसे कई स्लोगन मैंने देखे हैं। आज भी इस क्षेत्र के छोटे -बड़े सभी स्टेशनों पर ये स्लोगन दिख जायेंगे। उन दिनों में इन स्लोगनों को देख कर अपनी बाल-सुलभ जिज्ञासा में नानी या माँ से पूछता था कि,हम जानते हैं कि हम हिन्दी बोलते-लिखते-पढ़ते हैं फ़िर भी इन सबकी क्या जरुरत है। माँ/नानी अपनी समझ में जितना बता सकती थी बता देती थी कि हिन्दी हमारी मदर लैंग्वेज है अतः उसकी ज्यादा से ज्यादा सेवा और प्रचार हेतु ये लिखा गया है और भी न-जाने क्या क्या। हालांकि मेरी जिज्ञासा तब भी वैसी ही रहती थी जैसी अब है कि क्या वाकई मात्र ये स्

आओ छात्रों अपनी सभी समझ पर धूल डालें ....

आज फाईनली वह दिन आ ही गया ,जब हमारे सुंदर-सुदर्शन चेहरों को चुना जाना है। अभी-अभी रामजस कॉलेज और ला-फैकल्टी से घूम कर आया हूँ,वैसे आज के दिन यूनिवर्सिटी का मजेदार चेहरा दिख जाता है(मैं ये नही कह रहा कि बाकी दिन यहाँ मुर्दनी छाई रहती है,मगर आज तो कमाल का दिन होता है)। रामजस के आगे तो ख़ास इन्तेजामात हो रखे हैं। बाहर पुलिस वालों की पूरी टुकडी खड़ी है और ला- फैकल्टी में भी। ये दिल्ली यूनिवर्सिटी का स्टुडेंट इलेक्शन है।यहाँ अभी भी जाट-बिहारी या दिल्ली वाले वर्सेस बाहरी का ही मुद्दा छाया हुआ है।कल मेरा एक दोस्त मिला जो,.....फैकल्टी में प्रेज़...पोस्ट पर फाइट कर रहा है। छूटतेही उसने ये बात मेरे कानों में डाल दी कि-'भाई बात इज्ज़त की हो गई थी। 'और धीरे-से फुसफुसाते हुए बोला -'कुछ करो तुम भी ...अगेंस्ट में एक जाट और एक .....की लड़की है खड़ी है,और जानते हो भाई अपना भाई लोग जो पिछले साल तक अपने साथ था ,इस बार उस लौंडिया को घुमा रहा है लोग।'-फ़िर थोड़ा तैस में आकर बोले-'एक बार ई इलेक्शनवा बीतने दो भईवा,फ़िर बतियाते हैं ई......लोग से "। मैं हंस कर उसे दिलासा देकर आ गया रामजस मे

भिखारी ठाकुर के बहाने.....

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सांस्कृतिक जीवन में जितना प्रभावित मुझे भिखारी ठाकुर ने किया है,उतना शायद ही किसी और ने। बाद के समय में हबीब साहब के रंग-प्रयोग ने बड़ा प्रभावित किया मगर भिखारी तो बस भिखारी ही थे। लगभग एक साल बाद घर जाने पर गावं की एक शादी में जाने का मौका मिला । जैसा कि मेरे यहाँके अधिकांश घरों के ऐसे आयोजनों में होता रहा है ,यहाँ भी एक आर्केस्ट्रा पार्टी बुलाई गई थी। वैसे इस आर्केस्ट्रा कल्चर ने हमारे समाज में ऐसी पैठ बनाई है कि लगता है कि जिनके यहाँ शादियों में ये नही आया उसने शादी के नाम पर सिर्फ़ अपने माथे की बोझ हटाई है। खैर ,मेरे प्राईमरी स्कूल वाले हेडमास्टर साहेब जो अब फ्रेंडली हो गए हैं,-"कहने लगे जानते हो, ई आर्केस्टा की बाई जी लोग इतना माहौल ख़राब कि है सब कि जहाँ ई सबका पोर्ग्राम हुआ की उहे मार हो जाता है,आ लड़का लोग के आँख का पानी मु (मर)गया है। लाज -शर्म सब घोर के पी गया है। "-मैं सोचने लगा ये तो गुरूजी ने अजीब ही बात बताई , चूँकि मैं लोक रंग से बड़ा प्रभावित रहा हूँ ,सो मैंने कहा -"गुरूजी आपके टाइम में भिखारी ठाकुर भी तो अइसने लौंडा नाच करवाते रहते थे,तब क्या ऐसा नही होत