.......इस कारण ये नाचे गदहा.
एक बार की बात है,बादशाह अकबर और बीरबल शाम को टहलने निकले । टहलते-टहलते वे दोनों बाज़ार में पहुंचे;बाज़ार का दृश्य अजीबोगरीब था। एक गदहा बीच बाज़ार में उधम मचाये हुए था,दुलत्तियाँ मार रहा था ,ढेंचू-ढेंचू चिल्ला रहा था सभी व्यापारियों ,ग्राहकों,आने-जाने वालों की जान आफत में थी कि पता नहीं गधा कब,किसे दुलत्ती मार दे। ये दृश्य देखकर बादशाह ने बीरबल से पुछा -'बीरबल,किस कारण ये नाचे गदहा ?'-बीरबल ने पहले गदहे को फ़िर उसकी कारस्तानी को बड़े गौर से देखा और मुस्कुराकर बोले-'जहाँपनाह ,आगे नाथ ना पीछे पगहा (रस्सी)इस कारण ये नाचे गदहा । '-बादशाह ने स्थिति कीअसलियत जान ली और तुंरत ही सिपाहियों को हुक्म दिया किगदहे के गले में पगहा डालकर काबू करो और अभी कांजी हाउस दे आओ। आदेश पर तुंरत ही अमल हुआ और गदहा थोडी ही देर में सीखचों के पीछे चुपचाप खड़ा पत्ते चबा रहा था ।
ये थी तब की बात जब समाज सामंती सेट -अप में था। मगर अबकी स्थिति कहीं बेहतर है(ऐसा माना जाता है....) क्योंकि अब डेमोक्रेसी है ,यानी आम जनता का तंत्र ..प्रजातंत्र। तब सिर्फ़ सत्ता-प्रतिष्ठान के लोगों को ही सब कुछ करने का हक था मगर प्रजातंत्र में ऐसा नही है। यहाँ आम-ओ-ख़ास सभी को सब कुछ अपनी मनमर्जी का करने का हक है,साफ़ कहें तो "घोडे और घास को एक जैसी छूट है"। अब कोई लगाम किसी पर कुछ ख़ास प्रभावी नही है। कम-से-कम अपने राज भइया वाले मामले में तो ऐसा ही लग रह है। हालांकि इस सिस्टम में हमारे सामने 'अयोध्या ,गोधरा, कंधमाल जैसे कुछेक और उदाहरण भी हैं। बहरहाल, मनसे वाले राज भाऊ भी अकबरी-समय के उसी बाज़ार (जो अब दूसरे रूप में हैं )में खड़े होकर अपना नाच दिखा रहे हैं। और तुर्रा ये कि उनके गले में भी कोई नाथ-पगहा नहीं है। अब चूँकि प्रजातंत्र है (?) तो ये ....भी खुलेआम नाच रहा है,दुलत्तियाँ मार रहा हैऔर अपना धेंचुपना भी खूब मचा रहा है। पर सनद रहे ये ...कांजी हाउस जाने वाला नहीं है और ये चुपचाप पत्ते भी नहीं चबायेगा । या फ़िर ये भी कि ये कांजी हाउस जायेगा ही क्यों यहाँ किसीकी बादशाहत तो है नही कि एक आदमी जो कहेगा वही सब मानेंगे ,प्रजातंत्र है यहाँ सबके अपने-अपने (बड़े नहीं तो छोटे-छोटे ही सही) अपने हित हैं। तो यहाँ जिसका मुंह जिधर हो जाएगा ,वो उधर चला जाएगा,जो जैसा जानता है वही राग गायेगा। पर यह थीयरी भी केवल चुनिन्दा प्रदेश विशेष के लोगों और उनके बिगडैल नेताओं पर लागू होती है। और ये महानुभाव अपनी दूकान के लिए सबसे पहले उनलोगों को अपना निशाना बनाते हैं जो मजदूर,दूकानदार(छोटे)वगैरह हैं। मनसे के ...की जड़ में ये छोटे किस्म वाले जीव ही ज्यादा थे मगर अब इनका खेल, अपनी पिछली करामात की सफलता से उत्साहित होकर,कुछ दूसरे लेवल का हो चला है। अब यहाँ बड़े नाम हैं (बच्चन परिवार और शाहरुख़ खान दिल्ली वाला)जिनको अपना निशाना बनाते ही इनकी टी आर पी एकदम से टॉप पर पहुँच गई है।
कहने को तो यहाँ (प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में )हमारी सुरक्षा में पुलिस जैसी सुविधा भी प्रदान की गई है मगर इस...के आगे उसकी भी कोई अहमियत(सही कहें तो..डर)नहीं है। अब तक आम पब्लिक को यही पता था कि कोई उल्टा-सीधा कुछ करे तो पुलिस का डंडा सब सही कर देता है मगर यहाँ तो सीन ही दूसरा था । राज भइया तो कुछ बेसिए बहादुर निकले उन्होंने कमिश्नरी हेकडी को यह कहते हुए ठंडा कर दिया कि'वर्दी utaar के सड़क पर आ जाओ ,बता दिया जाएगा कि मुंबई किसके बाप की है''। -रही सही kasar grihmantri जी ने पूरी कर दी की डंडा काबू में rakho नहीं तो jhande में lagaa दिया जाएगा। एकदम अपने बच्चन जी वाली इस्टाईल में (है ना?)। यानी मुंबई किसकी जो वहाँ रहे उसकी का सिद्धांत यहाँ नही है बल्कि जो मराठी उसकी वाला । इंडियन होने का कोई मतलब नही ,विशुद्ध आमचा महाराष्ट्र ,मराठी माणूस (ये एक अलग देश है इसका संविधान अलग है इसकी अपनी सरकार(राज)है अपनी सेना (नवनिर्माण)है और इसके राष्ट्रपिता ठाकरे सीनियर हैं,क्योंकि आज जिस इमारत पर खड़ा होकर राज साहब चिल्ला रहे हैं उसकी नींव उन्ही के ताऊ जी ने डाली थी)। राज साहब अपने विरासत में मिली परम्परा को ही ढो रहे हैं। अमिताभ ,शाहरुख़ जिसे लोग उनके सॉफ्ट टारगेट हैं और इनपर अटैक का मतलब ज्यादा से ज्यादा पब्लिक अत्ट्रेक्सन मिलना ।वैसे दोष पूरी तरह से मनसे वाले भाऊ का भी नही है बल्कि इसमे मुंबई में उपलब्ध उन बुनियादी सुविधाओं का भी दोष है जिनके लालच में उतर भारतीय उधर पहुंचे हुए हैं और सफल हो गए हैं (अब मुंबई वाले बन ही गए थे कि....)।
एक बात और इस अभियान की जड़ में है वो ये कि राज ठाकरे के चेले(गुंडे) अब उन सारी जगहों से चंदा(हफ्ता)पा रहे हैं(वसूल रहे हैं )जहाँ से कभी उनके ताऊ जी की पार्टी वाले वसूला करते थे। मतलब एक पंथ दो काज। अपना जनाधार भी तैयार हो रहा है और पार्टी का पेट भी भर रहा है। चूँकि पहले ही कहा जा चुका है कि कोई भी इस....को बाँध नहीं सकता क्योंकि प्रजातंत्र में जो चीज़ आपको निर्णय लेने से रोकती है वो है वोट-बैंक । कांग्रेस हो या बीजेपी या फ़िर शिवसेना सभी जानते हैं कि अगर इस गदहे के पगहा लगाया तो अपना वोट बैंक गडबडा जाएगा । बस करने दो जो कुछ कर रहा है अपने आप ही थोड़े दिनों में चुप बैठ जायेगा ( जब पेट भर जाएगा)। यानी इच्छाशक्ति के अभाव के साथ-साथ अपने फायदे की बात अधिक जरुरी है। प्रजातंत्र ऐसा तमाशा है ....लिखने वाले अपने धूमिल को भी कोई ठाकरे एंड कम्पनी वाला दिखा था क्या?
वैसे देश की सबसे पावरफुल महिला ने थोडी मरहम पट्टी के आसार दिखाए हैं मगर सोचिये उस प्रदेश में, इस देश में (अगर महाराष्ट्र इसी देश का हिस्सा है तब)उनकी ख़ुद की सरकार है तब उनके निर्णय लेने की दिक्कतें भी क्या वाकई वोट बैंक के कारण ऊहापोह की स्थिति पैदा कर रही हैं या फ़िर इसके पीछे का कोई दूसरा ही खेल है जो हमें नहीं दिख रहा। बहरहाल, इस जवान मोटे गदहे का धेंचुपना कब तक जारी रहेगा ,कब तक ये अपनी दुलत्तियाँ मारता रहेगा और कौन होगा जो इसकी नकेल कसेगा ये सारे प्रश्न ऐसे ही डस्ट-बीन में पड़े रहेंगे , गदहा नाचता रहेगा ।
ये थी तब की बात जब समाज सामंती सेट -अप में था। मगर अबकी स्थिति कहीं बेहतर है(ऐसा माना जाता है....) क्योंकि अब डेमोक्रेसी है ,यानी आम जनता का तंत्र ..प्रजातंत्र। तब सिर्फ़ सत्ता-प्रतिष्ठान के लोगों को ही सब कुछ करने का हक था मगर प्रजातंत्र में ऐसा नही है। यहाँ आम-ओ-ख़ास सभी को सब कुछ अपनी मनमर्जी का करने का हक है,साफ़ कहें तो "घोडे और घास को एक जैसी छूट है"। अब कोई लगाम किसी पर कुछ ख़ास प्रभावी नही है। कम-से-कम अपने राज भइया वाले मामले में तो ऐसा ही लग रह है। हालांकि इस सिस्टम में हमारे सामने 'अयोध्या ,गोधरा, कंधमाल जैसे कुछेक और उदाहरण भी हैं। बहरहाल, मनसे वाले राज भाऊ भी अकबरी-समय के उसी बाज़ार (जो अब दूसरे रूप में हैं )में खड़े होकर अपना नाच दिखा रहे हैं। और तुर्रा ये कि उनके गले में भी कोई नाथ-पगहा नहीं है। अब चूँकि प्रजातंत्र है (?) तो ये ....भी खुलेआम नाच रहा है,दुलत्तियाँ मार रहा हैऔर अपना धेंचुपना भी खूब मचा रहा है। पर सनद रहे ये ...कांजी हाउस जाने वाला नहीं है और ये चुपचाप पत्ते भी नहीं चबायेगा । या फ़िर ये भी कि ये कांजी हाउस जायेगा ही क्यों यहाँ किसीकी बादशाहत तो है नही कि एक आदमी जो कहेगा वही सब मानेंगे ,प्रजातंत्र है यहाँ सबके अपने-अपने (बड़े नहीं तो छोटे-छोटे ही सही) अपने हित हैं। तो यहाँ जिसका मुंह जिधर हो जाएगा ,वो उधर चला जाएगा,जो जैसा जानता है वही राग गायेगा। पर यह थीयरी भी केवल चुनिन्दा प्रदेश विशेष के लोगों और उनके बिगडैल नेताओं पर लागू होती है। और ये महानुभाव अपनी दूकान के लिए सबसे पहले उनलोगों को अपना निशाना बनाते हैं जो मजदूर,दूकानदार(छोटे)वगैरह हैं। मनसे के ...की जड़ में ये छोटे किस्म वाले जीव ही ज्यादा थे मगर अब इनका खेल, अपनी पिछली करामात की सफलता से उत्साहित होकर,कुछ दूसरे लेवल का हो चला है। अब यहाँ बड़े नाम हैं (बच्चन परिवार और शाहरुख़ खान दिल्ली वाला)जिनको अपना निशाना बनाते ही इनकी टी आर पी एकदम से टॉप पर पहुँच गई है।
कहने को तो यहाँ (प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में )हमारी सुरक्षा में पुलिस जैसी सुविधा भी प्रदान की गई है मगर इस...के आगे उसकी भी कोई अहमियत(सही कहें तो..डर)नहीं है। अब तक आम पब्लिक को यही पता था कि कोई उल्टा-सीधा कुछ करे तो पुलिस का डंडा सब सही कर देता है मगर यहाँ तो सीन ही दूसरा था । राज भइया तो कुछ बेसिए बहादुर निकले उन्होंने कमिश्नरी हेकडी को यह कहते हुए ठंडा कर दिया कि'वर्दी utaar के सड़क पर आ जाओ ,बता दिया जाएगा कि मुंबई किसके बाप की है''। -रही सही kasar grihmantri जी ने पूरी कर दी की डंडा काबू में rakho नहीं तो jhande में lagaa दिया जाएगा। एकदम अपने बच्चन जी वाली इस्टाईल में (है ना?)। यानी मुंबई किसकी जो वहाँ रहे उसकी का सिद्धांत यहाँ नही है बल्कि जो मराठी उसकी वाला । इंडियन होने का कोई मतलब नही ,विशुद्ध आमचा महाराष्ट्र ,मराठी माणूस (ये एक अलग देश है इसका संविधान अलग है इसकी अपनी सरकार(राज)है अपनी सेना (नवनिर्माण)है और इसके राष्ट्रपिता ठाकरे सीनियर हैं,क्योंकि आज जिस इमारत पर खड़ा होकर राज साहब चिल्ला रहे हैं उसकी नींव उन्ही के ताऊ जी ने डाली थी)। राज साहब अपने विरासत में मिली परम्परा को ही ढो रहे हैं। अमिताभ ,शाहरुख़ जिसे लोग उनके सॉफ्ट टारगेट हैं और इनपर अटैक का मतलब ज्यादा से ज्यादा पब्लिक अत्ट्रेक्सन मिलना ।वैसे दोष पूरी तरह से मनसे वाले भाऊ का भी नही है बल्कि इसमे मुंबई में उपलब्ध उन बुनियादी सुविधाओं का भी दोष है जिनके लालच में उतर भारतीय उधर पहुंचे हुए हैं और सफल हो गए हैं (अब मुंबई वाले बन ही गए थे कि....)।
एक बात और इस अभियान की जड़ में है वो ये कि राज ठाकरे के चेले(गुंडे) अब उन सारी जगहों से चंदा(हफ्ता)पा रहे हैं(वसूल रहे हैं )जहाँ से कभी उनके ताऊ जी की पार्टी वाले वसूला करते थे। मतलब एक पंथ दो काज। अपना जनाधार भी तैयार हो रहा है और पार्टी का पेट भी भर रहा है। चूँकि पहले ही कहा जा चुका है कि कोई भी इस....को बाँध नहीं सकता क्योंकि प्रजातंत्र में जो चीज़ आपको निर्णय लेने से रोकती है वो है वोट-बैंक । कांग्रेस हो या बीजेपी या फ़िर शिवसेना सभी जानते हैं कि अगर इस गदहे के पगहा लगाया तो अपना वोट बैंक गडबडा जाएगा । बस करने दो जो कुछ कर रहा है अपने आप ही थोड़े दिनों में चुप बैठ जायेगा ( जब पेट भर जाएगा)। यानी इच्छाशक्ति के अभाव के साथ-साथ अपने फायदे की बात अधिक जरुरी है। प्रजातंत्र ऐसा तमाशा है ....लिखने वाले अपने धूमिल को भी कोई ठाकरे एंड कम्पनी वाला दिखा था क्या?
वैसे देश की सबसे पावरफुल महिला ने थोडी मरहम पट्टी के आसार दिखाए हैं मगर सोचिये उस प्रदेश में, इस देश में (अगर महाराष्ट्र इसी देश का हिस्सा है तब)उनकी ख़ुद की सरकार है तब उनके निर्णय लेने की दिक्कतें भी क्या वाकई वोट बैंक के कारण ऊहापोह की स्थिति पैदा कर रही हैं या फ़िर इसके पीछे का कोई दूसरा ही खेल है जो हमें नहीं दिख रहा। बहरहाल, इस जवान मोटे गदहे का धेंचुपना कब तक जारी रहेगा ,कब तक ये अपनी दुलत्तियाँ मारता रहेगा और कौन होगा जो इसकी नकेल कसेगा ये सारे प्रश्न ऐसे ही डस्ट-बीन में पड़े रहेंगे , गदहा नाचता रहेगा ।
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लगे रहो मुन्नाभाई....