एक थे भिखारी ठाकुर......शेषांश


गतांक से आगे....
........भिखारी ठाकुर का कमाल ही था कि एक ही व्यक्ति एक से अधिक रूपों में अपने को बदलता जाता ,भिन्न -भिन्न पात्रों के विभिन्न आचरण एवं उसके हाव-भाव को अपने में सहेजता रहता,उसी के अनुरूप अपने को ढालता जाता और दर्शकों को अपनी ही धारा में बहाए लिए चलता । उनकी अभिव्यक्ति का स्वर इतना सटीक,सरल,सहज और स्वाभाविक होता कि दर्शक भावविभोर हो जाते। प्रसाधन एवं रूप परिवर्तन का कार्य दर्शकों की थोडी-सी आँख बचा के कर लिया जाता। भिखारी ठाकुर ने अपने ज़माने में 'बिदेसिया'को बिहार,झारखण्ड,बंगाल और पूर्वी उत्तरप्रदेश एवम असाम के लोगों के जेहन में उतार दिया था। असाम में जब 'बिदेसिया' का मंचन हुआ था ,तब वहाँ के सिनेमा घरों में ताला लगने की नौबत आ गई थी। 'बिदेसिया'का मूल टोन यही है कि किस तरह से एक भोजपुरिया युवक कमाने पूरब की ओर जाता है और किसी और औरत के फेर में फंस जाता है। इस नाटक या तमाशे की ख़ास बात ये है कि ये भी परंपरागत नाटकों की तरह सुखांत है। इस नाटक के बारे में जी.बी.पन्त संस्थान के 'बिदेसिया प्रोजेक्ट'का रिमार्क है-
"bidesia is a phrase designations both the people left their country and didn't return and the tradition of performing arts rooted in this migration"

http://www.indianetzone.com/ पर भिखारी ठाकुर के सर्वाधिक चर्चित तमाशा/नाटक 'बिदेसिया'पर टिपण्णी भिखारी ठाकुर के रंगकर्म और उनके इस महान कृति की खासियत को उजागर करती है -
"in olden days,bidesia was famous as it gave voice to many social concerned topics like the cause of poor labourers and tried to create awareness about the poor status of women in the bhojpuri society.casteism and communalism are also handled with due care in the same cultural tunes.sometimes,the tone of bidesia is sarcastic in nature......."

बहरहाल ,इतना जानने के बाद भिखारी ठाकुर के ऊपर भी एक नज़र डालना जरुरी हो जाता है।भिखारी ठाकुर (१८८७-१९७१)भोजपुरी समाज,साहित्य और संस्कृति के संवाहक थे। उनकी रचनाओं में भोजपुरिया संस्कृति की ओरिजनल खुशबू समाई हुई है। उत्तर-भारतीय समाज में व्याप्त विधवा -विवाह ,बेमेल-विवाह,जाती-प्रथा,नशाखोरी एवं विषमता आदि पर आधारित उनके लोक-नाटकों ने जनता का मनोरंजन तो किया ही ,प्रबोधन भी कम नही किया । ऐसे नाटकों में वे भारतेंदु जैसे समर्थ नाटककार तथा नवजागरण के पुरोधा के रूप में दिखाई देते हैं। आख़िर दोनों ही स्वयं नाटक रचते और खेलते थे। निश्चित रूप से सामाजिक बदलाव की ज्वाला दोनों में समान रूप से जल रही थी।
भिखारी ठाकुर का रचना -संसार १९१९-१९६५ के बीच का है। भोजपुरी का ये समर्थ लोक -कलाकार ,जो जाति से नाईऔर नवजागरण के संदेशवाहक ,नारी-विमर्श और दलित-विमर्श के व्याख्याता ,लोकगीत,तथा भजन-कीर्तन के अनन्य साधक थे। प्रख्यात आलोचक और कवि केदारनाथ सिंह का कथन है कि -"वे(भिखारी ठाकुर सच्चे अर्थों में लोक-कलाकार थे,जो मौखिक परम्परा के भीतर से उभर कर आए थे ,पर इनके नाटक और गीत हमें लिखित रूप में उपलब्ध है। .....वे एक लोक-सजग कलाकार थे,इसलिए कोरा मनोरंजन उनका उद्देश्य नही था। उनकी हर कृति किसी-न-किसी सामाजिक विकृति या कुरीति पर चोट करती है और ऐसा करते हुए उसका सबसे धारदार हथियार होता है -व्यंग्य । (नई कविता के मंच पर भिखारी/दैनिक हिंदुस्तान :५ नवम्बर २००२ )
भिखारी ठाकुर ने अपने समाज और उसकी विविध सामाजिक ,आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं को उसकी बड़ी सूक्ष्मता से देखा था । साथ ही, उन्होंने दलितों की विभिन्न समस्याओं के विषय में दलितों के उत्थान के उद्देश्य से लोक-नाटकों ,लोक-गीतों की रचना ही नहीं की;बल्कि अभिनय करके ग्रामीण परिवेश में प्रस्तुत कर उनमें चेतना जगाई । साथ ही अगर हम स्त्रियों की बात करें तो पाते हैं कि भिखारी जी का नारी-विमर्श भारतीय परम्परा का रक्षक और आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी है। वे स्त्रियों को परिवार की धुरी मानते हैं और उन्हें ममतामयी,सदाचरण वाली ,उदार महिला के तौर पर देखते हैं।भिखारी ठाकुर स्वयंएक पिछडी जाति में (नाई)पैदा हुए थे। सामंती समाज -व्यवस्था में यह जाति तथाकथित बड़ी जातियों के बाल-दाढी काटती थी। अपने जीवन में भिखारी ठाकुर को इस व्यवस्था का दंश भोगना पड़ा था और उसके बड़े कटु अनुभव उनके पास थे। जब भिखारी ठाकुर ने अपनी सर्जना की,तो उनके समक्ष समाज का वही दलित ,अशिक्षित,और उपेक्षित वर्ग था। उनके नाटकों का मुख्य थीम दलितों ,स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को उजागर कर उनको जागरूक करना कि किस तरह से उनकी ज़िन्दगी बेहतर हो सकती है। यह इनके नाटकों का ही प्रभाव था कि बेटी बेचने की भर्त्सना हुई,विधवा-विवाह का जोर बढ़ा (खासतौर पर भोजपुर के क्षेत्र में........)। भिखारी ठाकुर ने स्टेज पर नवयुवक कलाकारों को नारी-वेश में नाटक के स्त्री-पात्रों की भूमिका अदा करने का सफल प्रयोग किया। ................

(अगली पोस्ट में पढिये भिखारी ठाकुर की कृतियों और उनके प्रकाशनों पर ,कंटेंट पर बहस...... । तब तक इजाज़त )

Comments

बहुत अच्‍छी सामग्री मुहय्या कराई भि‍खारी ठाकुर पर। रि‍सर्च के लि‍ए भी प्रेरक। अगले अंक का इंतजार रहेगा।
Unknown said…
sir material accha hai...
बिदेसिया इतनी पॉपुलर प्ले-थीम है कि कोई भी सजग पाठक इससे बचकर नही जा सकता । भिखारी ठाकुर का कमाल जैसा तुमने बताया वाकई क़ाबिलेगौर है तुमने अपनी पी.एच.डी इसी पर करनी है ना ?,इस लिहाज से ये और भी खुशी की बात है। इस तरह की शोधेच्छा से ही हिन्दी साहित्य उन ढे़रो से बच सकेगा जो लाईब्रेरी में शोध के नाम पर (कुछ को छोड़कर )अब तक लगते आ रहे हैं । इस तरह के शोध-पञ ही हिन्दी साहित्य को ऐकेडेमिक आलोचना से बचा सकते hai । लेख काफी अच्छा है ।

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