महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय
[ भोजपुरी समाज में जब भी किसी सांस्कृतिक शख्सियत की बात पूछी जाती है,लोग बड़े गर्व से भिखारी ठाकुर का नाम लेते हैं | यह अच्छी बात है,इससे इनकार नहीं परन्तु यह उतनी ही दुखद बात है कि,भोजपुरी समाज के एक और बड़े रत्न 'महेंद्र मिश्र ' पता नहीं क्यों लोगों को याद नहीं हैं | अगर कुछ लोगों को महेंद्र मिश्र याद भी हैं तो उनका विस्तृत विवरण उन्हें नहीं मालूम | हालांकि रवीन्द्र भारती ने 'कंपनी उस्ताद'नामक नाटक लिख कर और संजय उपाध्याय ने इसे मंचित कर इस अनभिज्ञता को काफी हद तक कम किया है | इस बीच मुझे महेंद्र मिश्र पर एक लेख बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की 'परिषद् पत्रिका '(अप्रैल २००७ से मार्च २००८)में डॉ. सुरेश कुमार मिश्र का 'महेंद्र मिश्र :जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय 'नाम से मिला | उस लेख को आप सभी सुधीजनों के लिए ज्यों का त्यों साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ | इस लेख को ब्लॉग जगत में आप पाठकों के समक्ष लाने का कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं है,अपितु सांस्कृतिक चाहना है ,जो संभवतः एक जागरूक भोजपुरी भाषी होने के नाते ही उपजी है | उम्मीद है डॉ.सुरेश मिश्र जी इस स्थिति को समझेंगे | लेख किस स्तर का है इसे प्रबुद्ध वर्ग देखें पर यहाँ इसे प्रस्तुत करने का उद्देश्य मात्र मिश्र जी के बारे में जानकारी मुहैया करना है |- मोडरेटर जन्नत टाकिज ]
महेंद्र मिश्र या महेंदर मिसिर का नाम बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोकगीतकारों में सर्वोपरि है | वे लोकगीत की दुनिया के सम्मानित बादशाह थे | उनकी रचित'पूरबी'वहाँ-वहाँ तक पहुँची है,जहाँ-जहाँ भोजपुरी सभ्यता,संस्कृति एवं भोजपुरी भाषा पहुँची है |'हद्द छाड़ी बेहद्द भया' | मारीशस,फिजी,सूरीनाम तक उनकी पूरबी तथा अन्य गीत पहुँच चुके हैं | इतनी व्याप्ति का कारण यह रहा है कि,उनका कृतित्व अनेक विरोधी रचना-तत्वों से बना था और वे सिर्फ गायक ही नहीं,अपितु आशुकवि,संगीतकार,कीर्तनकार,प्रवचनकर्ता और धर्मोपदेशक भी थे | अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी दूसरों द्वारा रचित गीत नहीं गया | हमेशा स्वरचित गीत ही गाते रहे |
जिस समय हिंदी की संत काव्य परंपरा के अंतिम कवि श्रीधर दस,धरनी दास और लक्ष्मी सखी आदि की रचनायें बिहार और उत्तर प्रदेश की भोजपुरी भाषी जनता में गूँज रही थी और भोजपुरी मिट्टी को काव्य और आध्यात्म की सौंधी खुशबू से जीवंत बना रही थी,उसी समय महेंद्र मिश्र की रचनायें भी समाजोद्धार एवं राष्ट्रीयता के आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज करा रही थीं | समाज के प्रति एक सजग साहित्यकार की भूमिका का निर्वाह करते हुए श्री मिश्र जी ने हिंदी में भी लिखा,भोजपुरी में भी लिखा और हिंदी-भोजपुरी मिश्रित काव्य-भाषा का निर्माण किया | यह तत्कालीन युग-धर्म की माँग थी | यह उनके लेखन का एक प्रयोगमय पक्ष ही कहा जायेगा कि,उन्होंने सिर्फ भोजपुरी भाषा में नहीं लिखा | संभवतः उनके समक्ष एक विराट क्षेत्र उपस्थित था,जो ना सिर्फ खड़ी बोली जानता था,न सिर्फ भोजपुरी बल्कि दोनों भाषाओं का प्रयोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में करता था और आज भी करता है |
महेंद्र मिश्र को लिखित-अलिखित भोजपुरी लोकगीतों की एक लम्बी और समृद्ध परंपरा मिली थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने एक विशाल वांग्मय की रचना की | मगर भोजपुरी भाषी जनता के भोजपुरिया संस्कारों ने उनके गुणों को कम ही स्वीकृति दी | उनके जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में अनेक अप्रमाणिक घटनाओं को जोड़कर एक मनोहर और रोमांचक वायवीय मिथक का निर्माण किया जाता रहा | इसका परिणाम हुआ कि,उनका वास्तविक जीवन-वृत्त और सम्पूर्ण कवि-कर्म गौण एवं विलुप्त होता गया | कभी-कभी तो कल्पित घटनाओं का इतना सुन्दर,मोहक वितान खड़ा किया गया कि, ऐसा प्रतीत होने लगता है कि,वे ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं, कोई मिथकीय पात्र हैं |
वस्तुतः,महेंद्र मिश्र भोजपुरी भाषा और साहित्य को उर्ध्वमुखी दिशा प्रदान करने वाले, उसमें काव्य और आध्यात्म के माध्यम से गंभीर जीवन दर्शन का पुट भरने वाले और अश्विनी कुमारों की तरह जीवन को जीने वाले एक जागरूक कवि थे | तन-मन से एक समर्पित गायक और प्रसंग तथा अवसर के अनुरूप कविता रच लेने की सारस्वत क्षमता के कारण उनकी कविता में गेयता का स्थान सर्वोपरि है | बिलकुल वैसे ही जैसे तुलसी,सुर,निराला और महादेवी वर्मा में है और जैसे उनके रचनाओं के काव्य और संगीतात्मकता को अलग नहीं किया जा सकता |
{ शेष अगली कड़ी में....}
महेंद्र मिश्र या महेंदर मिसिर का नाम बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोकगीतकारों में सर्वोपरि है | वे लोकगीत की दुनिया के सम्मानित बादशाह थे | उनकी रचित'पूरबी'वहाँ-वहाँ तक पहुँची है,जहाँ-जहाँ भोजपुरी सभ्यता,संस्कृति एवं भोजपुरी भाषा पहुँची है |'हद्द छाड़ी बेहद्द भया' | मारीशस,फिजी,सूरीनाम तक उनकी पूरबी तथा अन्य गीत पहुँच चुके हैं | इतनी व्याप्ति का कारण यह रहा है कि,उनका कृतित्व अनेक विरोधी रचना-तत्वों से बना था और वे सिर्फ गायक ही नहीं,अपितु आशुकवि,संगीतकार,कीर्तनकार,प्रवचनकर्ता और धर्मोपदेशक भी थे | अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी दूसरों द्वारा रचित गीत नहीं गया | हमेशा स्वरचित गीत ही गाते रहे |
जिस समय हिंदी की संत काव्य परंपरा के अंतिम कवि श्रीधर दस,धरनी दास और लक्ष्मी सखी आदि की रचनायें बिहार और उत्तर प्रदेश की भोजपुरी भाषी जनता में गूँज रही थी और भोजपुरी मिट्टी को काव्य और आध्यात्म की सौंधी खुशबू से जीवंत बना रही थी,उसी समय महेंद्र मिश्र की रचनायें भी समाजोद्धार एवं राष्ट्रीयता के आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज करा रही थीं | समाज के प्रति एक सजग साहित्यकार की भूमिका का निर्वाह करते हुए श्री मिश्र जी ने हिंदी में भी लिखा,भोजपुरी में भी लिखा और हिंदी-भोजपुरी मिश्रित काव्य-भाषा का निर्माण किया | यह तत्कालीन युग-धर्म की माँग थी | यह उनके लेखन का एक प्रयोगमय पक्ष ही कहा जायेगा कि,उन्होंने सिर्फ भोजपुरी भाषा में नहीं लिखा | संभवतः उनके समक्ष एक विराट क्षेत्र उपस्थित था,जो ना सिर्फ खड़ी बोली जानता था,न सिर्फ भोजपुरी बल्कि दोनों भाषाओं का प्रयोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में करता था और आज भी करता है |
महेंद्र मिश्र को लिखित-अलिखित भोजपुरी लोकगीतों की एक लम्बी और समृद्ध परंपरा मिली थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने एक विशाल वांग्मय की रचना की | मगर भोजपुरी भाषी जनता के भोजपुरिया संस्कारों ने उनके गुणों को कम ही स्वीकृति दी | उनके जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में अनेक अप्रमाणिक घटनाओं को जोड़कर एक मनोहर और रोमांचक वायवीय मिथक का निर्माण किया जाता रहा | इसका परिणाम हुआ कि,उनका वास्तविक जीवन-वृत्त और सम्पूर्ण कवि-कर्म गौण एवं विलुप्त होता गया | कभी-कभी तो कल्पित घटनाओं का इतना सुन्दर,मोहक वितान खड़ा किया गया कि, ऐसा प्रतीत होने लगता है कि,वे ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं, कोई मिथकीय पात्र हैं |
वस्तुतः,महेंद्र मिश्र भोजपुरी भाषा और साहित्य को उर्ध्वमुखी दिशा प्रदान करने वाले, उसमें काव्य और आध्यात्म के माध्यम से गंभीर जीवन दर्शन का पुट भरने वाले और अश्विनी कुमारों की तरह जीवन को जीने वाले एक जागरूक कवि थे | तन-मन से एक समर्पित गायक और प्रसंग तथा अवसर के अनुरूप कविता रच लेने की सारस्वत क्षमता के कारण उनकी कविता में गेयता का स्थान सर्वोपरि है | बिलकुल वैसे ही जैसे तुलसी,सुर,निराला और महादेवी वर्मा में है और जैसे उनके रचनाओं के काव्य और संगीतात्मकता को अलग नहीं किया जा सकता |
{ शेष अगली कड़ी में....}
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