चलो हिन्दी मर्सिया पखवाडा मनाएं....

कुछ समय पहले दूरदर्शन के राष्ट्रीय समाचार के प्रसारण के एन पहले नेताजी सुभाषचंद्र बोस का कथन हिन्दी के सन्दर्भ में दिखाया जाता था-"देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाने वाली हिन्दी ही राष्ट्र-भाषा की उत्तराधिकारी है। "-मैं नही जानता के अब भी ये दिखाया जाता है या नही। खैर ,अपने बचपन के दिनों में जब मैं नानी या माँ के साथ जब भी सफर करता था खासतौर पर ट्रेनों में ,तब पूर्वांचल के स्टेशनों पर( चाहे वो बनारस डिविजन के हो या गोरखपुर या फ़िर सोनपुर डिविजन के)हिन्दी को प्रमोट करते ऐसे कई स्लोगन मैंने देखे हैं। आज भी इस क्षेत्र के छोटे -बड़े सभी स्टेशनों पर ये स्लोगन दिख जायेंगे। उन दिनों में इन स्लोगनों को देख कर अपनी बाल-सुलभ जिज्ञासा में नानी या माँ से पूछता था कि,हम जानते हैं कि हम हिन्दी बोलते-लिखते-पढ़ते हैं फ़िर भी इन सबकी क्या जरुरत है। माँ/नानी अपनी समझ में जितना बता सकती थी बता देती थी कि हिन्दी हमारी मदर लैंग्वेज है अतः उसकी ज्यादा से ज्यादा सेवा और प्रचार हेतु ये लिखा गया है और भी न-जाने क्या क्या। हालांकि मेरी जिज्ञासा तब भी वैसी ही रहती थी जैसी अब है कि क्या वाकई मात्र ये स्लोगन लिखने भर से ऐसी क्रान्ति आने वाली है कि हिन्दी ही हिन्दी बस कुछ नही और।

अपने स्कूल के दिनों में हिन्दी के पठन-पाठन और इसके प्रति प्रेम का जो नतीजा मेरी आंखों के सामने गुज़रा वो आज भी याद है। मेरी स्कूलिंग संत जोसफ से हुई है। वही के दो-एक घटनाओ ने फ़िर मेरे दिमागी फितूर को भड़काया । हुआ यूँ कि मेरे बचपन का क्लासमेट शरदेन्दु जो आजकल कम्प्यूटर इंजीनियर हो गया है,ने अपनी डेली बुक में अपने नाम की एंट्री हिन्दी में की । ये बात किसीने क्लास -इंचार्ज माईकल सर को बता दी फ़िर क्या था,शरदेन्दु को पूरे १/२ घंटे तक मुर्गा बनना पड़ा। ऊपर से हिन्दी में अपना काम नही करने की कसम खानी पड़ी सो अलग। दूसरा वाक्य मेरे ख़ुद से जुड़ा हुआ है। मैं २ या ३ दिन के गैप के बाद स्कूल गया था। मेरे स्कूल में एक नियम था कि जो भी स्टुडेंट अब्सेंट होने के बाद स्कूल में आएगा उसे घर से एप्लीकेसन लिखवा कर आना होता था और प्रिंसिपल ऑफिस से ओके करवाना होता था । हमारे प्रिंसिपल मि एम्.सी.मैथ्यू हुआ करते थे,वह ख़ुद सारे एप्लीकेसन चेक करते थे और अपने नियमानुसार दंड भी दिया करते या छोड़ देते थे। मेरी भी अर्जी भीतर गई और १० मिनट बाद बुलावा भी आ गया । धड़कते दिल से मैं अन्दर घुसा ,प्रिंसिपल ने दांत पीसते हुए पूछा -'एप्प्लिकेशन हिन्दी में लिखवाने को किसने बोला था?'-अब वैसे भी प्रिंसिपल का आतंक स्कूल में इतना था कि वैसे ही घिग्गी बंधी रहती थी,सो मैं भी ये नही कह पाया कि मेरी प्राईमरी स्कूल की टीचर माँ को अंग्रेज़ी नही आती या फ़िर बाबूजी तो ऍप्लिकेशन भी नही लिख सकते। फ़िर क्या था कुछ नही बोल पाने को मेरा घुन्नापन समझा गया और जो कुछ प्रिंसिपल चैंबर में हुआ उसे याद नही करना चाहता । हां इतना याद है कि उतनी पिटाई देख मुझे दूसरे स्कूल डी .ऐ .वी में डाल दिया गया। जहाँ से मैंने अपनी बाकी स्कूली पढाई पूरी की।

बाद में जब मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी से ग्रेजुएशन करने की सोची तब सबसे ज्यादा चिंता मेरे माँ-बाबूजी को ही हुई कि इसके भविष्य का क्या होगा । खैर मेरा जो कुछ हुआ सो हुआ या होगा,मगर हिन्दी प्रेम और हिन्दी दुराग्रह का ऐसा दृश्य मैंने एक ही शहर या क्षेत्र में देखा था । दिल्ली में एक नया दृश्य मेरे सामने था । यहाँ जगह -जगह इन दिनों में (विशेषकर सितम्बर के महीने में ही )हर सरकारी कार्यालयों में १-१५ तक हिन्दी का पखवाडा मना रहे हैं।ये इस पुरे कर्मकांड के माध्यम से ये अपने हिन्दी प्रेम को दर्शाएंगे और दो-एक हिन्दी वालों के सेमीनार पेल देंगे और दो-एक को हिन्दी सम्मान दे देंगे। इस तरह से हिन्दी फ़िर एक साल के लिए इन दफ्तरों के दराज़ में बंद होकर गायब हो जायेगी और बाकी लोग अपनी साँस जो हिन्दी बोल देने से (इस पूरे हिन्दी वीक में )फूल गई थी,को कंट्रोल करेंगे ।सोचता हूँ कि क्या वाकई हिन्दी को इस तरह के आयोजनों की जरुरत है। या फ़िर ये कि मेरी माँ/या अब स्वर्गीय हो चुकी नानी कितना कम जानती थी कि 'हिन्दी हमारी अपनी ही ज़बान है।

अब ये लगता है कि ये हिन्दी को प्रमोट करने वाला खेल दरअसल हिन्दी का मर्सिया है । हम सभी को हिन्दी सप्ताह या पखवाडा ना मना कर हिन्दी का "मर्सिया पखवाडा "मनाना चाहिए"। व्रत लीजिये अब से ये हिन्दी का मर्सिया दिवस के नाम से मनाया जाए और कहा जाए ,बताया जाए कि कभी इस जगह हिन्दी नाम की एक ज़बान हुआ करती थी ,जो अब यही कहीं दफ़न है,और इस भाषा के सम्मान में हम सभी हर जगह हर वर्ष इसका मर्सिया पढ़ते हैं।

Comments

हिन्दी पखवाड़ा मनाना बहुत जरूरी है। किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है।

हमे खुद भी वह सब करना चाहिये जो हिन्दी के विकास एवं प्रचार-प्रसार के लिये जरूरी है तथा साथ ही सरकार से भी उचित कदम उठाने के लिये दबाव बनाना चाहिए। उदाहरण के लिये इस बात का सदा प्रयास होते राना चाहिये कि भारत के अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन हिन्दी में भी हो। "समूह चर्चा" में हिन्दी का विकल्प खुला हो: कहीं पर अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का या केवल अंग्रेजी का टेस्ट न लिया जाता हो। आम नागरिकों को सभी सूचनायें एवं सेवाये (जैसे बैंक एटीएम, रेलवे आरक्षण, खाता खोलने के फ़ार्म, टैक्स जमा करने के फ़ार्म, पासपोर्ट बनवाने के फ़ार्म) हिन्दी में भी उपलब्ध होनी चाहिये।

बड़े काम बड़े मेहनत और धैर्य की अपेक्षा रखते हैं।
आपने बढ़ि‍या संस्‍मरण सुनाया और नि‍ष्‍कर्ष भी सही दि‍या। यह समूह की इच्‍छाशक्ति‍ पर नि‍र्भर करेगा कि‍ हि‍न्‍दी को कहाँ पर और कहॉं तक स्‍थापि‍त करें। वैसे मेरा मानना है कि‍ जब हि‍न्‍दी दि‍वस मनाना आरंभ कि‍या गया था, तब के समय से आज की स्‍थि‍ति‍ काफी बदली है। मैं तो काफी आशावान हूँ।
(अच्‍छा लि‍ख रहे हैं। लि‍खते रहें। साथ ही कमेंट से वर्ड वेरि‍फि‍केशन का टैग हटाने का कष्‍ट करें।)
मुन्ना हिंदी के नाम पर जो धांधलेबाजी हमारे स्कूलों , विश्वविद्यालयों में होती है उससे तुम अच्छी तरह वाक़िफ हो,लेकिन तब भी-------------
१.जब हम हिंदी की बात करते हैं तो क्या हमारा आशय उस हिंदी से होना चाहिए जो पूर्णत् अंग्रेजीरहित हो ? जैसाकि आर.एस.एस या वी.एच.पी. या फिर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की ओर से पिछले काफी अरसे से प्रचारित किया जाता रहा है । सब जानते है ये ग़लत है लेकिन तब भी हिंदी बेल्ट का एक बड़ा तबका इसका समर्थन करता है ।
२. भारत की सबसे बड़ी परीक्षा(सिविल सेवा) में क्या कारण है कि आज भी ८५ प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा देने वाले छाञ चयनित किए जाते हैं ।
३.क्या हिंदी में अब हल्ला करने का माद्दा नही रहा या फिर हम हिंदी वाले इसे पिडेंटिक बेस पर टिकाने के फेर मे भूल गए है कि आज हिंदी व्यापार की भाषा बन चुकी है कंपनियाँ इसे अपना रही है क्योंकि वो जानतीं हैं कि इसके बिना मुनाफा संभव नही जिसके लिए वो काम करतीं हैं ।
४.मुझे अपने साथियों द्वारा कई बार टिपीकल हिंदी जिसे आप शुद्ध हिंदी भी कह सकते है का प्रयोग करते वक़्त एक तरह की कुढ़न का अनुभव होता है । क्या हम समय को नही समझ रहे , क्या हम इसकी शुध्दता और पांडित्यधर्मिता को बनाए रखने के कारण समय और संसार से पिछड़ना चाहते हैं ?
इस तरह के काफी सारे प्रश्न ऐसे समय में यक-ब-यक मेरे दिमाग़ में उभर आते है जब हिंदी पखवाड़े के नाम पर हिंदी वाले खुद हमारी इस माञ भाषा ,राष्ट्र भाषा की धज्जियाँ उड़ाने पर तुल जाते हैं ।
aaj news me RAJ THAKRE ki dhamki suni na ? lo man gaya hindi pakhwada...............

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