दिल ढूंढ़ता है फ़िर वही ........(दि.वि.वि.)
इन दिनों सारा समय खाली बेकार की बहसों में बीत जा रहा है और काम के नाम पर सब बकवास करते है...ये अल्फाज़ हैं हमारी यूनिवर्सिटी से ही पास-आउट एक पुराने स्टुडेंट का। ये सीनियर स्टुडेंट काफ़ी समय बाद इधर को आए हैं .....२००२ से अब के हालात एक दम ही बदल गए हैं। यूनिवर्सिटी के रंग-ढंग बदल गए हैं ,पढने का तरीका बदल गया है मगर इनकी यादों से वो पहले का मंज़र नही हटा। हाल ही में मेरे हॉस्टल में री- एडमिशन के लिए इंटरव्यू लिया गया,इस पर इनकी टिपण्णी थी कि "अब ये एक और नई नौटंकी यहाँ शुरू हो गई है,भाई खाली पिछली परीक्षा के मार्कशीट ले लो और मामला ख़त्म करो,ये क्या तमाशा बना रखा है?"-बाद में कही से कोई आवाज़ न उठते देख बोले -"एक हमारा दौर भी था ,जब लोगों ने वार्डेन और प्रोवोस्ट तक को हॉस्टल में घुसने तक नही दिया और एक ये समय है कि जब वार्डेन वगैरह यहाँ आते हैं तो लोग उनकी ....चाटने लगते हैं"। ....पहले -पहल लगता था कि ये बस यूँ ही कहते रहे होंगे मगर जबसे थोड़ा उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू किया तो पाया कि नही उन ज़नाब की बात सही है,हम लोग आज किसी भी अच्छी बुरी बातों पर कोई विरोध या प्रदर्शन नही करते,शायद यथा-स्थितिवाद के शिकार हो गए हैं । अभी हाल ही में ऐसी कई घटनाये हॉस्टल में हुईं,जो मानने लायक नही हो सकती थी मगर आवाज़ उठाने वाले बेवकूफ और बेकार करार दिए गए । छात्रों की तरफ़ से भी रेस्पोंसे ठंडा ही मिला ।उन्हें ऐसा लग रहा है कि चलो जो हो रहा है उससे हमे क्या करना है,एकाध- सालो में यहाँ से निकल ही जाना है । फ़िर जो टीचिंग में जाना चाहते हैं उनका सोचना है कि खाली-पीली फोकट में इनसे(अथॉरिटी से ) क्या टकराना ,कही करियर ख़राब कर दे तो?......उन्हें ये नही पता कि अब इतना सोचना भी बहुत हद तक एक प्रकार की निष्क्रियता की और धकेल रही है जो उनके आने वाले भविष्य के लिए भी ख़राब होगी। एक बात और इन दिनों में बड़ी जोर -शोर से यहाँ चल रही है कि फलां -फलां यहाँ पर गेस्ट रखता है और ये बन्दा अमुक के रूम में रह रहा है। ...इस बात पर वार्डेन इत्यादि ने कुछ लोगों पर फाईन भी किया हुआ है। जो इस दुर्घटना के शिकार हैं अब इस फिराक में हैं कि किसीका गेस्ट बस नज़र आ जाए तो उसकी शिकायत अथॉरिटी से की जाए । अब ये नजरिया भी इन्ही सालो में शुरू हुआ है कि मेरी कटी है मैं अब दूसरो की काटूँगा । मेरे सीनियर दुखी हो गए हैं कि यार अब यूनिवर्सिटी दलालों की जगह बन गई है।अब यहाँ स्टुडेंट नही वार्डेन-प्रोवोस्ट के दलाल रहने आते हैं और ये अपनी दलाली से स्टूडेंट्स का ही नुक्सान करते हैं। बहरहाल पिछले दिनों रिज़ में एक सज्जन से मुलाकात हुई जो कभी जुबली हाल में रहे थे,और सिविल के इंटरव्यू में २ बार पहुच कर निराश रहे । ये आजकल ग्वायेर हाल में यदा - कदा दिख जाते हैं ,कहा जाता है कि यूनिवर्सिटी के चलते-फिरते इन्स्य्क्लोपेडिया हैं। रिज़ में इन्होने अपने कुछ दोस्तों के साथ एक अड्डा बना रखा है जहाँ ये शाम को मिलजुलकर खाते -पीते हैं और बतगुज्जन करते हुए अपनी शाम बिताते हैं। उनकी कंपनी वाकई मजेदार होती है ,लगता है इन्होने और कुछ ना किया हो( भले ही,)मगर यूनिवर्सिटी के छात्र - जीवन के जज्बे को अपने भीतर जिन्दा रखा है ।अब तो सभी स्टुडेंट ना होकर एक ख़ास फ्रेम में हरयाणवी ,बिहारी,दलित,भूमिहार,ब्राह्मण,राजपूत इत्यादि हो गए हैं ..........अब लगता है कि मेरे वो सीनियर ठीक ही कहते है कि " यार अब यूनिवर्सिटी का वो जज्बा मर गया है.......लग भी रहा है।
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