भिखारी ठाकुर के बहाने.....
सांस्कृतिक जीवन में जितना प्रभावित मुझे भिखारी ठाकुर ने किया है,उतना शायद ही किसी और ने। बाद के समय में हबीब साहब के रंग-प्रयोग ने बड़ा प्रभावित किया मगर भिखारी तो बस भिखारी ही थे। लगभग एक साल बाद घर जाने पर गावं की एक शादी में जाने का मौका मिला । जैसा कि मेरे यहाँके अधिकांश घरों के ऐसे आयोजनों में होता रहा है ,यहाँ भी एक आर्केस्ट्रा पार्टी बुलाई गई थी। वैसे इस आर्केस्ट्रा कल्चर ने हमारे समाज में ऐसी पैठ बनाई है कि लगता है कि जिनके यहाँ शादियों में ये नही आया उसने शादी के नाम पर सिर्फ़ अपने माथे की बोझ हटाई है। खैर ,मेरे प्राईमरी स्कूल वाले हेडमास्टर साहेब जो अब फ्रेंडली हो गए हैं,-"कहने लगे जानते हो, ई आर्केस्टा की बाई जी लोग इतना माहौल ख़राब कि है सब कि जहाँ ई सबका पोर्ग्राम हुआ की उहे मार हो जाता है,आ लड़का लोग के आँख का पानी मु (मर)गया है। लाज -शर्म सब घोर के पी गया है। "-मैं सोचने लगा ये तो गुरूजी ने अजीब ही बात बताई , चूँकि मैं लोक रंग से बड़ा प्रभावित रहा हूँ ,सो मैंने कहा -"गुरूजी आपके टाइम में भिखारी ठाकुर भी तो अइसने लौंडा नाच करवाते रहते थे,तब क्या ऐसा नही होता था?"-गुरूजी चिढ कर बोले-"दिल्ली में पढ़ते हो आ बुडबक वाला बात करते हो .भिखारी ठाकुर को खाली लौंडे नाच तक की जानकारी है तुम्हे?बेवकूफी वाला बात करते हो। ये सब जो नौटंकी है ई सब हमारा नेता लोग का फैलाया हुआ है कि भिखारी ठाकुर लौंडा नाच करता था। जबकि सही मायनो में ऐसा नही है। "-गुरूजी काफ़ी समय बाद फॉर्म में दिखाई दिए थे,सो मैंने सोचा कि थोड़ा और कुरेदने पर गुरूजी कुछ और बातें निकाले। बाद में लगभग एक हफ्ते के प्रवास में गुरूजी से बातचीत में काफ़ी कुछ जानने को मिला। मसलन कि एक बार भिखारी ठाकुर ने 'बिदेसिया' का मंचन असम में किया तो ऐसी धूम मची कि सिनेमा -घरों में ताला पड़ने की नौबत आ गई थी। अपने जमाने में भिखारी ठाकुर ने 'बिदेसिया'को न केवल बिहार बल्कि झारखण्ड के क्षेत्रों ,बंगाल ,पूर्वी उत्तर प्रदेश व असम तथा नेपाल के काफ़ी हिस्सों में पोपुलर कर दिया था। बिल्कुल भोजपुरी भाषा के नवजागरण के संवाहक के तौर पर। भिखारी ठाकुर ने ना सिर्फ़ नाटक लिखे बल्कि ख़ुद उनमे पार्ट भी खेला। आख़िर उन्हें बिहार का भारतेंदु यूँ ही नही कहा जाता । ऐसे समय में जब भोजपुरी लोक-संगीत की पहचान कूड़े वाली बनी हुई है ,भिखारी की याद आना स्वाभाविक है। भिखारी के नाटक गबर्घि चोर,बेटी बेचवा,बिदेसिया आदि के लोकगीतों को याद करना चाहिए जहाँ भोजपुरी संस्कृति की पूरी-पूरी झलक मिल जाती है। गौर फरमाइए-'रेलिया बईरिन पिया के लिए जाए रे'या फ़िर 'रूपिया गिनाई लेल अ,'-जैसे गीत अभी भी बिदेसिया को सामने खड़ा कर देते हैं। लबार(विदूषक) की हरकतें भी कमाल की थी। गुरूजी का चेहरा लबार को याद करते ही खिल उठा था। भिखारी महज़ इसी मायने में बड़े नही हो जाते बल्कि बाहर के देशों में गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले जाए जाने वाले 'गिरमिटिया'मजदूरों के दर्द की पहचान का सुर भी अपने गानों में देते थे। बद्री नारायण तिवारी का तो बहुत ही बढ़िया काम है भिखारी के इस तमाशे पर,कभी पढिये-"bidesia :migration ,change,and folk culture....कभी इसे भी पढिये सच कहता हूँ बिदेसिया और अपना लगेगा बाकी उसका अपना रंग-जगत चमत्कृत तो किए हुए ही है।
बाकी फ़िर कभी तब तक मुसाफिर चला....
बाकी फ़िर कभी तब तक मुसाफिर चला....
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