यह एक्सटेंसन है देवदास का-देव डी


याद कीजिये जब आंखों में आँसू भरकर जाते हुए देवदास से चंद्रमुखी पूछती है-'फ़िर कब मिलना होगा?'-और देवदास इस बात को कहता है कि यदि अगला जन्म होता है तो मैं तुमसे दूर नहीं रह पाऊंगा '-संवाद कमोबेश ऐसा ही है -देवदास मर जाता है प्रेम की कसक दिल में लिए। पारो का जाने क्या हुआ(जैसा शरतचंद्र ने अपने नावेल में लिखा)। बहरहाल,देवदास देखने के बाद जो मन पे एक भारी पत्थर सा पड़ जाता था,वही उसको एक ख़ास फ़िल्म बनाता था। इस ट्रीटमेंट को चाहे वह बरुआ हो,रॉय हों ,या फ़िर भंसाली..सभी ने यूज किया । अनुराग कश्यप इन सबमें इसीलिए ख़ास हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने इसे पिछली फिल्मों की तरह सिर्फ़ भावनाओं का जाल पहना कर नहीं पेश किया -उन्होंने फ़िल्म में लगभग सभी जगहों पर नयेपन को दर्शाया है। इन्ही कुछ बिन्दुओं पर देव डी

१- पारो चमत्कृत करती है-याद कीजिये पिछली तीनों पारो को ,जो प्रेम और स्वाभिमान की मूर्ति थी,और अपने देव के लिए अंत तक आह भरती रही थी। देव डी की पारो इस maamle में अधिक क्रांतिकारी है। चाहे उसे अपने प्यार को जताना हो(गद्दे सायकल पे लादकर गन्ने के खेत में जाकर देव को अपने प्यार का अहसास कराना),अपने प्रेम का प्रतिदान ढीठाई से माँगना हो,या देव से उसके बारे में उल्टा-सीधा कहने वाले को सबक सिखाना । पर,इन सबके अलावे जो ख़ास बात उसके व्यक्तित्व की है वो ये कि ये पारो ना अपने सेक्सुअलिटी को लेकर कहे गए तीखे बातों को भूलती है ना ही फ़िल्म में अपने प्यार के टूट जाने का मातम मनाती है। यहाँ तक कि जब उसे मौका मिलता है तो उसे सूद समेत वसूलती है-"तेरी औकात बता रही हूँ...(देव से होटल के कमरे में का दृश्य याद कीजिये),देवदास को भव्य नायकों वाला व्यवहार नहीं बल्कि ठोस बराबरी का हिसाब किताब ,आख़िर पारो हमेशा क्यों भुगते..... । एकदम २१ वी सदी की नारी ..जो अपने शर्तों पर प्रेम करती है,फ़िर चाहे वह सेक्सुअलिटी के स्तर पर हो,या सामाजिक प्रदर्शन के स्तर पर..ये लड़की बरबस ही मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है..फ़िर ये भी कि अपनी शादी में जी खोल कर नाचने का साहस अब भी कितनी लडकियां कर पाती हैं..

२-चंदा को अबकी निराश नही होना पडा ...
एक ऐसी स्त्री जिसने प्रेम की खातिर अपना सब कुछ छोड़ दिया और प्रतिदान में उसे मिला ये कि,शायद पिछले जनम में उसका देव उसे मिल जाए...कल कि किसने देखा है...देवदास के सभी पुराने संस्करणों में यह हूक हमारे दिल में रह ही जाती थी कि ओह..बेचारी चंद्रमुखी...-पर,अनुराग ने इस चंदा को उस हूक के साथ सीन से गायब नहीं किया है बल्कि देवदास को अंततः उसीको मिलते दिखा कर उस विरहाकुल प्रेम का सुखद अंत करा दिया है...यानी दो, समाज से लगभग दुत्कार दिए गए ,व्यक्ति अंततः अपनी दुनिया ख़ुद रचते हैं और जीवन को चुनते हैं ना कि कोरे स्याह और भयानक नैराश्य को..चंदा लकी रही है इस बार ....वैसे भी इस विदेशी बाला चंदा(कल्कि)ने किरदार को जीने की भरपूर कोशिश की है और सफल भी रही है.
3-देव डी यानी फुल पैकेज ऑफ़ मनोरंजन...
अपने पूर्वर्ती सभी देवों की तरह ये देवदास उप्स देव डी ..सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता और इतना ही नही यह कान का कच्चा भी है.तभी तो अपनी बेवकूफी में अपने प्रेम के स्त्रीत्व को ही गाली दे बैठता है..पर मानिनी नायिका पारो टेसुए नहीं बहती बल्कि जवाबी हमले में अपनी शादी का जश्न मनाती है.पर इन सब के उलट देव का यह किरदार अधिक पोजिटिव है,मेरे ऐसा कहने के पीछे दो बातें है पहली तो ये कि-बार -बार कई बार मैंने देवदास फिल्में देखी हैं और हर बार की तरह इस बार भी इस बेचारे देवा को मरते देखने का साहस अब नहीं था -शायद अनुराग नई पीढी की इस डीमांड को समझ गए थे....इसलिए यह देवदास उप्स (फ़िर गलती हो गई)देव डी (ढिल्लों)अंत में जीवन की कड़वी सच्चाई को अक्सेप्ट करता है और अपनी चंद्रमुखी को झूठा दिलासा नहीं देता कि अगले जनम में शायद...और उसके साथ वह अपने प्रेम के नए संसार में निकल पड़ता है..सच मानिए आप लोगों की बात तो नहीं जानता पर हाँ ...मुझे ये बड़ा सुखद लगा कि चलो अब देव प्रैक्टिकल हो गया है अपनी नादानी से बाहर निकल के.साथ ही पार्श्व से आते शब्द इस दृश्य को और अधिक जिंदादिल बना देते हैं-'भर ले ज़िन्दगी रौशनी से भर ले'-यह देव हमारे अपने आसपास का है ..अब शायद ऐसे नौजवानों को जो पिछले प्रेम में धोखा खा गए हैं और अब फ़िर से एक नई गाँठ बाँधने की जुगत में हैं उन्हें शायद देव डी ही बोला जाने लगेगा ....देवदास बनने का ज़माना गया यह २१ वी सदी है यहाँ निराशा नहीं .इस प्रसंग में एक और बात आती है कि -चुन्नी (दिव्येंदु भट्टाचार्य)दिल्ली के बाहर से आने वाले लड़कों -नौजवानों के बीच पसरे इस जुमले को बड़े चुटीले अंदाज़ में परोसता है कि दिल्ली की कुडियां ...बाप रे बाप...-वह देव को कहता है-दिल्ली में बिल्ली मारो ,खा लो,पालो मत.-क्या वाकई ?अनुराग का इस शहर से खासा जुडाव रहा है...
-------शरतचंद्र के साथ कोई अन्याय नहीं हुआ .ये कोरी भावुकता है...शरत बाबु की कालजयी कृति से अनुराग ने महज अपने हिसाब से मैटेरिअल लिया है .और अपने इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी है कि २१वी सदी देवदास है तो हमारे सामने यह तो एकदम साफ़ है कि हम जो देख रहे हैं या देखने जा रहे है वह धोती वाला पारंपरिक नायक नहीं है बल्कि ऐसी पीढी का युवक है अपने तमाम झंझावातों के बावजूद अंततः जीवन में यकिन रखने वाला है.इसके लिए उन सो कोल्ड सामाजिक वृतों का कोई मायने नहीं हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं है..इसीलिए वह समाज की तमाम सच्चाईयां स्वीकारता है और एक ऐसी औरत को संगिनी स्वीकारता है जिसका वजूद इस समाज में कम-से-कम स्वीकार वाला तो नही ही है.-स्वीकार का ऐसा साहस यही नया देव ही दिखा सकता है-यह कहीं से शरत बाबु के आदर्शों का ,प्रेम का मजाक नहीं बनाता बल्कि उसको एक नई उंचाई देता है... अनुराग कश्यप कहीं से कुछ फालतू नहीं ठूंसते ....१८ गाने होने के बावजूद सभी फ़िल्म में सिचुएशन के प्रवाह को बनाने में ही मददगार होते हैं......."इमोशनल अत्याचार"का यह अनुरागीय तरीका वाकई अनुराग के लिए सैल्यूट करने पर मजबूर करता है.फ़िल्म के अन्य पक्षों पर क्या कहा जाए...सभी पूरे हैं फुल टू ढंग के और अपने-अपने खांचे में एकदम फिट.हिन्दी फिल्मजगत को इस बार एक नए किस्म की फ़िल्म मिली है जो अधिक समय तक याद रखी जायेगी नंबर १ और चोपडाज की स्टीरेओ टाइप फिल्मों से राहत देने वाली............

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जानकारी देने के लिए आभार....

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